सुखी वैवाहिक जीवन धरती पर स्वर्ग के सुख के समान है। यह जीवन सामान्यतः मनुष्य जीवन का सबसे अतंरंग और जीवंत भाग है। जीवन की आकांक्षा की पूर्ति बिना जीवन साथी के संभव नहीं है। इसलिए जीवन की चतुराश्रम व्यवस्था में गृहस्थाश्रम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि हर सफल व्यक्ति के पीछे एक नारी होती है। वास्तव में एक कुशल नारी अपने पति का जीवन संवारने वाली होती है।
एक पोप ने यहां तक कह डाला कि ईश्वर से जो सर्वश्रेष्ठ नियामत मनुष्य को मिली वह उसकी पत्नी है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पुरुषों में शुक्र और महिलाओं में मंगल, गुरु तथा द्वितीय एवं सप्तम भाव अधिपति उनके वैवाहिक जीवन के हर पहलू पर प्रभाव डालते हैं। ये ही उनका विवाह कराते हैं और ये ही उन्हें अविवाहित रखते हैं। वैवाहिक जीवन की गुणवत्ता, उसके अंत और उससे मिलने वाले सुख-दुख का दायित्व भी इन्हीं पर है। वैवाहिक जीवन सुखमय होगा या कष्टकर यह जानने के लिए निम्नलिखित ज्योतिषीय बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है।
- गुण मिलान में भकूट का महत्व
- शुक्र की निर्बलता और सबलता का विचार।
- गुरु बल का महत्व।
- कुंडली में द्वितीय, चतुर्थ एवं सप्तम भाव पर विचार।
- संबंध विच्छेदक ग्रह राहु और केतु
- कल्पना का भंडार चंद्र एवं कर्क राशि।
- कुमार ग्रह मंगल की शुभता एवं क्रूरता।
- नपुंसक ग्रह बुध का विचार।
- वैराग्य कारक ग्रह शनि का विचार
- सिरदर्द कारक सूर्य का विचार।
1. भकूट: वैवाहिक जीवन में भकूट का विशेष महत्व है। अंग, वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह, गण, राशि, कूट एवं नाड़ी उसके हैं। इनके अंक निर्धारित हैं जो इस प्रकार हैं:
पद्ध वर्ण1 ;पपद्ध वश्य 2 ;पपपद्ध तारा 3 ;पअद्ध योनि 4 ;अद्ध ग्रह 5 ;अपद्ध गण 6 ;अपपद्ध राशिकूट 7 ;अपपपद्ध नाड़ी 8 योग 36 कम से कम 18 गुण आने पर विवाह संबंध ग्राह्य है। उससे कम की स्थिति नेष्ट होती है। नेष्ट की स्थिति में विवाह करने पर दाम्पत्य सुख का अभाव होता है। भकूट का निम्नलिखित रूप से विश्लेषण किया जा सकता है।
वर्ण: वर्ण चार हैं - ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, एवं शूद्र।
वश्य: मानव, चतुष्पद, जलचर, वनचर एवं कीट ये पांच योनियां है। इनमें सम योनि यथा बालक-बालिका वैवाहिक संबंध शुभ है तथा अन्य नेष्ट हंै।
योनि: पशु योनियां चैदह हैं: अश्व, गण, मेष, सर्प श्वान, मार्जार, गौ, महिष, सिंह, वानर, नकुल, मृग, मूषक और व्याघ्र। इनमें से सात का एक दूसरे से बैर संबंध है। यथा अश्व-महिष, गण-सिंह, मेष-वानर, सर्प-नकुल, श्वान-मृग, मार्जार-मूषक, और गो-व्याघ्र का संबंध। अन्य सामान्य हंै। नाड़ी: कुल सत्ताइस हैं।
इन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है- आदि, मध्य और अंत। क्रम इस प्रकार है:
अश्विन से आदि, मध्य और अंत एवं अंत, मध्य और आदि। बालक-बालिका की एक ही नाड़ी होना नेष्ट है। नाड़ी का असर बालक-बालिका के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
राशि कूट: राशि कूट से जातक की मनोवृत्ति एवं अनुराग का अनुमान होता है। चंद्रमा जहां रहता है उसे राशि कहते हैं। बालक की राशि से बालिका की राशि तक गणना की जाती है। उसमें द्विद्वादश, षडाष्टक, नौ-पंचक संबंध नेष्ट हैं। शेष अनुकूल हैं।
द्विद्वादश: यदि लड़के की राशि से लड़की की राशि दूसरी हो एवं लड़की की राशि से लड़के की राशि बारहवीं हो तो उक्त दोष लगता है। इस दोष के कारण कभी ताल-मेल नहीं बैठता है। फलतः जीवन कलहमय रहता है। कुछ विद्वानों का मत है कि वर की राशि विषम हो एवं कन्या की सम तो यह दोष दूर हो जाता है। यथा लड़का मेष और लड़की की राशि मीन हो तो द्विद्वादश दोष नहीं होता है।
षडाष्टक योग: वर की राशि से कन्या की राशि षष्ठ हो और कन्या की राशि से वर की राशि अष्टम हो या वर की राशि से कन्या की राशि अष्ट एवं कन्या की राशि से वर की राशि षष्ठ हो तो इसे षडाष्टक योग कहते हैं। इसमें संतान भय होता है। किंतु इसमें यदि कन्या की राशि विषम हो एवं वर की सम तो यह दोष नहीं लगता है।
नवपंचक योग: वर की राशि से कन्या की राशि पंचम हो अथवा कन्या की राशि से वर की राशि नवम हो तो दोष लगता है। इस दोष के कारण कन्या को वैधव्य योग लगता है। अतः इस योग के वर-कन्या का विवाह नहीें होना चाहिए।
शुक्र: पुरुष की कुंडली में शुक्र स्वगृही, या उच्चस्थ हो या मूल त्रिकोण, लग्न, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम, एकादश या द्वादश भाव में हो तो अच्छी पत्नी मिलती है। शुक्र सांसारिक सुख के साधन उपलब्ध कराता है। वह यदि व्यय भाव में हो तो सारा सुख इच्छा मात्र से मिल जाता है। राहु शुक्र के साथ हो या दृष्टि संबंध हो तो अवैध संबंध स्थापित कराता है। यदि सप्तम शुक्र स्वगृही या बलवान हो तो शची तुल्य पत्नी देता है। मंगल से युक्त होने पर बलात्कार जैसा कुकर्म करने को प्रेरित करता है। चंद्रमा-शुक्र युति होने पर कामातुर होकर पुरुष कुत्सित औरतों के साथ संबंध स्थापित करता है। शुक्र के साथ मंगल, राहु और चंद्र अवैध व्यवहार कारक होते हैं।
गुरु: शुभ ग्रहों में पहला स्थान बृहस्पति का है। इसे जीव भी कहते हैं। जहां सूर्य आत्मबल प्रदान करता है, चंद्र रोग से लड़ने की क्षमता देता है वहीं गुरु जीवन का संचार करता है। नारी की कुंडली में यह पति कारक ग्रह है। धनु एवं मीन राशि का गुरु स्वगृही होता है। कर्क इसकी उच्च राशि है। गुरु द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम या एकादश में हो तो स्त्री को अच्छा एवं भद्र पति मिलता है। पंचम एवं नवम विशेष योग कारक माने जाते हैं। गुरु छठे, आठवें, दसवें या बारहवें भाव में निर्बल माना जाता है। मकर इसकी नीच राशि है। राहु के साथ होने पर अच्छा फल प्रदान नहीं करता है। निर्बल एवं अशुभ गुरु पति के सुख से वंचित कर देता है।
वक्री गुरु भी अच्छा फल नहीं प्रदान करता है। द्वितीय भाव का गुरु दाम्पत्य जीवन के लिए आयु एवं एश्वर्य देता है। तृतीय भाव का स्वगृही गुरु भाई तथा पत्नी दोनों का सुख देता है। पंचम भाव का गुरु विद्या एवं यश, सप्तम भाव का भद्र पति एवं पतिव्रता पत्नी देता है, नवम भाव गुरु भाग्यशाली बनाता एवं एकादश भाव का गुरु पुनर्विवाह कराता है। अष्टम भाव में स्थित गुरु यदि सबल तथा पाप ग्रह की दृष्टि से रहित हो तो लोक-परलोक दोनों को सुदृढ़ बनाता है। गुरु लग्न में अच्छा फल नहीं देता है, ऐसा कुछ ज्योतिर्विदों का मत है।
मकर एवं तुला लग्न वालों को गुरु अच्छा फल प्रदान नहीं करता है, जबकि उच्चस्थ हो तो भी कभी कभी देखा गया है कि कमजोर गुरु वाली नारी कष्ट भोगती-भोगती, दरिद्रता से जीवन-यापन करती-करती अपने सुपथ से विचलित हो जाती है।
बुध: यह एक नपुंसक एवं बाल ग्रह है। यह विद्यार्थियों के लिए शुभ है तो दाम्पत्य सुख में बाधक है। पंचम, सप्तम, एवं नवम में स्थित बुध जातक की कामेच्छा को न्यून कर देता है। चंद्र लग्न से इसका यही प्रभाव होता है। सप्तम में नीचस्थ, बुध, गुरु, शुक्र दाम्पत्य सुख से बंचित कर देते हैं।
चतुर्थ एवं अष्टम स्थित बुध अच्छा फल प्रदान करता है। अष्टम बुध राजयोग कारक होता है, यह अनुभूत है। कुमार ग्रह मंगल: मंगल एक अविवाहित ग्रह है। यह संसार के सभी पुरुषों को अविवाहित रखना चाहता है। जो इसके विरुद्ध जाते हैं
उन्हें कष्ट देता है। मानसागरी के अनुसार लग्न से, चंद्र से या शुक्र से मंगल, लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश में हो तो दाम्पत्य सुख नाशक होता है परंतु कुछ विद्वान द्वितीयस्थ मंगल को भी कष्ट कारक मानते हैं क्योंकि द्वितीय भाव सप्तम भाव से अष्टम होता है। मंगल गुरु के साथ या दृष्ट या स्वगृही हो तो उसका दोष नहीं होता है। संबंध विच्छेदक ग्रह राहु-केतु: राहु एवं केतु पाप ग्रह हैं। ये जहां भी रहते हैं
उस स्थान को हानि पहुंचाते हैं। राहु तो संबंध को विच्छेद कर देता है। लेकिन अन्य दाम्पत्य कारक होने पर अवैध संबंध स्थापित करता है। केतु अकेला हो और शुभ ग्रह से दृष्ट न हो तो उस स्थान को पूर्णतः जलाकर भस्म कर देता हैं यह षष्ठ भाव में परम शुभ फल प्रदान करता है। उत्तर कालामृत के अनुसार तृतीय केतु परम राजयोग कारक होता है। सप्तम और उच्चस्थ राहु-केतु भी अच्छा फल प्रदान करने में सक्षम नहीं होते हैं। ”कुमार्या सप्तमे पापे।“ वैराग्य कारक ग्रह शनि: शनि बुध की भांति नपुंसक ग्रह है। इसके अतिरिक्त वैराग्य कारक भी है। शनि संासारिक एवं दाम्पत्य सुख में बाधा भी उत्पन्न करता है।
शनि, लग्न, पंचम, सप्तम या दशम भाव में होने पर सप्तम भाव पर प्रभाव डालता है। इससे दाम्पत्य जीवन में वैमनस्य उत्पन्न होता है। नीचस्थ सप्तम भाव में अकेला शनि विधुर/ विधवा बना देता है। उच्चस्थ शनि उत्तम फल प्रदान करता है। लेकिन दाम्पत्य जीवन में मधुर संबंध नहीं रहता है। कल्पना का भंडार चंद्र ग्रह एवं कर्क राशि: चंद्रमा मन है। वेद में कहा गया है ”चंद्रमा मनसो जाता“। मन इच्छा है। जिसका चंद्र बलवान होता है उसकी मनःस्थिति मजबूत होती है। वह विपरीत स्थितियों में नहीं घबराता है। सोच-समझकर काम करता है।
कर्क एवं वृष राशि पर चंद्रमा विशेष प्रभाव डालता है। उक्त राशि वाले सोच समझकर निर्णय लेते हैं। महत्वाकांक्षी होते हैं और कल्पना लोक में विचरण करते हैं। यथार्थ से दूर रहते हैं। यह राशि में दाम्पत्य सुख के बाधक होती है। सप्तम भाव एवं अष्टम भाव का स्वामी शनि होता है। शनि जिस राशि का स्वामी होता है उस भाव का उसे सुख कम होता है। उसका विकास अच्छा नहीं होता है। इसके उदाहरण भगवान राम, पं. जवाहर लाल नेहरू, श्रीमति इंदिरा गांधी (कर्क लग्न), श्रीमति मेनका गांधी (कर्क राशि) हैं। इन्हें दाम्पत्य सुख का अभाव रहा। इसके विपरीत मकर राशि वालों एवं मकर लग्न वालों का दाम्पत्य सुख बहुत होता है। इसके सप्तम भाव का स्वामी चंद्रमा होता है।
कर्क राशि एवं लग्न वालों का मकर राशि एवं लग्न वालों से संबंध हो तो उनका दाम्पत्य सुख सुदीर्घ होता है।
सर दर्द कारक ग्रह सूर्य: सूर्य एक क्रूर ग्रह है। मानव-मन तनावग्रस्त करता है। शास्त्र के अनुसार ”सूर्य सौरी वुजा पापा“ यह भी पाप ग्रह है। सूर्य उच्चस्थ हो और शुभ ग्रह से युत एवं दृष्ट हो तो शुभ प्रभाव डालता है। सप्तम भाव में सूर्य तभी शुभ फल देता है जब सप्तम भाव पर गुरु की दृष्टि होती है। सप्तम में सूर्य सामान्यतः कलह देता है।
भाव प्रकरण द्वितीय भाव: यह धन भाव है।यह सप्तम भाव का अष्टम, अष्टम भाव का सप्तम, द्वादश भाव का तृतीय तथा दशम भाव का पंचम भाव है। द्वितीय भाव के बलवान होने से पारिवारिक जीवन सुखी होता है और दम्पति धनी तथा दीर्घायु होते हैं। इस भाव में गुरु, शुक्र, बुध एवं मंगल अच्छा फल प्रदान करते हैं जबकि क्षीण चंद्रमा, सूर्य, शनि, राहु एवं केतु कुत्सित फल प्रदान करते हैं। द्वितीय भाव नीचस्थ ग्रह पत्नी की आयु कम करता है लेकिन पति दीर्घायु होता है। सप्तमेश की द्वितीय स्थान में स्थिति से दम्पति उद्विग्न रहते हैं। अष्टम भाव: यह सप्तम का द्वितीय भाव है। सप्तमेश आठवें स्थान में हो दाम्पत्य सुख कम हो जाता है।
जातक पुत्र, पत्नी से रहित होकर वैराग्य पथगामी होता है। उसमें कामेच्छा की कमी रहती है। अष्टम बलवान हो तो जातक दरिद्र एवं चरित्रहीन होता है।
द्वादश भाव: सप्तमेश द्वादश में चला जाता है तो सप्तम भावाधिपति उदासीन हो जाता है। द्वादश का स्वामी यदि सप्तम भाव में जाता है तो सप्तम भाव की हानि होती है।
नीचस्थ ग्रह: मेष का शनि , मिथुन का केतु, धनु का राहु, कर्क का मंगल, मीन का बुध, तुला का सूर्य, कन्या का शुक्र, वृश्चिक का चंद्रमा सप्तम भाव में हों तो विधुर एवं विधवा योग बनाते हंै। तुलनात्मक जन्मांक चक्र का अध्ययन भकूट के आधार पर: यह एक ऐसे दम्पति का जन्मांक चक्र है जिनका भकुट 14 आया है, जिसके कारण जीवन में ताल-मेल नहीं रहा। लेकिन दोनों दीर्धायु रहे तथा पंाच संतानों का सुख मिला। भकूट गणना नवम चित्रा प्र.च. अश्विन प्र.च. संख्या राशि कन्या मेष 0 वर्ण वैश्य क्षत्रीय 1 वश्य मानव चतुष्पद 1 योनि व्याघ्र अश्व 1 राशीश बुध भौम ) गण राक्षस देव 1 नाड़ी मध्य आदि 8 तारा 5 6 1) योग 14 दोनों मंगली हैं। लेकिन पुरुष की कुंडली के सप्तम भाव में गुरु एवं मंगल योग कारक होकर शुभ राशि में हैं।
पुनः पत्नी की कुंडली में मंगल स्वगृही होकर गुरु के साथ में अकारक है। अतः दोनों दीर्घायु हैं। षडाष्टक योग भी है
जो आजीवन कलह का कारण है। लेकिन पुरुष राशि सम और कन्या की विषम है। इसलिये दोष कम हुआ। मंगल स्वगृही होने के कारण पत्नी सदा सुहागिन रहेगी।
महात्मा गांधी: इस कुंडली के जातक का दाम्पत्य जीवन पूर्ण सफल था। दोनों एक दूसरे के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। इसके कारण निम्नलिखित हैंः
1. सप्तमेश मंगल लग्न में बैठकर सप्तम भाव को देख रहा है।
2. भोग कारक ग्रह शुक्र की सप्तम भाव पर दृष्टि है।
3. भाग्येश की पूर्ण दृष्टि सप्तम भाव पर है।
4. कर्क राशि से गुरु भाग्येश है जो सप्तम भाव में है।
5. शनि के द्वितीय भाव में होने से दोनों दीर्घायु रहे। लेकिन गार्हस्थ्य जीवन संन्यासी जैसा रहा।
पं. जवाहर लाल नेहरु: यह कुंडली एक ऐसे महापुरुष की है जिन्हंे आदर्श पत्नी मिली परंतु पत्नी का सुख अल्प रहा। इसके कारण निम्नलिखित हैं:
1. सप्तमेश शनि द्वितीय भाव में है।
2. कर्क राशि एवं लग्न दोनों हैं। कर्क का दाम्पत्य सुख अल्प होता है।
3 सप्तम भाव केतु-राहु के बीच में है।
4. मकर मंगल की उच्च राशि है।
5. सप्तम भाव पर गुरु या शुक्र की पूर्ण दृष्टि नहीं है।
अटल बिहारी वाजपेयी: यह कुंडली एक ऐसे महापुरुष की है जिन्होंने शादी नहीं की। इसके कारण निम्नलिखित हैं:
1. लग्न में उच्चस्थ शनि के कारण संन्यास योग बना।
2. शनि की दृष्टि सप्तम भाव पर है।
3. सप्तमेश मंगल व्यय भाव में है और अपने भाव से द्वादश एवं लग्न से षष्ठ भाव में है।
4. सप्तम भाव पर अकारक ग्रह गुरु की दृष्टि है।
रेखा: यह एक ऐसी अभिनेत्री है जिनके पति की मृत्यु आकस्मिक हुई। इसके कारण निम्नलिखित हैं:
1. सप्तम भाव में नीचस्थ केतु है।
2. सप्तम भाव पर मंगल एवं राहु की विपरीत दृष्टि है।
3. भोगकारक ग्रह शुक्र व्यय भाव में है।
4. गुरु अष्टम भाव में है।
माधुरी दीक्षित: यह ऐसी अभिनेत्री की कुंडली है जिनके पति अमेरिका में रहते हैं। पति के रहते हुए भी उन्हें सुख प्राप्त नहीं है। इसके कारण निम्नलिखित हैं:
1. सप्तम भाव में राहु है।
2. सप्तमेश व्यय भाव में है।
3. मंगली भी हैं।
4 जातक की राशि कर्क है।
5. अकारक गुरु दशम में है।
मुमताज: यह एक ऐसी अभिनेत्री की कुंडली है जिसने शादी की और तलाक भी दे दिया। इसके कारण हैं:
1. सप्तमेश गुरु को केंद्राधिपति दोष है।
2. जातिका मंगली है। सप्तम भाव पर मंगल की दृष्टि है।
3. द्वितीय भाव में पाप ग्रह शनि एवं बुध हैं।
4. सिंह राशि वालों का दाम्पत्य सुख कम होता है।
ओसामा बिन लादेन: इस कुंडली के जातक की अनेक पत्नियां हंै। इसमें बहु वल्लभा योग है। इसके कारण हैं:
1. शुक्र सप्तम भाव में स्वगृही है।
2. चंद्रमा की उच्च दृष्टि सप्तम भाव पर पड़ रही है।
3. मंगल अष्टम में है।