जिस प्रकार मनुष्य के लिए घर की आवश्यकता होती है जिसमें वे सुखपूर्वक रहता है ठीक उसी प्रकार देवी-देवताओं के रहने के लिए, निवास हेतु उपयुक्त स्थान 'यंत्र' कहा गया है। यंत्रों को देवी-देवताओं का निवास स्थान कहा गया है। यंत्रों का एक नाम ‘देवनगर’ भी है, यही कारण है कि इस लिपि के आधार पर बनी भाषा को देवनागरी कहा जाता है। इन देव नगरों में न केवल देवता बल्कि प्रत्येक देव के अधिदेव, प्रत्यधिदेव, परिकर आदि भी विराजमान रहते हैं। अतः यंत्र केवल कुछ रेखाओं का विनोदात्मक जाल मात्र न होकर साक्षात् सपरिकर देवताओं का आवास ग्रह है। इन यंत्रों से व्यक्ति को देवताओं की कृपा दृष्टि प्राप्त होती है, देवता प्रसन्न होकर सर्वस्व प्रदान करते हैं। इन यंत्रों के प्रभाव से सभी प्रकार की भौतिक सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य, नवग्रहों की शांति, विघ्न बाधाओं का नाश, शत्रु नाश तथा मृत्यु तुल्य कष्टों का निवारण प्राप्त किया जा सकता है। यंत्रों को हम दूसरे शब्दों में एक मनुष्य के जीवन में एक लक्ष्य प्राप्ति का माध्यम भी कह सकते हैं क्योंकि यंत्र मनुष्य की इच्छाएं तथा मनोकामनाएं पूरी करने का एक शक्तिशाली माध्यम भी है जैसे यदि किसी व्यक्ति को अपने जीवन में धन का अभाव है तो वह श्री यंत्र स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना के द्वारा अपने लक्ष्य को शीघ्र ही प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार हमारे शास्त्रों में भिन्न-भिन्न यंत्रों का उल्लेख है।
जिनके द्वारा मनुष्य अपने दुःखों और कष्टों के अनुसार उन्हें दूर कर सकता है। यंत्र शब्द की उत्पत्ति: ‘यंत्र’ शब्द ‘यम्’ धातु से बना है। इस धातु के अर्थ क्रमशः विपरीत, परिवेषण और वेष्टन आदि होते हैं। ‘यच्छति अत्रेति यन्त्रम्’ अथवा ‘यमयति अत्रेति यन्त्रम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार यम् धातु से उणादिसूत्र ‘गृधृपचिवचियमिसदिक्षदिभ्यस्त्रः’ के द्वारा ‘त्र’ प्रत्यय होने से ‘यंत्र’ शब्द सिद्ध होता है। यंत्र का महत्व: आगमानुसार इसकी व्युत्पत्ति ‘यच्छति त्रायते चेति यन्त्रम्’ होगी। इसके अनुसार यमन और त्राणरूप दो धातुओं से यह शब्द बनेगा। भावार्थ होगा- ‘जो व्यक्ति अपनी चेष्टाओं को नियंत्रित करके आकार विशेष में अपने इष्ट की अर्चना-भावना करता है उसका त्राण रक्षा करने वाला’। मंत्र और तंत्र के अर्थ भी इसी प्रकार आगमों में बताये गये हैं। इसी आधार पर यंत्र में ‘शक्तियों का नियंत्रण’ माना गया है कि ‘यंत्र शक्तियों का भंडार होता है, इससे साधक अपनी साधना के बल पर यथेष्ट ऊर्जा प्राप्त कर सकता है।’ ‘गौतमीय तंत्र’ में भी यही कहा गया है- शालग्रामे मणौ यन्त्रे प्रतिमामण्डलेषु च। नित्यं पूजा हरेः कार्या न तु केवलभूतले।। अर्थात् शालग्राम-शिला, मणि, यंत्र, प्रतिमा और मण्डल पर भगवान विष्णु की सदा पूजा करनी चाहिए। केवलभूतल पर पूजन करना उचित नहीं है। ‘योगिनी तंत्र’ में भगवती की पूजा के लिए जो स्थान बताये गये हैं उनमें भी यंत्र का निर्देश है।
यथा- लिंगस्थां पूजयेद् देवीं पुस्तकस्थां तथैव च। मण्डलस्थां महामायां यन्त्रस्थां प्रतिमासु च।। जलस्थां वा शिलास्थां वा पूजयेत् परमेश्वरीम्। यंत्र और देवता में एकता मानने के लिए भी हमारे शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि- यन्त्रं मन्त्रमयं प्रोक्तं मन्त्रात्मा दैवतैव हि। देहात्मनोर्यथा भेदो यन्त्र-देवतयोस्तथा।। यंत्र मंत्ररूप है, मंत्र देवताओं का ही विग्रह है। जिस प्रकार शरीर और आत्मामें कोई भेद नहीं होता है उसी प्रकार यंत्र और देवता में भी कोई भेद नहीं होता है। हमारे शास्त्रों में यह भी निर्देश है कि ‘यंत्र की पूजा किए बिना देवता प्रसन्न ही नहीं होते हैं।’ यथा- आदौ लिखेद् यंत्रराजं देवतायाश्च विग्रहम्। काम-क्रोधादि-दोषोत्थ-सर्वदुःख-नियन्त्रणात्।। यन्त्रमित्याहुरेतस्मिन् देवः प्रीणाति पूजितः। बिना यन्त्रेण पूजायां देवता न प्रसीदति।। दुःखनिर्यन्त्रणाद् यन्त्रमित्याहुर्यन्त्रवेदिनः।। साधना के आरंभ में देवता के विग्रह शरीर रूप यंत्र का लेखन करें। काम, क्रोध आदि दोषों से उत्पन्न सब प्रकार के दुःखों का नियंत्रण करने से ही इसे ‘यंत्र’ कहते हैं। इसकी पूजा करने से देवता प्रसन्न होते हैं। यंत्र की पूजा किए बिना देवता प्रसन्न नहीं होते हैं। आगम शास्त्रज्ञों ने दुःखों का निवारण करने से ही इसे ‘यंत्र’ कहा है। मंत्रों या अन्य धार्मिक क्रियाओं के द्वारा यंत्रों को विभिन्न प्रकार की शक्तियां प्रदान की जाती है।
इसके बाद इसकी शक्ति अपरिमित हो जाती है। यंत्र के रूप में वृत्तों, चक्रों, वर्गों यहां तक कि बिंदुओं तक का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि ये सभी अंतरिक्षीय ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘बिंदु’ संस्कृत का शब्द है और यह उन सभी वस्तुओं का प्रतीक है, जो इस ब्रह्मांड में विद्यमान हैं अर्थात् यह उस सर्वोच्च सत्ता का प्रथम स्वरूप है, जो सबका मूल है। अतः ध्यान के समय किसी एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी जाती है। यंत्र का त्रिभुज केंद्रीकृत ऊर्जा को दर्शाता है। यदि इसकी चोटी का बिंदु ऊपर की ओर हो, तो इसे अग्नि का प्रतीक या फुर्तीला तत्व या वैश्विक पुरुष शक्ति माना जाता है। त्रिभुज के नीचे की ओर का बिंदु जल तत्व को दर्शाता है, जिसका बहाव नीचे की ओर होता है। यह सुस्त तत्व या वैश्विक प्रकृति का तथा स्त्री शक्ति से जुड़ा हुआ होता है। एक-दूसरे में घुसे हुए दो त्रिभुजों से बनी आकृति सर्वाधिक उपयोग में लाया जाने वाला यंत्र है। यह एक षटकोणीय तारे की आकृति बनाता है जो कि विश्व की उत्पत्ति को दर्शाता है। यंत्र साधना की पद्धति किसी भौतिक (पदार्थवादी) माध्यम से भी संबद्ध रखती है, जबकि मंत्र साधना में केवल ‘जप’ करना पड़ता है। यंत्र साधना के मंत्र जप के साथ कुछ चित्रात्मक माध्यम भी अपनाये जाते हैं। विशेष प्रकार के चित्रों, रेखाओं, बिंदुओं, अंकों और शब्दों में संयोजित करके धातु पत्र, भोज पत्र अथवा अन्य किसी वस्तु पर यंत्र लिखा जाता है।
इसमें तीन कारक सक्रिय रहते हैं - मंत्र जप द्वारा उत्पन्न ध्वनि प्रभाव, रेखांकन द्वारा उत्पन्न दृश्य प्रभाव और वस्तु द्वारा उत्पन्न भौतिक प्रभाव। नियमित विधि द्वारा तैयार किया गया यंत्र किसी स्थान पर रखने, गले या भुजा में धारण करने अथवा कहीं टांग दिये जाने पर अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाता है। देवताओं के विग्रह कई रूपों और भाव भंगिमाओं में होते हैं और वस्त्राभूषणों द्वारा उनका भव्य श्रृंगार भी किया जाता है परंतु किसी भी यंत्र में उस देव अथवा अन्य किसी भी देवी-देवता की आकृति नहीं, मात्र कुछ रेखाएं और अंक तथा अक्षर एक निश्चित क्रम में अंकित होते हैं। रेखाओं की आकृति व क्रम तथा अंकों और अक्षरों के आधार पर ही उस यंत्र को कोई विशिष्ट नाम दिया जाता है। यंत्रों में अंकित रेखाएं इन्हें विशिष्ट आकृति और उन रेखाओं के मध्य लिखे हुए अंकों और अक्षरों को विशिष्ट शक्ति प्रदान करती हैं।
इसमें अंकित अंक और अक्षर उस देवता से संबंधित बीजांक होते हैं और साथ ही इनकी शक्ति का प्रतीक भी। यही कारण है कि यंत्र में अंकित अक्षरों और अंकों को बीज कहा जाता है और उन पर दृष्टि केंद्रित करके ही मंत्रों का निश्चित संख्या में पूर्ण विधि विधान के साथ जप किया जाता है। तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में भी कहा गया है कि विभिन्न प्रकार के यंत्रों की रेखाएं, बीजाक्षर और बीजांक दिव्य शक्तियों से प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि साधक जब किसी यंत्र पर नजरें जमाकर किसी विशिष्ट मंत्र का जप करता है, तब न केवल उसके मन और शरीर पर ही बल्कि आस-पास के वातावरण पर भी अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ता ही है। यही कारण है कि पूजा-उपासना और मंत्रों का जप करने में यदि थोड़ी-बहुत त्रुटि रह भी जाए तो कोई हानि नहीं होती, परंतु यदि कोई यंत्र रखकर मंत्रों का जप किया जाए तो जल्दी सफलता मिलती है।
यंत्र लिखने के लिए गंध: हमारे शास्त्रों में यंत्र लेखन के लिए अलग-अलग गंधों का उल्लेख है। चंदन, रक्त चंदन, केसर, अष्टगंध का उपयोग बहुतायत सेकिया जाता है। केवल शुद्ध केसर ही प्रयोग में लें। सुगंधहीन केसर प्रयोग में न लें। अष्टगंध क्या होता है अष्टगंध 8 वस्तुओं से मिलकर तैयार होता है- अगर, तगर, गोरोचन, कसतूरी, चंदन, सिंदूर, लाल चंदन और कपूर। इन सबको खरल कर रखें। स्याही जैसा तैयार करने हेतु गुलाब जल काम में लें अथवा शुद्ध जल काम में लें।
यंत्र लिखने हेतु कलम का विधान: हमारे शास्त्रों में यंत्र लिखने हेतु अलग-अलग विधान है। अनार, चमेली या सोने की कलम से यंत्र लिखे जाते हैं। जिस यंत्र के लिए जैसा विधान शास्त्र सम्मत है, उसी के अनुसार काम करना चाहिए। अनार या चमेली की कलम 11 अंगुल की लेनी चाहिए। यंत्र लिखते समय कलम टूटे नहीं, इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए। होल्डर, जिसमें निब लगाएंगे, उसमें लोहे का अंश मात्र भी नहीं होना चाहिए। यंत्र लिखने हेतु यदि भोजपत्र काम में ले, तो एक अंगुल बड़ाा भोजपत्र ले, साथ ही अवश्य ध्यान रखें कि भोजपत्र छिद्र एवं पर्व रहित हो। भोजपत्र के अभाव में सफेद कागज भी काम में लिया जा सकता है।
यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा: सबसे पहले यंत्र को शुद्ध जल से स्नान कराएं। फिर दुग्धादि से स्नान कराएं। फिर शुद्ध जल (गंगा जल) से स्नान कराएं। फिर यंत्र पर सुगंधित लेप करें। प्राण प्रतिष्ठा करके यंत्र की यथावत पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजा करें। फिर अपने इष्ट देव का ध्यान करें तथा कार्य विशेष के लिए उपयुक्त यंत्र को संबंधित मंत्रादि से पूजा जप कर स्थापित करें तथा नित्य धूप दीप करें।
यंत्रों के प्रकार: हमारे शास्त्रों में अनेक प्रकार के यंत्रों का उल्लेख है। विधाता की सृष्टि में कोई भी वस्तु ऐसा नहीं है जिसका स्वरूप यंत्र स्वरूप न हो। लौकिक दृष्टि से यंत्र एक प्रकार से विविध पुर्जों से बनी मशीन के अर्थ को व्यक्त करता है। कोई भी मशीन हम देखें तो उसमें कई छोटे-बड़े पुर्जे लगे होते हैं और वे मशीन की क्रिया में किसी न किसी तरह का सहयोग करते रहते हैं। सबसे मिकर मशीन जो कर्म करती है उसका फल एक सिद्धि के रूप में प्राप्त होता है। इसी प्रकार शास्त्रीय यंत्रों को भी हम एक मशीन कह सकते हैं। ये यंत्र अपने अंदर छोटे-बड़े पुर्जों के रूप में अंक, वर्ण, बीज, रेखा, मंत्र, आदि को पृथक-पृथक या एक साथ धारण करते हैं। इनकी साधना में की जाने वाली क्रियाओं का फल सिद्धि के रूप में प्राप्त होकर अपेक्षित कामनाओं की पूर्ति में सहायक होता है। इसी क्रियाकारित्व और फलदायकत्व तत्व के आधार पर सर्वप्रथम यंत्रों के कुछ प्रकार निश्चित होते हैं।
1. रेखात्मक यंत्र: केवल रेखाओं के गोल, आयत, सम चैरस एवं अन्य कोणमूलक यंत्रों में इनके बहुत से रूप प्राप्त होते हैं। गोल आकारों में कमल, पुष्प और पत्रादि की रचनाएं और रेखाओं से त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण, अष्टकोण बनते हैं जबकि दोनों के योग से आयुध आदि के आकार में बने यंत्र भी प्रायः उपलब्ध होते हैं।
2. आकृतिमूलक यंत्र: देव, मनुष्य और पशु-पक्षियों की आकृति में बनाए हुए यंत्रों का इसमें समावेश होता है। गणपति, यक्ष-यक्षिणी, मातंगिनी, घण्टाकर्ण तथा पुरुषाकार यंत्र, गज, अश्व, वृषभ, हरिण, सर्प, काक, आदि पशु-पक्षियों के यंत्र इस दृष्टि से बनाये जाते हैं। इस प्रकार मूलतः रेखाओं से निर्मित विभिन्न आकृतियों में बीज मंत्र, मंत्र वर्ण, अंक तथा मिश्र पद्धति के प्रयोगों से उपर्युक्त दो पद्धतियों के पुनः चार प्रकार विकसित हुए हैं, जिनका परिचय इस प्रकार है:-
बीज मंत्र गर्भित यंत्र: देवताओं के मंत्रों का सारभूत रूप बीज मंत्र होता है। रेखाओं द्वारा निर्मित यन्त्राकृतियों अथवा कोष्ठकों में इन बीज मंत्रों का लेखन करके यंत्र की शक्ति में अभिवृद्धि की जाती है।
मन्त्रवर्ण गर्भित यंत्र: प्रत्येक देवता के गुण आदि के वर्णन और विशिष्ट वर्णों के द्वारा मंत्र का निर्माण होता है। उसी मंत्र के वर्णों को यंत्र में लिखने से यंत्र और मंत्र दोनों की विशिष्ट शक्तियों का एकत्र समावेश ऐसे यंत्रों में हो जाता है।
अंक गर्भित यंत्र: देवताओं, वर्णों अथवा अन्य सांकेतिक रूप में स्वीकृत अंकों को विशिष्ट पद्धति से लिखकर ऐसे यंत्र बनाए जाते हैं। इन यंत्रों में 1 से 9 तक के अंकों से बने यंत्र तथा किसी एक निश्चित संख्या के पूरक यंत्र प्रमुख हैं।
मिश्रितविधि मूलक यंत्र: उपर्युक्त विधियों को ही कहीं दो विधियों का और कहीं तीनों विधियों का मिश्रण करके भी यंत्र बनाये जाते हैं। अतः कहीं मंत्र वर्ण, कहीं बीज मंत्र तो कहीं अंक अथवा तीनों एक साथ लिखकर आकृतियों को पूर्ण किया जाता है। इसके अतिरिक्त शास्त्रीय प्रयोगों की दृष्टि से अन्य सात प्रकार के यंत्र बतलाये गए हैं जो इस प्रकार हैं-
शरीर यंत्र- हमारा शरीर स्वयं एक यंत्र है और इसमें अनेक प्रकार के छोटे-बड़े पुर्जे लगे हुए हैं जिनके चलने से शरीर चलता-फिरता रहता है और सभी चेतन क्रियाएं करता रहता है। ऐसे शरीर गत यंत्र अनेक हैं उन्हीं में से मुख्य रूप से - मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाह्त, विशुद्ध, आज्ञाचक्र। इन 6 चक्रों को यंत्र रूप में स्वीकार किया गया है। मस्तिष्क के ऊपर सहस्रार चक्र भी माना गया है। इन यंत्रों के लिए अलग-अलग मंत्र हैं और इनको जाग्रत करके विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त होते हैं।
धारण यंत्र: पूर्वोक्त यंत्रों की प्रतिष्ठा करके निश्चित वस्तु पर लिखकर शरीर के निश्चित अंगों पर धारण करने से कार्य सिद्ध होते हैं। ऐसे यंत्रों के लिए अनेक प्रकार की विधियों का स्वतंत्र उल्लेख भी प्राप्त होता है।
आसन यंत्र: साधना करने के समय बैठने के आसन के नीचे यंत्र बनाकर जो यंत्र रखे जाते हैं उन्हें ‘आसन यंत्र’ कहते हैं। ऐसे यंत्रों के बनाने की पद्धति स्वतंत्र है। इन यंत्रों पर आसन बिछाकर बैठने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है। आसन यंत्र का दूसरा प्रकार देवताओं की प्रतिमा, भवन, मंदिर, आदि की नींव में रखे जाने वाला यंत्र भी हैं।
मण्डल यंत्र: अनुष्ठान करते समय साधकों के समूह को इस पद्धति से बिठाया जाता है कि उससे एक प्रकार के यंत्र की रचना हो जाए। इसे हम एक प्रकार की व्यूह रचना भी कह सकते हैं। जैसे युद्ध में हाथी, घोड़े और पैदल सैनिकों की विभिन्न रूपों में व्यूह बनाकर खड़ा किया जाता है उसी प्रकार अनुष्ठान में यह मण्डल बनाया जाता है। इसमें नौ व्यक्ति होते हैं। प्रधान साधक मध्य में बैठकर इष्ट मंत्र का जप करता है तथा चार दिशाओं तथा चार विदिशाओं में ऐसे आठ व्यक्ति अंग मंत्र और उपांग मंत्रों का जप करते हैं। इस पद्धति से की गई साधना शीघ्र फल प्रदान करती हैं।
पूजा यंत्र: जिस देव की साधना की जाती है उसकी अधिदेव प्रत्यधिदेव, लोक पालादि के साथ स्थापना, आवाहनादि करने के लिए यह यंत्र बनाया जाता है।
इस यंत्र की रचना कई प्रकारों से होती है-
Û देवताओं की स्थापना के स्थानों पर अंक लिखे जाते हैं। जिनके अनुसार पूजा करते समय उन-उन देवताओं के नाम यंत्रों से पूजा की जाती हैं।
Û पूरे यंत्र में जिस स्थान पर जिस देव की पूजा करनी हो उसका नाम मंत्र लिखा जाता है। दिशा-विदिशाओं में वर्णमाला और दिक्पालों के नाम मंत्र रहते हैं।
Û कुछ यंत्र केवल आरंभाक्षरों के प्रतीक, कहीं बीज मंत्र आदि रहते हैं।
Û कुछ यंत्रों में इष्टदेव या इष्टदेवी के चित्र रेखांकन दिए जाते हैं तो कोई इन यंत्रों को विविध रंगों में चित्र बनाकर भी अंकित करते हैं।
छत्र यंत्र - पूर्वलिखित यंत्रों में से किसी एक यंत्र को विधिपूर्वक बैठने के स्थान पर छत्र में अथवा छत में चंदोंवे के अंदर जो यंत्र लिखा जाता है वह ‘छत्र यंत्र’ कहलाता है। यही यंत्र टोपी, पगड़ी या साफे में भी रखा जाता है। दर्शन यंत्र -इस तरह कुछ यंत्र दर्शन यंत्र भी होते हैं जिन्हें देखने से दर्शक को लाभ तो होता है, साथ ही जहां लगाया गया है उस स्थान का भी उत्तरोत्तर प्रभाव बढ़ता रहता है। भारत में ऐसे अनेक स्थान हैं जहां सिद्ध यंत्र बने हुए हैं और उनके प्रभाव से वे स्थान नित्य प्रभावशाली बने हुए हैं।
यंत्रों से संबंधित कुछ विशेष सावधानियां: यंत्र को कभी भी गंदे हाथ से स्पर्श न करें। शुद्ध वस्त्रादि का ख्याल अवश्य रखें। रजस्वला स्त्री यंत्र के समीप न जाएं, वरना यंत्र का प्रभाव कम हो जाता है। लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। प्रत्येक यंत्र प्रभावकारी होता है, लेकिन श्रद्धा विश्वास का दृढ़ होना भी जरूरी है, क्योंकि श्रद्धा विश्वास बिना कार्य नहीं हो पाता है। आज कल लोग अनेक स्थानों से यंत्र प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन श्रद्धा में कमी तथा कभी यंत्र में कोई खराबी के कारण कार्य सिद्ध नहीं हो पाते। चाहे एक ही यंत्र स्थापित करें, लेकिन वह श्रद्धापूर्ण हो, स्पर्शादि की मर्यादा का ध्यान अवश्य रखें, तो कार्य अवश्य सफल होगा। यंत्र को प्रतिदिन गंध धूपादि-दीप से पूजन अवश्य करें।