संतान पाने के लिए प्रथम, पंचम, सप्तम, नवम, एकादश भावों के परिप्रेक्ष्य में अध्यवसाय करना समीचीन है। इस विषय पर वैदिक ज्योतिष के पंचम एवं सप्तम भाव के निरूपण में बहुत कुछ कहा गया है। जो अवशिष्ट या उसे प्राच्य विज्ञान के कामबोधनम् भाग में लिखा जा चुका है। पूर्व व्यक्त विचारों का पिष्टपेषण करना उचित नहीं है, इसलिए वह सब न देकर अनुभव पुष्ट आयोगिक ज्ञान का वर्णन यहां समासतः कर रहा हूं। व्यक्ति जिस ज्ञान को आचरण में नहीं उतारता और दूसरों को उसका उपदेश करता है, वह अप्रभावशील किंवा संदिग्ध होता है।
संतान प्राप्ति के लिए सृष्टियत्त (गर्भाधान/निषेचन) किया जाता है। बिना इस यज्ञ के संतान प्राप्ति असंभव है। दूसरी ओर यदि भाग्य में संतान नहीं है (शुक्र व शोणित के दूषित अथवा अभिशप्त होने के कारण) तो गर्भाधान व्यर्थ जाता है। इसलिए इन दोनों की अनुकूलता अनिवार्य है। संतान का योग है, किंतु शाप है तो संतान नहीं होगी। संतान का योग नहीं है, परंतु आशीर्वाद है तो संतान अवश्य होगी।
संतान पाने के लिए प्रथम, पंचम, सप्तम, नवम, एकादश भावों के परिप्रेक्ष्य में अध्यवसाय करना समीचीन है। सर्वप्रथम ब्रह्मा ने सृष्टियज्ञ किया - प्रकृति के गुणों से पुरुष के ओज का सन्निकर्ष हुआ। तदुत्पन्न सृष्टि की परंपरा तब से अब तक यथावत चल रही है। प्रकृति अण्ड (निविडतम) है, पुरुष शुक्र (प्रकाश) है। दोनों अनादि हैं। नारी एवं नर इन दोनों के मूर्तिमत्त प्रतिबिंब हैं।
आर्षज्ञान से पल्लवित हमारी संस्कृति में इन दोनों (स्त्री एवं पुरुष) की सम महत्ता है। बृहदारण्यक, छान्दोग्य, गर्भोपनिषद् एवं अथर्ववेद में इस विषय पर प्रचुर प्रकाश डाला गया है, जिसका उल्लेख मैंने यथा स्थान अपने पवित्र ग्रंथों में किया है। स्त्री का क्षेत्र यज्ञवेदी है। पुरुष यज्ञकर्ता (होता) है। स्त्री का गर्भाशय हवनकुंड है, पुरुष का शेप स्तुवा (आज्य डालने का साधन) है। इस यज्ञ की निष्पन्नता का फल है-संतान। यह फल परिपक्व होकर नवमास पश्चात् दसवें मास के प्रारंभ में च्युत होता (बाहर आता) है।
सृष्टि यज्ञ के दो अवयव है- स्त्री एवं पुरुष। एक तीसरा महत्वपूर्ण अवयव है- काल। रजोवती नारी, वीर्यवान नर एवं समुचित काल का योग होने पर अभीष्ट संतति की उपलब्धि होती है। गर्हित योग में गर्भाधान करने पर शारीरिक अथवा मानसिक रूप से अक्षम संतान की उत्पति होती है। अमुक रूप रंग गुण धर्म वाली संतान के लिए जातक अरिष्ट काल का चयन करता है। प्रकृति की उपेक्षा करना घातक है।
प्रकृति की अनुकूलता में ही भलाई है। क्षेत्र की उर्वरता, क्षेत्री की प्रबलता एवं काल की समनुकूलता से सत्सन्तति मिलती है। यह ध्रुव सत्य है। मेरे द्वारा यह यज्ञ सम्यग् रूपेण संपन्न हुआ है। इसलिए मैं दावे के साथ यह तथ्य रख रहा हूं। इस शास्त्रीय सत्य को परखने के लिए कि गर्भाधान काल में जो लग्न होती है, जन्मांग में वही राशि होती है तथा जनमांग में जो लग्न होती है, गर्भाधान काल में वह राशि होती है। मैंने यह यज्ञ किया और इसे पूर्णतः सत्य पाया। मैंने दो बार यह यज्ञ विधिवत् किया।
इसका वर्णन वैदिक ज्योतिष भाग 2 में प्रकृष्टता के साथ हुआ है। गर्भाधान के पश्चात् गर्भ में सतत संस्कार डाला जाता है। यह भी मैंने किया। गर्भ को स्पर्श करते हुए मैं विष्णुसहस्रनाम का पाठ किया करता था। फल सामने है। दोनों संतानों में नाम का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। दोनों में परम वैष्णवत्व है। गर्भाधान यज्ञ परमपुनीत कर्म है। इसका कर्ता ब्रह्मा होता है। इसका रक्षक वा पालक विष्णु होता है।
मारपीट कर अनुशासन में रखकर इसको शिक्षा देने वाला शिव कहलाता है। स्पष्ट है- माता पिता ही त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) हैं। त्रिदेव रूप माता पिता सतत आदरणीय हैं। ताभ्यां नमः। लोकोक्ति है - ‘जैसा बाप वैसा बेटा’ तथा ‘जैसे भाई वैसे धीया’। बाप= पिता जनन करने वाला।
बेटा = पुत्र। माई= माता जो गर्भ धारण करती है।
धीया = पुत्री। यह भी एक बड़ा तथ्य है। बेल के पेड़ में आम का फल नहीं लगता, आम के पेड़ से बेल का फल नहीं मिलता। इसलिए अप्राप्ति की प्राप्ति के लिए चेष्टा करना, आकाश में बीज वपन करने के समान है। प्राकृतिक मर्यादा एवं स्वसामथ्र्य को ध्यान में रखते हुए हमें इस संतति को पाने का यत्न करना चाहिए। ओं तत् सत्।