मत्रार्थ: मंत्र साधना के रहस्य- वत्त्े ााआ ंे के अनुसार- ‘‘अमन्त्रमक्षरं नास्ति नास्तिमूलमनौषधम्’’ अर्थात कोई ऐसा अक्षर नहीं, जो मंत्र न हो और कोई ऐसी वनस्पति नहीं, जो औषधि न हो।
केवल आवश्यकता है अक्षर में निहित अर्थ के मर्म को और वनस्पति में निहित औषधि के मर्म को जानने की। और जब मंत्र शास्त्र एवं सद्गुरु की कृपा से इसके अर्थ को हृदयंगम कर लिया जाता है, तब महर्षि पतंजलि के शब्दों में- ‘‘एकः शब्दः सम्यग् ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुक् भवति’’ अर्थात यह एक ही शब्द भली भांति जानने पहचानने और मंत्र साधना में प्रयुक्त होने के बाद कामधेनु के समान साधक की सभी मनोकामनाओं को पूरा करता है।
मंत्र कोई साधारण शब्द नहीं है। यह तो दिव्यशक्ति का वाचक एवं बोधक होता है। इसकी यह विशेषता है कि दिव्य होते हुए भी इसका एक वाच्यार्थ होता है और इसकी दूसरी विशेषता यह है कि यह देवता से अभिन्न होते हुए भी उसके स्वरूप का बोध कराता है।
मंत्रार्थ ज्ञान की आवश्यकता मंत्र जिस शक्ति का, जिस रूप का और जिस तत्व का संकेत करता है और वह जिस लक्ष्य तक साधक को ले जा सकता है, यदि इन समस्त संकेतित अर्थों की जानकारी साधक को हो जाए, तो उसे अपनी मंत्र साधना में अधिक सुविधा हो जाती है। इसीलिए मंत्रशास्त्र ने मंत्र का जप करने से पूर्व उसके अर्थज्ञान को आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य बतलाया है।
मंत्र योग संहिता के अनुसार, ‘‘मन्त्रार्थ भावनं जपः’’ अर्थात मंत्र के अर्थ की भावना को जप कहते हैं। और अर्थज्ञान के बिना लाखों बार मंत्र की आवृŸिा करने पर भी सिद्धि नहीं मिलती क्योंकि सिद्धि मंत्र की आवृŸिा मात्र से नहीं मिलती। वह तो जप से मिलती है और जप में अर्थज्ञान होना अनिवार्य होता है, अस्तु।
मंत्रार्थ के भेद: मंत्र समस्त अर्थों का वाचक एवं बोधक होता है - ऐसा कोई अर्थ नहीं जो इसकी परिधि में न आता हो। मंत्राक्षरों के संकेतों की इसी विशेषता को ध्यान में रखकर महाभाष्यकार ने कहा है- ‘‘सर्वे सर्वार्थ वाचकाः’’ अर्थात मंत्र के सभी अक्षर समस्त अर्थों के वाचक होते हैं।
किंतु जब एक समय में ये मंत्र किसी एक देवता से, उसके किसी संप्रदाय विशेष से और किसी अनुष्ठान/पुरश्चरण से जुड़ता है, तब वह कुछ निश्चित अर्थों का वाचक एवं बोधक बन जाता है। मंत्र शास्त्र के अनुसार इन अर्थों को छः वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। वस्तुतः ये वर्ग मंत्र के उन अर्थों को जानने की प्रक्रिया हैं।
इस तरह मंत्रशास्त्र के मनीषियों ने मंत्र के छः प्रकार के अर्थ बतलाए हैं- 1. वाच्यार्थ, 2. भावार्थ, 3. लौकिकार्थ, 4. संप्रदायार्थ, 5. रहस्यार्थ एवं 6. तत्वार्थ। तंत्र आगम में इन अर्थों के भेदों, उपभेदों एवं अवांतर भेदों की संख्या अपरिमित है। इन छः भेदों में से वाच्यार्थ को छोड़कर अन्य पांच भेदों और उनके अवांतर भेदों का अर्थ गुरुकृपा एवं साधना से गम्य है। जैसे-जैसे साधक की साधना का स्तर उन्नत होता है और जैसे-जैसे उस पर इष्टदेव एवं गुरुदेव का वात्सल्य बढ़ता है, वैसे-वैसे साधक को मंत्र के अन्य अर्थों का बोध होने लगता है। मंत्रशास्त्र इसके वाच्यार्थ का प्रतिपादन करने में सक्षम है। किंतु इसके अन्यान्य अर्थों को गुरुकृपा और साधना द्वारा ही जाना जा सकता है।
बीजमंत्रों के अर्थ: ‘मंत्र’ शब्द का धातुगत अर्थ है- गुप्त परिभाषण। जैसे बीजगणित में अ,ब,स,द आदि अक्षर विभिन्न संख्याओं के वाचक एवं बोधक होते हैं और उनका मान प्रक्रिया एवं प्रसंग के अनुसार गणित के द्वारा जाना जाता है, उसी प्रकार बीजमंत्रों के अक्षर भी गूढ़ संकेत होते हैं, जिनका अर्थ देवता, संप्रदाय एवं प्रयोग के आधार पर मंत्र शास्त्र से जाना जाता है।
इस विषय में यह सदैव स्मरणीय है कि एक समय में बीजमंत्र का एक सुनिश्चित वाच्यार्थ होने पर भी वह मात्र उसी या उतने ही अर्थ का वाचक नहीं होता अपितु देवता, संप्रदाय एवं प्रयोग में परिवर्तन होते ही वह भिन्न अर्थ का वाचक बन जाता है। जैसे ‘योग’ शब्द योगशास्त्र में चिŸावृŸिायों के निरोध का, गीता में कर्मों में कुशलता का और गणित में दो राशियों को जोड़ने का वाचक बन जाता है, उसी प्रकार बीज (मंत्र) वि.ि भन्न देवी-देवताओं के साथ विभिन्न संप्रदायों के अनुष्ठान एवं पुरश्चरण् ाों में प्रयुक्त होने पर विभिन्न अर्थों का वाचक या सूचक बन जाता है। फिर भी मंत्रों में प्रयुक्त सभी बीजों का एक वाच्यार्थ होता है।
यह वह अर्थ है, जिसे बहुसम्मत अर्थ कहा जा सकता है। आगम ग्रंथों में मंत्रों में प्रयुक्त होने वाले बीजों के अर्थों का विस्तार से विचार किया गया है। यहां कुछ प्रसिद्ध बीजों के परंपरागत वाच्यार्थ हैं।
1. ह्रीं (मायाबीज) इस मायाबीज में ह् = शिव, र् = प्रकृति, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस मायाबीज का अर्थ है ‘शिवयुक्त जननी आद्याशक्ति, मेरे दुखों को दूर करे।’
2. श्रीं (श्रीबीज या लक्ष्मीबीज) इस लक्ष्मीबीज में श् = महालक्ष्मी, र् = धन संपŸिा, ई = महामाया, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस श्रीबीज का अर्थ है ‘धनसंपŸिा की अधिष्ठात्री जगज्जननी मां लक्ष्मी मेरे दुख दूर करें।’
3. ऐं (वागभवबीज या सारस्वत बीज) इस वाग्भवबीज में- ऐ = सरस्वती, नाद = जगन्माता और बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है- ‘जगन्माता सरस्वती मेरे दुख दूर करें।’
4. क्लीं (कामबीज या कृष्णबीज) इस कामबीज में क = योगस्त या श्रीकृष्ण, ल = दिव्यतेज, ई = योगीश्वरी या योगेश्वर एवं बिंदु = दुखहरण। इस प्रकार इस कामबीज का अर्थ है- ‘राजराजेश्वरी योगमाया मेरे दुख दूर करें।’ और इसी कृष्णबीज का अर्थ है योगेश्वर श्रीकृष्ण मेरे दुख दूर करें।
5. क्रीं (कालीबीज या कर्पूरबीज) इस बीज में- क् = काली, र् = प्रकृति, ई = महामाया, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘जग. न्माता महाकाली मेरे दुख दूर करें।’
6. दूं (दुर्गाबीज) इस दुर्गाबीज में द् = दुर्गतिनाशिनी दुर्गा, ¬ = सुरक्षा एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इसका अर्थ 1. है ‘दुर्गतिनाशिनी दुर्गा मेरी रक्षा करें और मेरे दुख दूर करें।’
7. स्त्रीं (वधूबीज या ताराबीज) इस वधूबीज में स् = दुर्गा, त् = तारा, र् = प्रकृति, ई = महामाया, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘जगन्माता महामाया तारा मेरे दुख दूर करें।’
8. हौं (प्रासादबीज या शिवबीज) इस प्रासादबीज में ह् = शिव, औ = सदाशिव एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘भगवान् शिव एवं सदाशिव मेरे दुखों को दूर करें।’
9. हूं (वर्मबीज या कूर्चबीज) इस बीज में ह् = शिव, ¬ = भ. ैरव, नाद = सर्वोत्कृष्ट एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘असुर भयंकर एवं सर्वश्रेष्ठ भगवान शिव मेरे दुख दूर करें।’
10. हं (हनुमद्बीज) इस बीज में ह् = अनुमान, अ् = संकटमोचन एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘संक. टमोचन हनुमान मेरे दुख दूर करें।’
11. गं (गणपति बीज) इस बीज में ग् = गणेश, अ् = विघ्ननाशक एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘‘विघ्ननाशक श्रीगणेश मेरे दुख दूर करें।’’
12. क्ष्रौं (नृसिंहबीज) इस बीज में क्ष् = नृसिंह, र् = ब्रह्म, औ = दिव्यतेजस्वी, एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘दिव्यतेजस्वी ब्रह्मस्वरूप श्री नृसिंह मेरे दुख दूर करें।’
बीजार्थ मीमांसा: वस्तुतः बीजमंत्रों के अक्षर उनकी गूढ़ शक्तियों के संकेत होते हैं। इनमें से प्रत्येक की स्वतंत्र एवं दिव्य शक्ति होती है। और यह समग्र शक्ति मिलकर समवेत रूप में किसी एक देवता के स्वरूप का संकेत देती है। जैसे बरगद के बीज को बोने और सींचने के बाद वह वट वृक्ष के रूप में प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार बीजमंत्र भी जप एवं अनुष्ठान के बाद अपने देवता का साक्षात्कार करा देता है।
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