नक्षत्र और रोग
नक्षत्र और रोग

नक्षत्र और रोग  

पारस राम वशिष्ट
व्यूस : 4757 | जून 2006

ज्योतिष शास्त्र में मृत्युदायी रोग का विचार दूसरे और सप्तम भाव से किया जाता है क्योंकि ये मारकेश भाव होते हैं। इन भावों के सहायक रोग देने वाले भाव तृतीय, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश होते हैं। जिस समय मारकेश की महादशा होती है, यदि उस समय उसमें किसी अशुभ भाव के स्वामी की अंतर्दशा आ जाए और वह अंतर्दशा का स्वामी मारकेश या मारक भाव से संबंध बनाए तो गोचर की स्थिति अशुभ होने पर अर्थात ढैया या साढ़ेसाती होने पर जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट की प्राप्ति होती है। भावों और ग्रहों का अलग-अलग रोगों से संबंध होता है। ठीक इसी प्रकार नक्षत्रों का भी सभी प्रकार के रोगों से संबंध होता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए नौ नक्षत्र अशुभ होते हैं। लग्न कुंडली में जो ग्रह इन अशुभ नक्षत्रों से संबंध बनाते हैं


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वे अपनी महादशा या अंतर्दशा में जातक को अपने स्वभाव के अनुसार रोग देते हैं। यदि नक्षत्रों पर पूर्ण रूप से विचार नहीं किया जाए तो रोग का निदान बहुत मुश्किल हो जाता है। नक्षत्रों के आधार पर रोग व अशुभ परिस्थिति का विचार निम्न प्रकार से करते हैं। यहां पर दो उदाहरण दिये जा रहे हैं प्रथम उदाहरण में जातक की मृत्यु हुइ और दूसरे उदाहरण में जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट से गुजरना पड़ा। नक्षत्रों का प्रयोग निम्न प्रकार से करें- जिस प्रकार वर-कन्या का मेलापक करते समय उनके तारा बल की गणना नक्षत्रों से करते है,ं ठीक उसी प्रकार तारा बल की तरह फलादेश में भी तारा बल का विचार निम्न प्रकार से करते हैं।

पहले जन्म, संपत, विपत, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, वध, मित्र, अतिमित्र- नौ ताराओं की तालिका बना लें तथा वांछित जन्म नक्षत्र को जन्म तारा में लिखे क्रम से आगे लिखते चले जाएं। इस प्रकार तीन क्रम प्रत्येक तारा के तीनों नक्षत्र एक ही ग्रह के होंगे। इन नौ ताराओं में तीसरी (विपत), पांचवीं (प्रत्यरि), सातवीं (वध) तारा अशुभ होती है। अतः जब भी जीवन में तीसरी, पांचवीं या सातवीं महादशा आती है तो जातक को अशुभ फलों की प्राप्ति होती है, चाहे लग्न कुंडली में उस ग्रह की कितनी ही अच्छी स्थिति क्यों न हो। महादशा तो काफी लंबे समय तक चलती रहती है परंतु अशुभ तभी होती है

जब ज्यादातर ग्रह महादशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतरदशा व गोचर में अशुभ ताराओं के नक्षत्रों से संबंध बनाते हैं। उदाहरण के लिए कुछ सत्य घटनाओं का ब्योरा व कुंडलियां पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही हैं। जन्म तारीख: 05.05.1956 जन्म लग्न: मिथुन, जन्म नक्षत्र: शतभिषा इस जातक की मृत्यु दिनांक 12.08.1997 को हुई। अचानक ही कुछ लोगों ने उन पर हमला किया और गोली मार दी। उस समय वह एक मंदिर में पूजा कर रहे थे। जिस समय उसकी मृत्यु हुई, उस समय उस पर शनि की महादशा, राहु की अंतर्दशा तथा केतु की प्रत्यंतरदशा चल रही थी। शनि की महादशा उसके जीवन की तीसरी महादशा थी, क्योंकि महादशा की शुरुआत राहु से हुई। शनि अनुराधा नक्षत्र और राहु अनुराधा नक्षत्र पर थे।

अतः महादशा व अंतर्दशा दोनों ही तीसरी अशुभ विपत तारा से संबंध बना रहे थे। यदि सामान्य फलित से देखा जाए तो शनि अष्टम भाव का स्वामी होकर छठे भाव में बैठा है और छठे का मालिक अष्टम भाव में बैठा है तथा शनि के साथ राहु भी छठे भाव में बैठा है। मिथुन लग्न में छठे व ग्यारहवें भाव का मालिक चोट का कारक होता है।

दोनों भावों का मालिक मंगल मारकेश उच्च के गुरु से दृष्ट है। मंगल अष्टम में है, शनि अष्टम को देख रहा है, केतु भी अष्टम को देख रहा है। मारकेश गुरु का संबंध भी अष्टम से है। राहु अष्टमेश से युति कर मारकेश से संबंध बना रहा है। अतः अधिकतर सभी अशुभ ग्रहों का अष्टम भाव और अष्टमेश से संबंध है। शनि लोहा है, केतु गोली है, मंगल चोट है, मंगलवार अशुभ दिन है तथा उस दिन अष्टमी भी थी, उच्च का गुरु भी अष्टम से संबंध बना रहा था। इसलिए मंदिर में पूजा करते समय उस पर हमला हुआ। यदि तारा बल से देखें तो तीसरी महादशा का स्वामी शनि अनुराधा नक्षत्र पर है। अंतर्दशा का स्वामी राहु अनुराधा नक्षत्र पर है।


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अनुराधा नक्षत्र विपत तारा में है। यदि गोचर में देखा जाए तो उस दिन चंद्रमा भी अनुराधा नक्षत्र में था। अतः सभी तरह से अनुराधा नक्षत्र का प्रभाव था। इसलिए उस समय इस जातक की मृत्यु हुई। दूसरी कुंडली के जातक को दिनांक 7. 7.1998 को हृदयाघात हुआ, वह अस्पताल पहुंचा तथा मृत्यु तुल्य कष्ट भोग कर बच गया। अब इस व्यक्ति की जन्म कुंडली पर विचार करते हुए नक्षत्र तारा को देखते हैं कि उस दिन क्या स्थिति थी जिस दिन इस व्यक्ति को यह परेशानी हुई? उस समय गुरु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा व राहु की प्रत्यंतरदशा चल रही थी और गोचर में शनि अपनी नीच राशि से अष्टम भाव में गोचर कर रहा था, अर्थात अष्टम ढैया थी। सामान्य फलित से देखा जाए तो गुरु मारकेश है और सप्तम भाव को देख रहा है।

लघुपाराशरी के अनुसार यदि गुरु व शुक्र सप्तम भाव के स्वामी होकर सप्तम भाव से संबंध बनाए तो अपनी महादशा में जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट देते हैं। गुरु में सूर्य की अंतर्दशा और राहु की प्रत्यंतरदशा है। सूर्य चतुर्थ भाव में बैठकर पीड़ित है तथा राहु छठे भाव में मंगल की राशि में है और मंगल भी चतुर्थ भाव में सूर्य के साथ है। गोचर में शनि अष्टम भाव से अपनी नीच राशि से गोचर कर रहा है।

इस कारण जातक को हृदयाघात की समस्या हुई। यदि नक्षत्र तारा से देखा जाए तो महादशा का स्वामी जन्म समय मघा नक्षत्र पर है और मघा वध तारा में है। गोचर में मंगल व केतु विपत (तीसरी), तारा में हैं केतु शतभिषा में, मंगल आद्र्रा में, बुध व गुरु, पांचवीं तारा प्रत्यरि में और शनि व राहु वध तारा में स्थित हंै।

अतः गोचर में यह ग्रह मंगल, केतु, बुध, गुरु, शनि, राहु तीसरी, पांचवीं व सातवीं तारा से संबंध में है। इसलिए जातक को अचानक परेशानी का सामना करना पड़ा, परंतु बच गया। इस प्रकार जब अधिकतर ग्रह इन तीनों अशुभ ताराओं सें संबंध बना लेते हैं तो जातक को मृत्यु या मृत्यु तुल्य कष्ट से गुजरना पड़ता है। अतः गोचर विचार व फलित कथन करते समय इस प्रकार के नक्षत्रों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।



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