ग्रह शांति के विशिष्ट उपाय
ग्रह शांति के विशिष्ट उपाय

ग्रह शांति के विशिष्ट उपाय  

अशोक सहजानंद
व्यूस : 9906 | सितम्बर 2010

भा रतीय जीवन में श्रद्धा और विश्वास का चिरकाल से निवास है। धार्मिक भावना से ओत-प्रोत भारतीय जनता में जन्मजात संस्कार के रूप में विकसित कृतज्ञता का भाव दूर्वा से लेकर वट-वृक्ष तक, छोटे जल कुंड से लेकर विशाल जल प्रवाह संपन्न महानदी तक, पलने में झूलते हुए बालक से अतिवृद्ध तक, लघुतम देवस्थान से लेकर महान देवमंदिर तक और मिट्टी अथवा पाषाण के कंकड से लेकर महान पर्वत तक को देव-स्वरूप मानते हुए अपने जीवन के सभी कार्यकलापों में अविरत सहायक, पालक एवं पोषक मानकर उनका समादर करता है।

अपने दुःख और सुख में उनका स्मरण, नाम जप, व्रत, दान आदि भी शक्ति के अनुसार करता ही रहता है। इसी को ‘कर्मकांड’ की संज्ञा दी गयी है। पृथ्वी का पुत्र मानव न केवल पार्थिव वस्तुओं का ही आदर करता रहा है, अपितु आकाशीय परिसर में विराजमान नक्षत्रों और ग्रहों के प्रति भी उसकी कृतज्ञता उतनी ही बलवती रही है। प्राचीन महर्षियों ने वेदों के मंत्रों से इनका ज्ञान प्राप्त करके व्यक्तिगत एवं सामूहिक सुख-समृद्धि के उपाय प्रकट किये। अनंत देवताओं की परिधि में ज्योतिचक्र के प्रधानदेव सूर्य का महत्व सर्वोपरि माना गया है। पुराणों के अनुसार सूर्य से ही विश्व में प्रकाश होता है और प्रकाश से ही विश्व में हलचल होती है।

सूर्य की किरणों से संसार का व्यापार और मानव-देह में ऊर्जा का संचार माना गया है। सूर्य के परिवार में व्याप्त अन्यान्य अनेक प्रकाशकारी ग्रहों की महत्ता को परख कर पूर्वाचार्यों ने चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि और राहु-केतु को नवग्रह मंडल में सम्मिलित किया। साथ ही अधिदेवता प्रत्यधिदेवता के रूप में और भी कतिपय उपग्रहों की प्रतिष्ठा भी बढ़ायी। किंतु गौण प्रमुख न्याय से नौ ग्रहों की प्रमुखता की पुष्टि वेद, आगम, पुराण, धर्मशास्त्र आदि मान्य ग्रंथों में की और इन नौ ग्रहों की महिमा फलदातृत्व तथा विघ्नकारित्व आदि शक्तियों के आख्यानों से आस्तिक जनों में अपार भक्ति, श्रद्धा और विश्वास को सुस्थिर बना दिया।

प्रसन्नता से सर्वत्र प्रसन्नता आती है और रूष्टता से विघ्नों का आगमन होता है। यह चिंरतन सत्य है। अतः उपर्युक्त शास्त्रों के आधार पर ही ज्योतिष शास्त्र में इन ग्रहों की, गति और स्थिति का आकलन हुआ। भूत, वर्तमान तथा भविष्य के फलों की व्यवस्था व्यक्त हुई । ज्योतिष शास्त्र ने गणित के सिद्धांतों से यह भी निश्चित किया कि किस राशि पर किस ग्रह का कैसा प्रभाव होता है। जन्म पत्रिका में निर्दिष्ट कुंडली के रूप में राशियों के साथ ग्रहों की तात्कालिक स्थिति से होने वाले इष्ट और अनिष्ट का निदर्शन भी ज्योतिष शास्त्रों से ही परिभाषित हुआ तथा यह घोषित हुआ- ‘ग्रहा राज्य प्रयच्छन्ति ग्रहा राज्यं हरंति च’। इसी को ग्रह योग कहा गया। ‘जब कोई अप्रसन्न होता है तो उसे प्रसन्न करना आवश्यक होता है

’- यह लोक रीति है। इस दृष्टि से नवग्रहों में से जिसकी गति गोचर दृष्टि से ठीक नहीं चल रही हो अथवा किसी अशुभ ग्रह से उसका संबंध हो या उसकी शुभ दृष्टि न हो तो उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी मंत्र जाप द्वारा अराधना पूजा, दान आदि करना शास्त्रकारों ने बतलाया है। इन सबकी प्रामाणिक जानकारी विस्तृत रूप से हमने अपने ग्रंथ ‘ग्रह शांति दीपिका’ में दी है। पाठकों के लाभार्थ उसका कुछ स्वरूप यहां प्रस्तुत है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि ग्रहों की जन्मभूमि, गोत्र, अग्नि, वर्ण, स्थान, आकार तथा दिशामुख का ज्ञान किये बिना शांति करने से ग्रहों का अपमान होता है।

अतः इनका ज्ञान करके ही शांति करें। याज्ञवल्क्य स्मृतिकार का कथन है कि इन ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए इनकी प्रतिमाएं क्रमशः ताम्र, स्फटिक, रक्त चंदन, स्वर्ण, चांदी, लोहा, सीसा और कांसे की बनाकर अथवा यंत्राकृति बनवाकर प्रतिष्ठित करके धारण करें। इन ग्रहों के अधिदेवता एवं प्रत्यधिदेवताओं की भी पूजा के विधान हैं। पूजा में विशेष रूप से गंध, पुष्प, दीप और नैवेद्य भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। ये हैं दाख, गन्ना, सुपारी, नारंगी, नींबू, खजूर, नारियल और अनार।

अपने पीड़ादायक ग्रह की तुष्टि के लिए इन फलों को उन्हें अर्पण करके प्रसाद देना और स्वयं खाने का भी विधान है। परम कृपालु आचार्यों ने मानव के कल्याण के लिए बड़े-से बड़े और छोटे से छोटे साधनों को स्पष्ट रूप से बताया है। ग्रहों की संतुष्टि के लिए तंत्र शास्त्रों में मंत्र, यंत्र, तंत्र, औषधि एवं दान की प्रक्रियाएं विस्तार से बतायी हैं। उत्तम, मध्यम और सामान्य वर्ग की क्षमता का ध्यान रखते हुए ऐसे प्रयोग भी बतलाये गये हैं कि जिनके द्वारा ग्रह-शांति सरलता से की जा सकती है।

वैदिक मंत्र (चारों वेदों के) बीज मंत्र, नाम मंत्र और स्तुति रूप मंत्रों के प्रयोग प्राप्त होते हैं। सभी ग्रहों के यंत्र भी अलग-अलग है। पंद्रह अंक योग वाला नौ कोष्ठक का यंत्र अंकों के परिवर्तनों से बनाकर उनके लेखन, पूजन और धारण करने की व्यवस्था भी की गई है। ग्रह दोष निवारण के लिए उनकी प्रिय औषधियों से स्नान करने का निर्देश एक सरल उपाय है। प्रतिदिन इन औषधियों का काढा बनाकर स्नान के जल में मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है। अपनी शक्ति के अनुसार श्रद्धा एवं विश्वास से शांति कर्म करने से अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है।

अतः शास्त्रकारों ने अनिष्ट निवारक ग्रहों की तुष्टि के लिए उनके प्रिय धान्यों का दान, भोजन तथा रसों का दान और भोजन भी निश्चित किया है। सूर्य की प्रसन्नता के लिए गेहूं और गुड़ का दान अथवा भोजन करें। चंद्रमा की प्रसन्नता के लिए चावल और घृत का दान अथवा भोजन करें। मंगल की प्रसन्नता के लिए मसूर और गुड़ का दान अथवा भोजन करें। बुध की प्रसन्नता के लिए मूंग और घृत का दान अथवा भोजन करें। गुरु की प्रसन्नता के लिए चने की दाल तथा शक्कर का दान अथवा भोजन करें।

शुक्र की प्रसन्नता के लिए चावल और घृत का दान अथवा भोजन करें। शनि की प्रसन्नता के लिए उड़द और तेल का दान अथवा भोजन करें। राहु की प्रसन्नता के लिए तिल और तेल का दान अथवा भोजन करें। केतु की प्रसन्नता के लिए भी तिल और तेल का दान अथवा भोजन का विधान है। इसी प्रकार ग्रहों के रंग भी निर्धारित हैं। अतः वस्त्र धारण में सूर्य लाल मंगल लाल चंद्र श्वेत बुध हरा गुरु पीला शनि काला शुक्र श्वेत राहु नीला केतुु कृष्ण रंग के वस्त्र धारण करना अनुकूल रहता है। वैसे सभी ग्रहों के दोष से मुक्ति पाने के लिए शिवजी पर रुद्राभिषेक अथवा महिम्नस्तोत्र द्वारा अभिषेक करना/कराना श्रेष्ठ है।

मंगल और शनि की शांति के लिए हनुमान जी को आकड़े अथवा पीपल के पत्ते पर सिंदूर से श्रीराम नाम लिखकर 11 यंत्रों की कच्चे सूत से माला बनाकर पहनाएं तथा हनुमान चालीसा के 11 पाठ करें। प्रतिदिन नीचे लिखे हुए श्लोक मंत्र का जप करने से भी ग्रह बाधा नहीं होती है। ब्रह्मा मुरारीस्त्रिपुरांतकारी, भानुः शशि भूमि सुतो बुधश्चय। गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतवः, सर्वेग्रहाः शांतिकरा भवन्तु ।। संभव हो सके तो सभी को स्नान करने के तुरंत पश्चात् निम्न तीन मंत्रों से जलांजलि नियमित रूप से देनी चाहिए। इससे हमारे सभी दोष शांत होते हैं

तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की दिशा मिलती है। स्थान देवता तृप्यताम्। कुल देवता तृप्यताम्। पितरः तृप्यन्ताम्। क्रमांक ग्रह जन्मभूमि गौत्र अग्नि वर्ण स्थान आकार दिशामुख

1 सूर्य कलिंग काश्यप कपिल लाल मध्य गोल पूर्व

2 चंद्र यमुना आत्रेय पिंगल श्वेत अग्निकोण अर्धचंद्र पश्चिम

3. मंगल अवंती भारद्वाज धूमकेतु लाल दक्षिण त्रिकोण दक्षिण

4. बुध मगध आत्रेय जाठर पीत ईशान धनुष उत्तर

5. गुरु सिंधुदेश अंगिरा शिरवी पीत उत्तर कमल उत्तर

6. शुक्र भोजकर भार्गव द्वारक श्वेत पूर्व चतुष्कोण पूर्व

7. शनि सौराष्ट्र काश्यप महानेजा कृष्ण पश्चिम नराकार पश्चिम

8. राहु रठिनापुर पैठीनस हुताशन धूम्र दक्षिण मकर दक्षिण

9. केतु अतर्वेदी जैमिनि हुताशन धूम्र दक्षिण मकर दक्षिण



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