आपके विचार
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फ्यूचर समाचार
व्यूस : 5797 | अप्रैल 2006

आपके विचार प्रश्न: ज्योतिष में सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण का क्या महत्व है ? ग्रहण के पूर्व या ग्रहण के समय पूजा आदि का क्या विधान है? सूतक क्या है? इसमें कौन से कर्म वर्जित हैं? इस दौरान किन ग्रहों का उपाय, मंत्र जप आदि करना शुभ है?

कारण: ग्रहण चंद्रमा के जन्म के साथ ही आरंभ हो गए। गणना द्वारा ज्ञात किया गया है कि प्रति शताब्दी औसतन 154 चंद्र गहण तथा 237 सूर्य ग्रहण होते हैं। ये ग्रहण हर पूर्णिमा तथा अमावस्या को नहीं होते। इसका कारण चंद्रमा का परिक्रमण पृथ्वी के परिक्रमण की सीध में नहीं है बल्कि कुछ झुका हुआ है।

इसका झुकाव कभी बढ़कर 5 अंश 20 कला का हो जाता है तो कभी 4 अंश 57 कला का ही रह जाता है। किंतु पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने के कारण चंद्रमा का तल वर्ष में कम से कम दो बार सूर्य के केंद्र की दिशा में आ जाता है और तभी सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी एक सीध में होते हैं। यही ग्रहण का समय होता है। जब पृथ्वी और चंद्रमा के ये परिक्रमण तल एक-दूसरे को एक सीधी रेखा में काटते हैं तो इस रेखा के सिरों के मिलन बिंदुओं को संपात कहते हैं।

जब चंद्रमा पृथ्वी के समतल को काटकर ऊपर चढ़ता है तो उसे आरोही संपात और जब नीचे उतरता है तो उसे अवरोही संपात कहते हैं। आरोही संपात को राहु तथा अवरोही संपात को केतु कहा गया है। ग्रहण के लिए राहु या केतु की उपस्थिति अनिवार्य है।

अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि में होते हैं। उस दिन यदि केतु भी उपस्थित हो तो सूर्य ग्रहण होगा तथा पूर्णिमा के दिन सूर्य और चंद्रमा एक-दूसरे को सप्तम राशि में देखते हैं अर्थात विपरीत स्थिति में होते हैं। उस दिन चंद्रमा की राशि में राहु के होने पर ही चंद्र ग्रहण होगा। वर्ष में 2 ग्रहण होना अनिवार्य है तथा इनकी अधितम संख्या 7 है जिनमें 4 या 5 सूर्यग्रहण तथा 2 या 3 चंद्रगहण होते हैं।

जब चंद्रमा एक संपात से चलकर पुनः उसी संपात में लौट आता है तो इस अवधि को संपात मास कहते हैं। यह अवधि 27 दिन 5 घंटे 5 मिनट और 35.8 सेकंड के बराबर होती है। इस हिसाब से संपात वर्ष सौर वर्ष की तुलना में 18.62 दिन छोटा होता है। अतः सौर वर्ष के हिसाब से ग्रहण पीछे की ओर खिसकते जाते हैं जिससे सभी ऋतुओं में ग्रहण लगता है।

इन ग्रहणों का एक चक्र 18 सौर वर्ष और 11 दिन में पूरा होता है। इस अवधि के बाद पुनः इसका वैसा ही क्रम दिखाई देता है। यदि 18.5 वर्ष (6585 दिन) की अवधि के सब ग्रहण ज्ञात हों तो आगे के ग्रहण ज्ञात किए जा सकते हैं।

चंद्र ग्रहण देखना: भानो पंचदशे ऋक्षे चंद्रमा यदि तिष्ठति। पौर्णमास्यां निशाशेषे चंद्रग्रहणमादिशेत्।। सूर्य के नक्षत्र से चंद्रमा 15वें नक्षत्र पर हो तो पूर्णमासी को चंद्रग्रहण होता है और केतु तथा चंद्रमा एक राशि पर हों तो चंद्रग्रहण होता है।

सूर्य ग्रहण देखना: माघो न ग्रस्तनक्षत्रात् षोडशं यदि सूर्यभम्। अमावस्या दिवाशेषे सूर्यग्रहणमादिशेत्।। अमावस्या के दिन सूर्य चंद्रमा एक राशि पर हों और अमावस्या सूर्य नक्षत्र और दिन नक्षत्र एक हो तो पडवा की संधि में सूर्य ग्रहण होता है। सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र तक गिनें, उसमें से 11 निकाल लें, शेष 16 नक्षत्र बचें तो निश्चय ही सूर्य ग्रहण होता है।

दोहा: चंद्र से रवि सातवें, रवि राहु एकंत। पूनों में पडवा मिले, निश्चय ग्रहण पडंत।। रवि से राहु सातवें, शशि रवि हो एकंत। मावस में पडवा मिले, निश्चय ग्रहण पडंत।।

प्रभाव: पूर्ण सूर्य ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी पर एक विचित्र एवं भयावह वातावरण उत्पन्न हो जाता है जिससे मनुष्य व पशु पक्षी भयभीत दिखाई देते हैं। दिन के समय सूर्य रश्मियों का पृथ्वी पर पड़ना बंद हो जाता है जिससे सूर्य ग्रहण के 10 मिनट पूर्व ही एक अजीब सा अंधेरा छा जाता है जो रात्रि के अंधकार से भिन्न प्रकार का होता है।

इस समय सूर्य का परिमंडल साफ दिखाई देता है। इस विचित्र स्थिति का अध्ययन करने के लिए ज्योतिषी इनके फोटो लेते हैं, तापमान नापते हैं, परिमंडल के द्वारा सूर्य के कई रहस्यों का पता लगाते हैं। यह पूर्ण सूर्य ग्रहण की थोड़ी सी अवधि, जो करीब सात मिनट की होती है तथा कई वर्षों बाद आती है, ज्योतिषियों के लिए एक सुअवसर है।

उस समय यदि दुर्भाग्यवश बादल छा जाए या मौसम खराब हो जाए तो सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जाता है। सूर्य रश्मियों के पृथ्वी पर नहीं पड़ने का प्रभाव मनुष्य के शरीर पर भी पड़ता है। उसकी पाचन क्रिया मंद पड़ जाती है तथा वायुमंडल में कई प्रकार के विषाणुओं की वृद्धि हो जाती है शरीर में तापमान में कमी आ जाती है, रक्त प्रवाह शिथिल हो जाता है।

इस सूर्य ग्रहण को कोरी आंख से देखने पर आंखों की ज्योति भी नष्ट हो सकती है। इसलिए भारतीय धर्मों ने इस समय भोजन न करने एवं ग्रहणोपरांत स्नान आदि का विधान किया है ताकि इन दुष्प्रभावों से बचा जा सके। धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर इस समय दान पुण्य का भी महत्व बताया है।

ज्योतिष में ग्रहण का फल: ग्रहण का फल मास, नक्षत्र और वार के अनुसार अलग-अलग होता है। ग्रहण के समय किसी बच्चे का जन्म होता है तो उसके माता-पिता को दुःख और विपत्ति का सामना करना पड़ता है। ग्रहण के समय जन्म होने पर ग्रहण योग की शांति कराना जरूरी है। सूर्यग्रहण के 15 दिन बाद चंद्र ग्रहण हो तो शुभ फलदायक चंद्रग्रहण के बाद सूर्यग्रहण हो तो अशुभ सूर्य या चंद्र ग्रहण ग्रस्त उदय या अस्त हो तो व्यापारिक वस्तुओं में तेजी आती है।

यदि ग्रहण पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो अशुभ फलों को कम करती है और अशुभ ग्रहों की दृष्टि दुखदायक होती है। जिस राशि पर ग्रहण हो उस राशि के अंतर्गत संगता युक्त या मास राशि को कष्ट मिलता है और चीज वस्तु हो तो तेजी आती है। यदि 15 दिन के अंदर दो ग्रहण आ जाएं तो विश्व में उपद्रव तथा प्राकृतिक प्रकोपों से जन, धन और अन्न की हानि होती है।

सूर्य या चंद्र ग्रहण के समय शनि भी साथ में हो तो यह स्थिति ज्यादा कष्टकारी होती है। ऐसे में धातु में तेजी आती है। खग्रास ग्रहणों का फल 20 दिनों में परिलक्षित होता है। त्रिपाद ग्रहणों का फल 1 मास में और अर्धग्रहणों का फल 2 मासों में होता है। ग्रहण का असर सृष्टि के हरेक पदार्थ, मनुष्य और जीव जंतु सभी पर होता है। ग्रहण के पहले तीन दिन और ग्रहण के बाद तीन दिन शुभ कार्य वर्जित माना गया है और जिस राशि में ग्रहण होता है उस राशि की सभी चीजों, मनुष्य और वनस्पति पर ज्यादा असर होता है।

सूर्य या चंद्र ग्रहण पर मंगल की दृष्टि हो तो लाल वस्तुओं में तेजी आती है। बुध की पूर्ण दृष्टि घी, तेल, सोना, पीतल इत्यादि पीली वस्तुओं में तेजी आती है। शुक्र की पूर्ण दृष्टि हो तो सफेद वस्तुओं, चांदी सफेद वस्त्रों आदि में तेजी आती है। शनि की पूर्ण दृष्टि हो तो लोहा, उड़द, काले अनाज तथा वस्त्रों में तेजी आती है। यदि ग्रहण पर गुरु की पूर्ण दृष्टि हो तो उपरोक्त मंगल आदि ग्रहों के अशुभ फलों को कम करती है तथा सुख शांति रहती है।

ग्रहण सूतक: चंद्रग्रहण में ग्रहण से 9 घंटे और सूर्यग्रहण में 12 घंटे पहले ग्रहण का सूतक होता है। प्रकृति शिशु के जिस अंग का निर्माण कर रही होती है, ग्रहण के समय उस पर उसका सीधा प्रभाव पड़ता है। ग्रहण के सूतकाल में तीर्थस्थान, दान, जप, पाठ, मंत्र तंत्र, अनुष्ठान, ध्यान, हवनादि शुभ कृत्यों का संपादन करना शुभ रहता है।

निर्णय सिंधु में लिखा गया है कि ग्रहण में श्राद्ध अति पुण्यदायी है। नास्तिकता से जो नहीं करता है वह कीचड़ में फंसी हुई गौ के तुल्य दुख भोगता है। जो सविधि श्राद्ध के माध्यम से दान देता है मानो उसने संपूर्ण पृथ्वी ही भूसुर को दान कर दी हो ऐसा फल प्राप्त होता है। अन्न से रहित स्वर्ण आदि अनेक वस्तुओं से ग्रहण के समय होने वाला श्राद्ध तब तक पितरों को सुख देता है जब तक सूर्य चंद्रमा रहते हैं।

सूर्यग्रहण पड़े तब सूर्य का जप तथा सूर्य का ही दान करना चाहिए और चंद्रग्रहण के समय राहु का जप और राहु का दान करना चाहिए। ग्रहण के समय वर्जित कर्म: ग्रहण काल में सोना, भोजन करना, मूर्ति स्पर्श करना, मल मूत्र आदि त्यागना वर्जित है। इसमें बालक, वृद्ध और रोगी को छूट दी गई है। इसके अतिरिक्त ग्रहण काल में मैथुन एवं हास्य विनोद आदि का भी निषेध किया गया है।

‘‘चंद्रग्रहे त्रियामार्वाक् सूर्ये यामचतुष्टयम्।

अन्नपानादिकं वज्र्य बालवृद्धातुरैर्विना।।’’

चंद्रग्रहण में 3 याम (प्रहर) पूर्व और सूर्य ग्रहण में 4 प्रहर पहले से अन्नादि का ग्रहण बाल, बृद्ध व रोगियों को छोड़कर नहीं करना चाहिए।

ग्रहों का उपाय, मंत्र जप आदि एवं पूजा विधान: दैवज्ञ मनोहर ग्रंथ के अनुसार यदि जन्म राशि में ग्रहण हो तो घात, दूसरी में हानि, तीसरी में धनागम, चैथी में ध्वंस, पांचवीं में पुत्र चिंता, छठी में सुख, सातवीं में स्त्री वियोग, आठवीं में रोग, नवीं में सम्मान नाश, दशवीं में सिद्धि, ग्यारहवीं में लाभ और बारहवीं में ग्रहण होने पर अपाय विश्लेष होता है।

अतः ग्रहण जनित दोष को दूर करने के लिए जप, पूजा, दान आदि अवश्य करना चाहिए। ग्रहण के समय दान देना ग्रहजनित दोषों को दूर करता है तथा इस समय पवित्र नदियों में स्नान करना दोष शामक एवं पुण्यदायक माना जाता है। सर्वभूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः। सर्वगंगा समं तोयं ग्रहणे चंद्रसूर्ययोः।। ग्रहण में सभी दान भूमि दान तुल्य, समस्त ब्राह्मण ब्रह्म के समान और समस्त जल गंगाजल के बराबर होता है। इन्दोर्लक्षगुणं पुण्यं रवेर्दशगुणं तु ततः। गंगादि तीर्थ सम्प्राप्तौ प्रौक्तं कोटिगुणं भवेत्।।

ग्रहण के समय यदि सामथ्र्य हो तो भूमि, गांव, सोना, धान्य आदि दान करने चाहिए। गाय के दान से सूर्य लोक की प्राप्ति, बैल के दान से शिव लोक की प्राप्ति, स्वर्ण के दान से ऐश्वर्य की, स्वर्ण निर्मित सर्प के दान से राजपद, घोड़े के दान से बैंकुंठ की तथा अन्न दान करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है। ग्रहण जनित दोष दूर करने हेतु अनुष्ठान विधि: चंडेश्वर के अनुसार चंद्रग्रहण जनित अरिष्ट से बचने के लिए दही, शहद, रस, चांदी के चंद्रमा को कांसे के पात्र में रखकर ढक कर चंद्रमा का सफेद फूलों से पूजन करना चाहिए। सूर्यग्रहण जनित अरिष्ट से बचने के लिए सूर्य के अनुमान से सोने का सूर्य (सोने का चित्र बनाकर), दधि, शहद, घृत से पूर्ण पात्र में उसे रखकर, तांबे के पात्र से ढक कर, सूर्य का लाल पुष्प व वस्त्रों से पर्वकाल में पूजन करना चाहिए।

ग्रहण के समय को बिताकर पूर्व मुख होकर अपने इष्ट देवता को नमस्कार करके, स्नान, दान आदि से पवित्र होकर सब सामान ब्राह्मण को दे देना चाहिए। इस विधान से जो ग्रहण स्नान करता है उसे ग्रहण जनित अरिष्ट प्रभावित नहीं कर पाते।

स्मृति निर्णय में कहा गया है कि सूर्यग्रहण में सूर्य का जप व दान और चंद्रग्रहण में चंद्र तथा राहु का जप व दान करना चाहिए। सूर्यग्रहे रवेर्जाप्यं दानं कुर्याद्यथाविधि। चंद्रग्रहे तु तज्जाप्यं राहुदानं तथा जपः।। सामान्य जन अपनी शक्ति एवं सामथ्र्य के अनुसार दान आदि कर सकते हैं। वैसे संपूर्ण ग्रहण काल में अपने इष्ट देव का जप, पूजन आदि करते रहने तथा ग्रहण मोक्ष के बाद स्नान, दान आदि करने से ग्रहजनित अरिष्ट नहीं होता है।

ग्रहण काल में साधना एवं ग्रहों का उपाय: ग्रहण काल में किए गए प्रयोग, साधना, तांत्रिक क्रियाएं आदि सफलता के शिखर पर पहुंचाने में सहायक होती है। अतः ग्रहण काल जब चल रहा हो, उसी समय साधना संपन्न करनी चाहिए। साधनाएं एवं प्रयोग करने से पूर्व कुछ सावधानियां अवश्य रखें। ग्रहण आरंभ होने से पूर्व ही सामग्री आदि साधना स्थल पर एकत्रित कर लें। धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहले से तैयार रखें।

कंबल अथवा कुश का बना आसन तैयार रखें। जप करने हेतु माला संभाल कर रख लें। यह भी ध्यान रखें कि यदि आपके साथ कोई अन्य व्यक्ति भी साधना करने वाला हो तो गौमुखी का प्रयोग करें, जिससे जप करते हुए हाथ नजर न आए। ग्रहण आरंभ होने से पूर्व ही स्नान आदि कर साधना स्थल में प्रवेश कर लें तथा ग्रहण समाप्त होने पर पुनः स्नान करके ही पूजन सामग्री को हाथ लगाएं। ग्रहण समाप्त होने पर यथाशक्ति दान पुण्य अवश्य करें।

किसी भी हरिजन, कोढ़ी, अपंग को अपने पहनने के कपड़े, अनाज आदि अपने शरीर पर से सात बार घुमा कर दान करें। विवाह-बाधा निवारण हेतु: यदि बहुत प्रयत्न करने पर भी पुत्र/पुत्री या स्वयं, लड़के/लड़की का विवाह नहीं हो रहा हो तो उससे यह प्रयोग संपन्न कराएं। सामग्री: शिव पंचाक्षरी यंत्र, सिद्धि हेतु माला, चंदन, थाल, धूपदीप एवं आसन।

मंत्र: ¬ गौरी पति महादेवाय मम् इच्छित वर प्राप्त्यर्थ गौर्य नमः।

(कन्या के लिए यह चेतन एवं सिद्ध मंत्र है) पुत्र या लड़के लिए ‘वर’ शब्द की जरह ‘वधु’ शब्द का प्रयोग करें। सर्वप्रथम एक थाली में चंदन से ¬ बनाकर उस पर पुष्प एवं विल्वपत्र बिछा दें। अब शिव पंचाक्षरी यंत्र स्थापित कर लें तथा दीप, धुप, अगरबत्ती जलाएं।

आसन ऊनी हो तो श्रेष्ठ रहेगा। आसन पर सीधे बैठकर श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक पंाच माला जप करें। (माला शुद्ध व सिद्ध हो) पांच माला जप के बाद थाली को वैसे ही रहने दें और पांच बार ¬ नमः शिवाय का उच्चारण करें। फिर स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करंे और शिव पंचाक्षरी यंत्र को शुद्ध जल से पवित्र करके पूजा स्थान में स्थापित कर पूजन करें और यथाशक्ति दान पुण्य करें।

गृह क्लेश निवारण प्रयोग: मंत्र: शांति कुरु पारदेश्वर, सर्वसिद्धि प्रदायक। भुक्ति-मुक्ति दायक देव, नमस्ते-नमस्ते स्वाहा।।

सामग्री: पारद शिवलिंग, विल्वपत्र, पंचामृत, रुद्राक्ष माला।

ग्रहण प्रयोग: ग्रहण काल से पूर्व विल्व पत्र आदि एकत्रित कर लें। ग्रहण काल आरंभ होने पर एक बड़े बर्तन में चंदन से ¬ बना कर विल्व पत्र नीचे रखकर पारद शिवलिंग को उस पर स्थापित करें अब पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर) बना लें। परिवार का कोई भी एक सदस्य रुद्राक्ष माला से मंत्र-उच्चारण कर माला गिनता रहे व शेष सदस्य उसके साथ उच्चारण करते रहें। अब उपस्थित परिवार के सभी सदस्य धीरे-धीरे मंत्र का उच्चारण करते हुए पंचामृत पारद शिवलिंग पर चढ़ाते रहें। यह अभिषेक निरंतर करते रहंे, जब तक कि पांच माला पूरी न हो जाए। जब तक माला जप चलता रहे परिवार का प्रत्येक सदस्य अभिषेक में हिस्सा लें। पांच माला समाप्त होने पर पारद शिवलिंग को पंचामृत में ही डूबा हुआ रहने दें।

स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करें और शिवलिंग को पंचामृत से निकालकर शुद्ध जल से धोकर अपने पूजा गृह में स्थापित करें। यह शिवलिंग आपकी हर अभिलाषा को पूर्ण करने में सहायक होगा। पारिवारिक संबंध अत्यंत मजबूत व शुभ होगा।

राज्य-भय या दंड से मुक्ति के लिए: मंत्र:

¬ क्रीं क्रीं क्रीं ¬।।

सामग्री: महाकाली यंत्र, मौली, कुंकुम, एवं मिट्टी के 5 दीपक । विधि: ग्रहण काल में महाकाली यंत्र पर मौली-नाड़ा छोड़ी लपेट कर 5 कुंकुम का टीका लगा दें, फिर उपर्युक्त मंत्र के 51 बार जप कर उसे प्रातः काल जमीन में गहरा गड्ढा करके दबा दें। इससे राज्य कर्मचारी को राज्य भय से मुक्ति मिलती है।

महाकाली यंत्र को ताम्र पात्र में रखें व 5 दीपक तैयार करें। प्रत्येक दीपक को बारी बारी से मंत्र का एक माला जप करते हुए प्रज्वलित करें। इस प्रकार पांचों दीपक जलाने तक पांच माला जप पूरा हो जाएगा। प्रयोग समाप्ति पर पांचों दीपक व यंत्र को नदी में विसर्जित कर दें। ऐसा करने से दंड संबंधी भय से मुक्ति मिलती है।

शनि दोष निवारक प्रयोग:

मंत्र: ¬ प्रां प्रीं प्रौं शं शनये नमः।।

सामग्री: शनि यंत्र, काली उड़द, काला कपड़ा व शनि माला। यदि आप शनिदेव की साढ़े साती अथवा ढैय्या के प्रभाव में है, या शनि की अशुभ दशा के प्रभाव में है तो आप इस प्रयोग को संपन्न कर शनि दोष व उसकी अशुभता से मुक्त हो सकते हैं।

ग्रहण के समय अथवा अमावस्या के तत्काल बाद किसी भी शनिवार को रात्रि में यह प्रयोग इस प्रकार संपन्न करें। एक चैकी या बाजोट पर काले कपड़े को बिछा दें, और उस पर साबुत काले उड़द की ढेरी बनाएं, थोड़ा सा सिंदूर छिड़कें। अब इस पर शनि यंत्र खड़ा स्थापित करें व कड़वे तेल का दीपक जलाएं और धूप करें।

जप संपूर्ण होने पर यंत्र, माला, उड़द आदि काले कपड़े की पोटली में बांध लें। यदि आपके निवास के आस-पास तीन रास्ते (तिराहा) पड़ते हों तो पोटली वहां डाल दें और बिना पीछे देखे घर लौट आएं। घर आकर स्नान करें एवं श्रद्धा से दान पुण्य करें।

ग्रहण के दौरान ग्रहों की शांति के उपाय, मंत्र-जप आदि: ग्रहण काल में कुश के आसन पर बैठकर ग्यारह हजार गायत्री मंत्र जपने से रोजगार प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों में सफलता मिल सकती है। रोग मुक्ति हेतु महामृत्युंजय यंत्र को ग्रहण काल के अवसर पर पंचामृत स्नान कराते हुए महामृत्युंजय मंत्र का जितना संभव हो सके जप करना अथवा करवाना चाहिए। ऐसा करने से एवं जिस पंचामृत से यंत्र को अभिषिक्त कराया गया उसे रोग ग्रस्त व्यक्ति को पिलाने से (न्यूनतम मात्रा में) लाभ होता है।

ग्रहण काल में कालसर्प योग में जन्मे लोग शांति करवा कर दोषमुक्त हो सकते हैं। काल सर्प दोष निवारण यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हैं। कालसर्प दोष निवारण यंत्र, मंत्र, लाॅकेट अथवा अंगूठी धारण करने से विशेष फल मिलता है। विभिन्न देवी देवताओं के स्तोत्र, कवच पाठ आदि करना शांतिदायक होता है। ओंकाराय नमो नमः मंत्र का जप करने से ग्रहण के दोष से बचा जा सकता है।

पृथ्वी का उद्धार करने वाले विष्णु भगवान के स्तोत्र का पाठ अथवा विष्णु सहस्रनाम, श्रीराम सहस्रनाम स्तोत्र का ग्रहण के पर्वकाल में पाठ करने से चमत्कारिक फल मिलता है। विविध प्रकार के कामनापूरक/समस्या निवारण यंत्र, ताबीज, गंडे आदि ग्रहण पर्व में तैयार किये जा सकते हैं जो शीघ्र फल देते हैं। अन्न दान, वस्त्र दान, स्वर्ण या रजत दान, पशु दान, छायादान, तुला दान आदि पुरोहित के निर्देशानुसार संकल्प लेकर करना शुभ फलदायक होता है।

शांति कर्म के लिए सूर्य, चंद्र, राहु और केतु के मंत्रों का जप तथा इन ग्रहों की वस्तुओं का ब्राह्मण को दान किया जा सकता है। रात्रि के समय, विशेषकर चंद्र ग्रहण के दौरान, विद्यादायक मंत्रों का जप करने से मनोकामना की पूर्ति होती है। अर्थार्थी लोग धन ऐश्वर्य की प्राप्ति के निमित्त श्रीयंत्र को अपने समक्ष रखकर कनकधारा स्तोत्र, श्री सूक्त, लक्ष्मी सूक्त, श्रीयंत्र बीज मंत्र एवं कुबेर यंत्र के समक्ष कुबेर मंत्र का जप कर सकते हैं।

व्यापार बाधा निवारण हेतु वनस्पति तंत्र के प्रयोग, जड़ी-बूटी धारण, सिद्धि प्रदायक तांत्रिक वस्तुएं, दक्षिणावर्ती शंख, सियार सिंगी, हत्थाजोड़ी आदि गल्ले या तिजोरी में स्थापित किए जा सकते हैं। सभी प्रकार की यंत्र, मंत्र, तंत्र संबंधित क्रियाओं या साधनाओं की सिद्धि हेतु ग्रहण काल उत्तम माना गया है। लाल किताब के विविध प्रकार के कल्याणकारी टोटकों का प्रयोग कर सकते हैं। नव ग्रह पीड़ा निवारक यंत्रों का ग्रहण काल में प्रयोग करना शुभ फल देता है।

निष्कर्ष: ग्रहण नक्षत्रों, ग्रहों की स्थिति से जुड़ी एक खगोलीय घटना है। इसका ज्योतिषीय धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व है।

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