्रश्न: ब्रह्म स्थान ऊंचा अथवा नीचा, कैसा होना चाहिए? यहां क्या बनाया जा सकता है? क्या यहां मंदिर बनाया जा सकता है? ब्रह्म स्थान बंद होने से क्या समस्याएं हो सकती हैं? इसका दोष-निवारण कैसे हो सकता है?
उत्तर: ब्रह्म स्थान भूमिखंड में मध्य का वह स्थान होता है जो कि वास्तु पुरूष के मर्म स्थान नाभि, फेफड़े, पेट, गुप्तांग और जांघ कहे जाते हैं। 81 पदीय वास्तु योजना में 9 पद ब्रह्मा (मध्य में) के होते हैं तथा 6 पद पृथ्वी (उत्तर दिशा की तरफ) के होते हैं।
दोनों को मिलाकर 15 पद चैक या आंगन के लिये होना चाहिये। यह मध्य से उत्तर की तरफ लंबाई लिये होना चाहिए तथा छत भी इसी क्रम में ही होनी चाहिए। ब्रह्म स्थान को आंगन, चैक या लाॅबी का रूप देना अत्यंत शुभ माना जाता है। ब्रह्म क्षेत्र में किसी भी प्रकार का गड्ढा होना अवनति का प्रतीक है। प्रयत्न के पश्चात भी उन्नति नहीं हो पाती है। परिश्रम का पूर्ण लाभ नहीं मिलता है।
यदि फैक्ट्री में यह स्थिति है तो फैक्ट्री भी पर्याप्त उन्नति नहीं कर पाती है। जिस भवन या कारखाने में कूप हो तो अर्थहानि, अपव्यय के साथ मानसिक तनाव ज्यादा होता है। ब्रह्म स्थल पर किसी भी प्रकार का भार नहीं होना चाहिये। यह खाली एवं स्वच्छ होना चाहिए। इस पर भार होने से घर के निवासी कष्ट पाते हैं। उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
यदि यह स्थिति किसी कारखाने में हो तो वहां मजदूरों की समस्या बहुत ज्यादा होती है। यदि भवन या औद्योगिक स्थल के ब्रह्मस्थल पर शौचालय हो तो अपमान की स्थिति का सामना करना पड़ता है। भूखंड या भवन के ठीक मध्य में ब्रह्मस्थल पर पीलर, पोल या खंभा हो तो उन्नति में बाधक होने के साथ ही अर्थ हानि करवाता है।
यदि ब्रह्म स्थान में गाय आदि पालकों के लिये ब्रह्मस्थल में खूंटा हो तो प्रगति व स्वास्थ्य दोनों को प्रभावित करता है। ब्रह्म स्थान पर भारी दीवार उसके निवासियों को नाना प्रकार के कष्ट देता है। इस दोष को उस क्षेत्र की दीवार में नीचे से दीवार के आर-पार थोड़ा सा हिस्सा खाली रखकर दूर कर सकते हैं।
व्यवसायिक भवन के ठीक मध्य में काॅलम बनाकर भवन की छत का संपूर्ण भार डालने से भवन के मध्य में अर्थात् ब्रह्मस्थान पर अत्यधिक भार पड़ता है जिससे व्यापार-व्यवसाय प्रभावित होता है। यदि ब्रह्मस्थान में चढ़ाव है तो रहने वालों को यह भ्रमित करता है, उन्हें अशांत रखता है, अस्थिरता भी देता है। भवन के ठीक मध्य में होने वाला द्वार, ब्रह्म दोष का निर्माण करता हैं, इससे होने वाले कष्ट असीमित होते हैं। यहां पर बोरिंग होना संपूर्ण परिवार का विनाश करता है।
ब्रह्म स्थान पर शयन एवं अध्ययन करना वर्जित है। इसके अलावा जलाशय आदि जल स्रोत व अत्यधिक गर्मी के स्रोत भी नहीं होने चाहिये। इस स्थान पर आकाश तत्व का प्रभुत्व होता है। इस प्रकार तत्व के स्वभाव एवं प्रकृति के अनुसार यह स्थान खुला होना चाहिए। यह स्थान न ऊंचा होना चाहिये न नीचा होना चाहिए परंतु इसकी ढलान उत्तर-पूर्व की ओर होनी चाहिये। इस स्थान पर पूजा स्थल, आंगन, तुलसी का चैरा इत्यादि बनाया जा सकता है।
ब्रह्म स्थान पर कोई भी भार, गड्ढा, गंदगी, पानी आदि का स्थान नहीं बनाना चाहिये। यदि भूमिखंड छोटा हो तो इस स्थान पर ड्राइंगरूम भी बनाया जा सकता है। सत्य तो यह है कि इस स्थान पर भार नहीं होना चाहिए अर्थात इस स्थान पर कोई निर्माण नहीं होना चाहिये। कुआं, तरण तालाब, टाॅयलेट, लिफ्ट आदि तो पूर्णतया वर्जित है। इस स्थान को खाली रखना चाहिये और इस स्थान पर आवागमन न हो अर्थात पैर नहीं पड़ने चाहिये।
कल्पना कीजिए कि मर्म स्थानों पर यदि कोई व्यवधान, भार, पैर पड़ेंगे तो हमारी क्या दशा होगी और उसका क्या फल होगा? हम व्याकुल हो जायेंगे, पीड़ा महसूस करेंगे, इसी प्रकार वास्तु पुरूष भी पीड़ित हो जायेंगे और पीड़ित होने के कारण शुभ फल कैसे दे पायेंगे। मानासर के अनुसार ब्रह्मस्थान पर मंदिर निर्माण किया जा सकता है। परंतु इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि इस स्थान पर ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी तथा श्याम शिवलिंग मंदिर का ही निर्माण किया जा सकता है।
यदि ब्रह्म स्थान पर निर्माण होगा या वह क्षेत्र बंद होगा तो गृह स्वामी एवं घर के सदस्यों का मानसिक संतुलन बिगड़ जायेगा, घर के सदस्यों में मनमुटाव, कलह आदि समस्यायें जन्म लेंगी। यदि ब्रह्म स्थान पर तरनताल का निर्माण होगा तो गृहस्वामी दिवालिया हो जायेगा, रसोई के निर्माण से तरक्की में बाधायें उत्पन्न होंगी तथा भारी खर्च एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हांेगी।
जिस प्रकार नाभि से संपूर्ण मानव शरीर को ऊर्जा मिलती है, ठीक उसी प्रकार वास्तु के ब्रह्मस्थान से संपूर्ण वास्तु को ऊर्जा मिलती है। अतः इस स्थान को सबसे अधिक संतुलित रखना चाहिये। आकाश तत्व (ब्रह्म स्थान) का प्रभाव मूल रूप से व्यक्ति की प्रवृत्तियों, चिंतन स्वास्थ्य आदि पर पड़ता है। इसके प्रभाव से ही व्यक्ति के जीवन में प्रेम, मोह, भय, दुश्मनी, सहयोग, सामंजस्य, लज्जा आदि के गुण उत्पन्न होते हैं।
यदि वास्तु में यह आकाश तत्व संतुलित रहता है तो व्यक्ति का स्वास्थ्य उत्तम रहता है तथा उसमें नेतृत्व क्षमता का भी विकास होता है वह भौतिक सुखों को प्राप्त करने के साथ ही आध्यात्मिक क्षेत्र (कारक-गुरु होने से) में भी उन्नति करता है। जिस प्रकार अनंत आकाश का चिंतन करने से आकाश की अनन्तता का आभास होता है, ठीक उसी प्रकार आकाश तत्व के प्रभाव से ही व्यक्ति की सोच विस्तृत या संकुचित होती है। किसी कारणवश यदि किसी व्यक्ति के आकाश तत्व में बाधा उत्पन्न हो जाये तो वह समग्र चिंतन की अपेक्षा स्वयं पर आर्थिक चिंतन करने लगता है।
उदाहरण के रूप में, जब से फ्लैटों (सोसायटी) का निर्माण प्रारंभ हुआ है संयुक्त परिवार टूटकर एकाकी परिवार में परिवर्तित हो रहे हैं जिसके कारण वृद्ध माता-पिता के सामने अनेक समस्याएं खड़ी हो गयी हैं। किसी समय माता-पिता को देवताओं की तरह पूजा जाता था, सेवा की जाती थी परंतु बदलते परिवेश में उन्हें दो वक्त के खाने के लिये भी अपने बच्चों के सामने तरसना पड़ता है।
इसके अलावा, संतान व अन्य रिश्ते नाते तथा अन्य आश्रितों के प्रति भी लोगों के नजरिये में काफी बदलाव आया है। यदि पुराने निर्माणों पर दृष्टि डालंे तो यह पता चलता है कि भवन में मध्य ब्रह्मस्थल को खुला छोड़ा जाता था (जिसे आंगन भी कहा जाता था), ऐसा इसलिये किया जाता था क्योंकि ब्रह्म स्थान को ढंक देने से आकाश तत्व बाधित होकर असंतुलित हो जाता था जिससे वहां निवास करने वाले व्यक्तियों के जीवन में अनेक शारीरिक, मानसिक (स्वास्थ्य संबंधी) आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक आदि समस्या उत्पन्न हो जाती थी। वास्तु शास्त्र के नियमों के अनुसार ब्रह्मस्थल में भूलकर भी किसी प्रकार का निर्माण नहीं करवाना चाहिए और न ही इसे ढंकना चाहिये।
यह स्थान खुला, साफ-सुथरा, हल्का आदि रखना चाहिये। इसलिये पहले जमीन में वहां तुलसी का पौधा रखा जाता था, ताकि पूजा के कारण ही सही, घर का आंगन/ब्रह्मस्थल साफ सुथरा, खुला हल्का आदि रहता था। वैसे भी ब्रह्मस्थल की तुलसी, घर के केंद्र में होने से घर में शुद्धता का वातावरण बनता है जो घर की स्त्रियों को उनकी स्त्रीगत परेशानियों को समाप्त करने में भी सहायक होता है। अतः घर की स्त्रियों को इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिए कि ऊर्जा युक्त घर बनाने के लिये जहां चैक होना चाहिये, वहां पर ऊर्जा की व्यवस्था ठीक प्रकार की होनी चाहिये, अन्यथा अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण- केंद्र में ऊर्जा का ह्रास होने से घर के अन्य स्थानों पर भी ऊर्जा की कमी हो जाती है, जिससे घर परिवार की स्त्रियों में चिड़चिड़ापन आ जाता है। कुछ न कुछ मानसिक परेशानी, तनाव, नींद नहीं आना, हर समय सिर भारी रहना, पैरों में बाय जैसी समस्याएं आदि होने लगती हैं चूंकि स्त्रियां घर में ज्यादा समय बिताती हैं। अतः इन पर एवं बच्चों पर इसका प्रभाव भी सबसे अधिक आता है।
ब्रह्म स्थल का भूतल भी भवन के अन्य हिस्सो से नीचा नहीं होना चाहिए। इस स्थान पर सीढ़ियों एवं सैप्टिक टैंक का निर्माण भी नहीं करवाना चाहिए क्योंकि इनके होने से वंश, धन एवं स्वास्थ्य तीनों की ही हानि होती है। आंगन की लंबाई और चैड़ाई को गुणा करके 9 का भाग देने पर जो राशि शेष बनती है, उसके आधार पर आंगन के नाम होते हैं तथा अंकानुसार फल निम्न होते हैं।
1. बचे तो दाता,
2. पंडित -
3 भीरू,
4. कलह,
5- नृप,
6. दानव,
7. नपुंसक (क्लीव),
8 भोर व
9 बचे तो धनी।
ब्रह्म स्थान पर दोषपूर्ण निर्माण हो जाने पर सर्व प्रथम तो इस प्रकार के निर्माण को ही हटा देना चाहिये। यदि यह संभव न हो तो निम्न उपायों से इस दोष का निवारण करना चाहिये:
दोष निवारण अर्थात् उपाय/ सुझाव:
- ब्रह्मस्थल/आंगन/लाॅबी के रखने से ही आकाश तत्व की उपस्थिति से पंच तत्वों का संतुलन बना रहता है।
- इस ब्रह्म स्थल या आंगन से ही 64 योगिनियां ही घरों में प्रवेश कर समस्त अष्ट लक्ष्मी एवं सुख समृद्धि तथा भाग्य में उन्नति करती हैं। अतः यह स्थल अवश्य रखना चाहिए।
- रात को सोते समय इसे धोकर स्वच्छ व पवित्र करें।
- इस स्थल पर जूठे बर्तन, जूठन, गंदगी, टूटा शीशा, गंदा कपड़ा आदि बिल्कुल न रहने दंे। सफाई का बराबर ध्यान रखें।
- इस स्थल पर लाल या पीला बल्ब (रोशनी करें) जरूर जला दें।
- इस स्थल पर ऊर्जा का आवागमन बराबर करने के लिये इसके उपर रोशनदान ऐसे बनवायंे कि हवा व धूप (वायु, प्रकाश) का प्रभाव बराबर बना रहे। इसके लिए उत्तर या पूर्व में खिड़कियां भी बना सकते हैं।
- यदि यह स्थान बंद यानि कवर्ड/ढंका हो तो इस स्थल पर छत के ऊपर डेम बनवाना चाहिए ताकि आवश्यकतानुसार इसे खोलकर केंद्रीय भाग का वातावरण शुद्ध बनाया जा सके।
- यदि ब्रह्मस्थल के ऊपर डेम नहीं है और बंद है तो भी उपाय कर सकते हैं। उपाय के रूप में रात्रि में शयन से एक घंटा पूर्व ब्रह्मस्थान पर हल्की सुगंध वाली एक सेंट बत्ती (अगरबत्ती) जलानी चाहिए। इससे इसका दोष कम हो जाता है।
- यदि ब्रह्म स्थान में जीना बनवाना हो तो यह दक्षिणी दीवार पर होनी चाहिये तथा साथ ही इसी दीवार पर एक घड़ी भी लगानी चाहिए जो बिना रूके नियमित चलनी चाहिए। मध्य में बना जीना दोष उत्पन्न करता है जिससे संतान की उन्नति में बाधा होती है तथा तनाव के साथ आलस्य में भी वृद्धि होती है।
- यदि इस स्थान पर फर्नीचर बना या रखा हो तो इसे भी दक्षिण की तरफ ही रखें तथा इलेक्ट्रिकल सामान, टी. वी. कंप्यूटर आदि पूर्व की तरफ रखें।
- ब्रह्म स्थान में सर्वप्रथम तो तलघर, रसोईघर, सैप्टिक टैंक, शयन कक्ष, शौचालय, स्नानगृह, स्वीमिंग पूल, स्टोर रूम, कुआं, बोरिंग आदि नहीं बनाना चाहिये।
यदि बन ही गया है और उसको हटाना संभव न हो तो वास्तु महायंत्र की स्थापना की जानी चाहिये। इसमें 81 वर्गों में उन 45 देवों के नाम दर्शाये जाते हैं जिन्होंने वास्तु पुरूष को भूमि पर गिराया था और उसके विभिन्न भागों पर बैठकर उसे बंधक बनाया था। यंत्र के मध्य भाग वाले नौ वर्गों में ब्रह्मा का नाम होने के कारण इसे ब्रह्म स्थान दोष निवारक यंत्र भी कहा जाता है।
81 वर्गों के बाहरी कोष्ठक में अंदर की ओर पूर्व दिशा में ऊँ गं गणपतये नमः, पश्चिम में ऊँ यं योगिनीभ्यों नमः। उत्तर में ऊँ क्षं क्षेत्रपालय नमः, दक्षिण में ऊँ बं बटुकाय नमः, लिखा जाता है। इसी के साथ-साथ भू शय्या पर लेटे वास्तुदेवता को प्रणाम करते हुये उनसे गृह को धन, धान्यादि से परिपूर्ण करने की प्रार्थना भी अंकित होती है। इस यंत्र को पूजाघर में स्थापित करना चाहिये, प्राण प्रतिष्ठा करके इस यंत्र की प्रतिदिन धूप, दीप, इत्र नैवद्य से पूजित करते रहने से ब्रह्म स्थान के दोषों का शमन होता है।
- ब्रह्म स्थान पर सफेद रंग करना चाहिये तथा यहां पर हल्का पीला प्रकाश करें।
- ब्रह्म स्थान पर विंड चाईम या पवन घंटी लगानी चाहिये। इससे स्वास्थ्य संबंधी समस्या का शमन होता है।
- यदि ब्रह्म स्थान पर तरणताल, स्नानगृह, कुआं बोरिंग, सैप्टिक टैंक आदि बन गया हो तो इस दोष को दूर करने के लिये वरूण यंत्र स्थापित करें।
- ब्रह्म स्थान के दोष को दूर करने के लिये स्फटिक श्री यंत्र की स्थापना करें।
- दोषपूर्ण ब्रह्मस्थान के कारण यदि मानसिक तनाव है तो कमरे में शुद्ध घी का दीपक जलायें एवं गुलाब की अगरबत्ती रोज जलायें।
- ब्रह्मस्थान में दोष होने पर पिरामिड लगाने की सलाह भी दी जाती है।
- यदि दीवार, सीढ़ी या शौचालय ब्रह्म स्थान में निर्मित हो
- दीवार होने पर- दीवार पर 3 मल्टियर पिरामिड यंत्र लगायें तथा बीच में एनर्जी प्लेट तथा कोनों पर चार पायरा कोन लगाये जायंे।
- खंभा होने पर- खंभे के चारांे ओर या जमीन या छत पर पिरामिड लगायें।
- सीढ़ी होने पर
- सीढ़ी के नीचे जमीन में पायरा पट्टी लगा दी जाये, यदि सीढ़ी के दोनों ओर स्थान हो तो 8 पिरामिड लगा दिये जायें।
- शौचालय होने पर
- बाहरी दीवार पर 3 पिरामिड इस प्रकार लगायें कि जिस ओर शौचालय को हटाना है उसके दूसरी तरफ यह रहे।
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