विभिन्न दिशाओं (आठों दिशाओं) में बोरवेल होने के अच्छे या बुरे क्या-क्या प्रभाव हो सकते हैं? यदि आपके अनुसार उस स्थान पर बोरवेल का होना नुकसानदायक है तो उसके दोष को ठीक करने के लिए क्या-क्या उपाय किया जाना चाहिए?
उत्तर: ‘‘बोरवेल’’ विभिन्न मकानों में पाये जाने वाले मुख्यतः 3 प्रकार के टैंक्स में से पहला प्रकार है, जो भूमि की सतह के नीचे स्थित होता है। इन्हें ‘‘अंडरग्राउंड (भूमिगत टंकी) टैंक्स भी कहते हैं। बोरवेल के पर्याय- बोरिंग, कुआं, तरणताल, टयूबवेल, नल, जलाशय, तालाब, गड्ढा, हैंडपंप, कुंड, हौज अथवा अन्य भूमिगत जलस्रोत/संग्रहण हैं।
विभिन्न दिशाओं में बोरवेल होने के प्रभाव:
1. पूर्वी ईशान दिशान में लाभकारी होता है। इससे धनवृद्धि (आर्थिक लाभ), संतान (वंश) वृद्धि तथा उत्तम विद्या या उच्च शिक्षा की प्राप्ति होती है। इससे संतुलित जीवन शैली का भी निर्माण होता है। ऐश्वर्य में वृद्धि, गृहस्वामी को लाभ व शुभत्व देता है। वैभव व यश-कीर्ति, समाज में प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है आदि।
2. उत्तरी ईशान दिशा में सुखदायक होता है। धनवृद्धि देता है। संतान सुंदर व निरोगी रहती है। रोगप्रतिरोधक क्षमता भी अच्छी रहती है। बुद्धि स्थिर रहती है। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में कभी-कभार चर (चंचल) भी होती है। आर्थिक खुशहाली देता है आदि।
3. ईशान (उत्तर-पूर्व) में इसका होना अत्यंत शुभ होता है। गृहस्वामी के लिये हर क्षेत्र में धनात्मकता देने वाला होता है। इससे चहुंमुखी विकास होता है। धन-धान्य में वृद्धि होती है तथा स्वास्थ्य भी उत्तम रहता है। पुत्र वृद्धि सुख देता है। जीवन में सुख-शांति व समृद्धि देता है। घर या कार्यस्थान में सुव्यवस्था बनी रहती है तथा सभी कार्य सुचारू रूप से चलते हैं। ऐश्वर्य में वृद्धि होती है आदि। एक बात पर विशेष रूप से सावधानी बरतनी चाहिए कि उपरोक्त जल स्रोत का निर्माण कोण सूत्र या विकर्ण रेखा पर नहीं होना चाहिये।
यह वह रेखा या सूत्र होता है, जो वास्तु पुरूष के मस्तिष्क, जो ईशान में रहता है को र्नैत्य में स्थिर वास्तु पुरूष के पैरों से जोड़ती है। इससे ईशान से र्नैत्य की ओर बहने वाली सकारात्मक ऊर्जा में बाधा उत्पन्न होगी, जिससे सारे सुखों से वंचित रहना पड़ेगा। सतह की ढलान भी ईशान में ही होनी चाहिए जिससे वर्षा जल (शुद्ध) की निकासी भी मकान के इसी भाग से हो। अतः भूमिगत जल स्रोतों के लिये ईशान, पूर्व व उत्तर दिशा शुभ रहती है। सकारात्मक परिणाम मिलते हैं।
4. आग्नेय में इसके होने पर अशुभत्व वाले फल मिलते हैं। बच्चों में पुत्र कष्ट पाते हैं। इसके अलावा धन की हानि, स्त्रियों को भी दुख, बच्चों को भय, तकलीफ व झगड़े आदि होते हैं। शरीर में कांति का अभाव, डिप्रेशन, स्नायविक दुर्बलता, यौन रोग, वंश बाधा, संतान से विवाद व उनके कारण मानसिक अशांति, शरीर में डिहाइड्रेशन आदि होते हैं। अस्वस्थता, बीमारी होती है गृह स्वामी को दुख, भय व पुत्र विनाश के कारण कष्ट मिलता है। कर्ज में वृद्धि, कलह, प्रतिष्ठा में कमी तथा स्त्रियों को पुरूषों की तुलना में अधिक कष्ट मिलता है। इसके अलावा अवांछित खर्च भी होते हैं। यह सिर्फ होटल में हो तो ग्राहकों की कमी हो जाती है। दुर्घटना व डकैती भी होती है।
5. दक्षिण में इसके होने पर शत्रु व नारी जाति की पीड़ा होती है। बीमारी होती है। गृह स्वामी की पत्नी का विनाश, आर्थिक व संतान हानि, भूमि का नाश, अद्भुत रोगों से पीड़ित होना पड़ता है। इसके अलावा परिवार में गलतफहमी, आपसी मतभेद, कलह, क्लेश दुर्घटना आदि भी होते हैं।
6. र्नैत्य दिशा में इसके होने से गृहस्वामी के लिये अशुभ, कष्टकारक व असामयिक मृत्यु, धन की हानि, स्त्रियों व पुरूषों में आपसी कलह, मृत्यु तुल्य कष्ट, जल से उत्पन्न होने वाले रोगों से पीड़ित होना, संतान से तीव्र मतभेद परिवार में क्लेश, व्यक्ति के प्रभाव में कमी, पारिवारिक सदस्य अनेक रोगों से ग्रसित होते हैं। इस दिशा में भूमिगत जल स्रोत का होना सबसे बड़ा वास्तुदोष माना जाता है। अतः विशेष सावधान रहें।
7. पश्चिम दिशा में इसके होने से अर्थ, धन, संपत्ति लाभ होता है। बीमारियों में थायराइड से संबंधित रोग होते हैं। मन में विकार भी आ जाते हैं। धन का खर्च भी बराबर होता है।
8. वायव्य दिशा में इसके होने से मानसिक तनाव रहता है। आर्थिक हानि व शत्रु पीड़ा भी रहती है। निर्भरता भी आती है, परिवार में क्लेश भी रहता है। स्त्री का नाश भी करवाता है। उपरोक्त फल पश्चिमी वायव्य के हैं।
9. उत्तर वायव्य में इसके होने से शत्रुता, चोरी, धन के कारण झगड़े आदि होते हैं।
10. उत्तर दिशा में इसके होने पर सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। धन वृद्धि होती है स्वस्थता रहती है।
11. ब्रह्म अर्थात्- मध्य स्थान में इसके होने पर परिवार में विघटन, धन नाश, व्यक्ति शीघ्र निर्णय करने में असक्षम, प्रतिष्ठा में कमी तथा अनेक प्रकार के कष्ट व अशुभता मिलती है। इसके अलावा भाग्य बाधा शुरू हो जाती है। जीवन में उथल-पुथल, ऋण, निर्धनता, आजीविका का नाश, छलकपट, मुकदमा, धोखा, खून-खराबा, भगवान का नाराज हो जाना आदि आरंभ हो जाते हैं।
उपाय :
1. भवन के जिस क्षेत्र में वास्तु दोष हो वहां ‘‘पिरामिड’’ को उचित तरीके से स्थापित कर वास्तु दोष दूर कर सकते हैं। पिरामिड तांबे के श्रेष्ठ रहते हैं।
2. मकान के मुख द्वार पर 9 ग् 9 अंगुल लंबा व चैड़ा सिंदूर से स्वास्तिक चिह्न बनायें।
3. घर में लगातार 9 दिन तक अखंड कीर्तन करवाना शुभ रहता है।
4. घर में अखंड श्री रामचरितमानस का पाठ नियमित2 करें।
5. जहां तक संभव हो सके पानी से संबंधित स्रोत जैसे- फिशएक्वेरियम, फिश पाट, फाउंटेन, जलप्रपात, झरना तस्वीर,जल आदि ईशान, उत्तर में ही लगावें, इससे वास्तुदोष में कमी आती है।
6. घर में पर्दे पर नीले रंग (हल्का) के शेड्स हों।
7. इस क्षेत्र में अपने करियर से संबंधित वस्तुएं जैसे- शिक्षक को पुस्तक कापी, पेन आदि, संगीतकार का वाद्य यंत्र आदि रखना भी वास्तु दोष में कमी लाता है।
8. उत्तरी क्षेत्र में ‘‘मनी प्लांट’ रखना/लगाना शुभ रहता है।
9. इस क्षेत्र में धातु के कछुए व मूर्ति भी रखना शुभ रहता है।
10. ऊंची उड़ान भरते पक्षी की तस्वीर भी शुभ रहती है।
11. विभिन्न टंकों पर पूर्ण एयर टाइट ढक्कन लगे होने चाहिए। ऐसा करने पर ऋणात्मक दिशा में होने पर उनके ऋणात्मक प्रभाव में कमी आती है।
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