कब बनता है कालसर्प योग?
कब बनता है कालसर्प योग?

कब बनता है कालसर्प योग?  

व्यूस : 7652 | अप्रैल 2009
कब बनता है कालसर्प योग? डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव जन्म कुंडली में सभी ग्रह जब राहु और केतु के बीच में आ जाते हैं तो इस ग्रह स्थिति को कालसर्प योग कहते हैं। राहु को सर्प का मुंह तथा केतु को उसकी पूंछ कहते हैं। काल का अर्थ मृत्यु है। यदि अन्य ग्रह योग बलवान न हों, तो कालसर्प योग से प्रभावित जातक की मृत्यु शीघ्र हो जाती है या फिर जीवित रहने की अवस्था में उसे मृत्युतुल्य कष्ट होता है। इसके अतिरिक्त यह योग अपयशकारक एवं संताननाशक होता है। यह दोष नहीं योग है कालसर्प योग के बारे में वर्तमान में अनेक मान्यताएं हैं। क्या केवल सभी ग्रहों के राहु और केतु के मध्य आने से ही यह योग बनता है? या किसी एक ग्रह के बाहर रहने पर भी बनता है? केतु भ्रमण की दिशा में राहु और केतु के मध्य सभी ग्रहों के आने पर कालसर्प योग अधिक दुष्प्रभावी होता है। इसके फलस्वरूप जातक के जीवन में आत्मनिर्भरता और स्थिरता की कमी रहती है और उसे जीवनपर्यंत संकटों का सामना करना पड़ता है। यह आवश्यक नहीं कि कालसर्प योग हमेशा अशुभ ही हो। कालसर्प योग युक्त कुंडली वाले अनेकानेक जातक सफलता के शीर्ष पर पहुंचे हैं। सर्प का संबंध: भारतीय संस्कृति में सर्प को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। कथा है कि एक बार महर्षि सुश्रुत ने भगवान धन्वन्तरि से पूछा-‘भगवन! सर्पों की संख्या और उनके भेद बताएं।’ वैद्यप्रवर धन्वन्तरि ने कहा वासुकि जिनमें श्रेष्ठ है, ऐसे तक्षकादि सर्प असंख्य हैं। ये सर्प अंतरिक्ष एवं पाताल लोक के वासी हैं, परंतु पृथ्वी पर पाए जाने वाले नामधारी सर्प अस्सी प्रकार के हैं। भारतीय वांघ्मय में सर्पों की पूजा का उल्लेख है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प को मारना उचित नहीं है। इन्हीं मान्यताओं के अनुसार यत्र-तत्र उनके मंदिर बनाए जाते हैं। ज्योतिष में नागपंचमी के दिन और भाद्रकृष्ण अष्टमी तथा भाद्रशुक्ल नवमी को सर्पों की विशेष पूजा का विधान है। पुराणों में शेषनाग का उल्लेख है जिस पर विष्णु भगवान शयन करते हैं। सर्पों को देव योनि का प्राणी माना जाता है। नए भवन के निर्माण के समय नींव में सर्प की पूजा कर चांदी का सर्प स्थापित किया जाता है। वेद के अनेक मंत्र सर्प से संबंधित हैं। शौनक ऋषि के अनुसार जिस मनुष्य की धन पर अत्यधिक आसक्ति होती है, वह मृत्यु के बाद नाग बनकर उस धन पर जा बैठता है। सर्प कुल के नाग श्रेष्ठ होते हैं। नाग हत्या का पाप जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोड़ता। नागवध का शाप संतान सुख में बाधक होता है। शाप से मुक्ति के लिए नाग का विधिवत् पूजन करके उसका दहन किया जाता है तथा उसकी भस्म के तुल्य स्वर्ण का दान किया जाता है। शास्त्रों में सर्प को काल का पर्याय भी कहा गया है। मनुष्य का जीवन और मरण काल के आधीन है। काल सर्वथा गतिशील है, यह कभी किसी के लिए नहीं रुकता। काल प्राणियों को मृत्यु के पास ले जाता है और सर्प भी। कालसर्प योग संभवतः समय की गति से जुड़ा हुआ ऐसा ही योग है जो मनुष्य को परेशान करता है तथा उसके जीवन को संघर्षमय बना देता है। राहु और केतु का संबंध: पौराणिक मत के अनुसार राहु नामक राक्षस मस्तक कट कर गिर जाने पर भी जीवित है और केतु उसी राक्षस का धड़ है। राहु और केतु एक ही शरीर के दो अंग हैं जो सूर्य और चंद्र को ग्रहण के समय ग्रस कर सृष्टि में भय फैलाते हैं। विक्रम की 16वीं शताब्दी में मानसागर नामक एक विद्वान हुए जिन्होंने फलित ज्योतिष के पूर्वाचार्यों के श्लोंको को संकलित कर ‘मान सागरी’ नामक सुंदर ग्रंथ की रचना की। उन्होंने ग्रंथ के अध्याय 4, श्लोक 10 में अरिष्ट योगों पर चर्चा करते हुए लिखा है- लग्नोच्च सप्तम स्थाने शनि-राहु संयुतौ। सर्पेण बाधा तस्योक्ता शय्यायां स्वपितोपि च।। अर्थात् सप्तम स्थान में शनि, सूर्य व राहु की युति हो, तो पलंग (शय्या) पर सोते हुए व्यक्ति को भी सांप काट जाता है। फलित ज्योतिष पर निरंतर अध्ययन अनुसंधान करने वाले आचार्यों ने देखा कि सर्प के मुख और पुच्छ अर्थात् राहु और केतु के मध्य अन्य सारे ग्रह स्थित हों, तो जातक का जीवन कष्टमय रहता है। कालसर्प से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य केंद्र त्रयगतै: सौम्ये पापैर्वा दल संज्ञकौ। कमान्या भुजंगारव्यौ शुभाशुभ फल प्रदौ। बृहत्पाराशर के अनुसार सर्प योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति कुटिल, क्रूर, निर्धन, दुखी, दीन एवं परभक्षी होता है। विषयाः क्रूरा निःस्वानित्यं दुखार्दिता सुदी नाश्च। परभक्षपान निरताः सर्वप्रभवा भवंति नराः।। महर्षि बादरायण, भगवान गर्ग, मणित्थ आदि ने भी जलयोग के अंदर सर्पयोग का उल्लेख किया है। बृहज्जातक नामसंयोग अध्याय 12 पृष्ठ 148 के अनुसार इस योग का उल्लेख वराहमिहिर ने भी अपने ग्रंथों में किया है। आगे चलकर ईसा की आठवीं शताब्दी में आचार्यों ने सर्प योग की परिभाषा में संशोधन किया। उन्होंने दिव्य गं्रथ ‘सारावली’ में स्पष्ट किया कि प्रायः सर्प की स्थिति पूर्ण वृत्त न होकर वक्र ही रहती है। अतः तीन कंेद्रों तक में ही सीमित सर्पयोग की व्याख्या उचित प्रतीत नहीं होती। उनका मानना था कि चारों केंद्र, क्रिया कंेद्र व त्रिकोणों से वेष्टित पाप ग्रह की उपस्थिति भी सर्प योग की पुष्टि करती है। एक पाश्चात्य विद्वान ने राहु और केतु नामक आंग्लगं्रथ के अध्याय 13 पृष्ठ 114 पर कालसर्पयोग की नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है। कुछ अन्य विशेष ज्ञातव्य तथ्यः Û कालसर्प योग के निर्माण में यूरेनस, नेप्च्यून व प्लूटो का कोई स्थान नहीं है। Û कई बार ऐसा होता है कि राहु और केतु के मध्य सातों ग्रह न आकर एक या एक से अधिक ग्रह उनके घेरे से बाहर रहते हैं। ऐसे में उस कुंडली पर कालसर्प योग की छाया बरकरार रहती है, इसलिए इसे आंशिक कालसर्प योग कहते हैं। इस योग की शांति भी अनिवार्य है। राहु के साथ मंगल, बुध, गुरु, शुक्र या शनि की युति अनिष्ट फलदायी होती है। इस युति से ग्रस्त कुंडली अशुभ व शापित मानी जाती है। चंद्र और केतु या राहु तथा सूर्य और केतु के युतिसंबंध कालसर्प योग की तीव्रता को पुष्ट करता है तथा पीड़ादायी होते हैं। वृष, मिथुन, कन्या और तुला इन लग्नों की कुंडलियों में कालसर्प योग हो, तो अपेक्षाकृत अधिक पीड़ादायी होता है। राहु के अष्टम में सूर्य हो तो आंशिक कालसर्प योग बनता है। इसी प्रकार चंद्र से राहु या केतु अष्टम स्थान में हों, तो आंशिक कालसर्प योग बनता है। राहु कुंडली के भाव 6, 8 या 12 में हो, तो आंशिक कालसर्पयोग बनता है। यदि कुंडली में कालसर्प योग हो तथा शुभ ग्रह राहु से पीड़ित हों अथवा राहु स्वयं पाप ग्रहों से पीड़ित हो, तो जातक को राहु की महादशा में कष्टों का सामना करना पड़ता है। राहु मिथुन या कन्या का हो, तो जातक अंधा होता है। यदि कालसर्प योग मिथुन या कन्या राशि में राहु द्वारा ग्रसित हो रहा हो तो अधिक पीड़ा देता है। कालसर्प योग में जन्मे व्यक्ति को राहु या केतु की दशा, अंतर्दशा अथवा गोचर में राहु का भाव 6, 8, या 12 में भ्रमण विशेष कष्ट देता है। सर्पवध के कारण जातक को असाध्य व जटिल रोग होते हैं। इससे मुक्ति के लिए नागबलि का विधान बताया गया है। रोग के लक्षण व प्रभाव: कालसर्प योग में जन्मे व्यक्ति को प्रायः बुरे स्वप्न आते हैं, जिनमें अक्सर सांप दिखाई पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त सपने में वह खुद को या दूसरों को सांप को मारते और टुकड़े करते देखता है। उसे नदी, तालाब, कुएं और समुद्र का पानी दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त उसे मकान, पेड़ों से फल आदि गिरते दिखाई देते हैं। वह खुद को पानी में गिरता और उससे बाहर निकलने का प्रयास करता देखता है। वह खुद को या अन्य लोगों को झगड़ते देखता है। साथ ही उसे विधवा स्त्रियां दिखाई देती हैं। वह यदि संतानहीन हो, तो उसे किसी स्त्री की गोद में मृत बालक दिखाई देता है। उसे नींद में शरीर पर सांप रेंगता महसूस होता है जबकि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता। छोटे बच्चे बुरे स्वप्न के कारण बिस्तर गीला कर देते हैं। ये सभी अशुभ स्वप्न कालसर्प योग के प्रभाववश आते हैं। कालसर्प योग के प्रत्यक्ष प्रभाव संतान सुख में बाधा, वैवाहिक जीवन में कलह, धन प्राप्ति में बाधा एवं मानसिक तनाव व अशांति के रूप में प्रकट होते हैं। कालसर्प योग जातक के जीवन से जुड़ी अन्य बातों के अलावा पूर्व जन्म के पापों को भी दर्शाता है। इस दृष्टि से एक शापित कुंडली एवं कालसर्प योग की कुंडली में समानता पाई जाती है। जन्मांग के किसी भाव में राहु के साथ किसी अन्य ग्रह के होने पर वह शापित होता है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र में 14 प्रकार के शाप बताए गए हैं जिनमें सर्पशाप, मातुलशाप, पितृशाप, सहोदर शाप, ब्राह्मणशाप, पत्नीशाप और प्रेतशाप प्रमुख हैं। भृगुसंहिता में महर्षि भृगु ने भी शापों का उल्लेख किया है। इन शापों से ग्रस्त लोगों की उन्नति नहीं होती और उन्हें उनके कर्म का वांछित फल नहीं मिलता। किसी कुंडली के शापित होने में काल सर्प योग की भूमिका अहम होती है। जिस प्रकार ग्रहणों का प्रभाव धरती के सभी जीवों पर पड़ता है, उसी प्रकार कालसर्प योग का प्रभाव भी उससे प्रभावित लोगों पर पड़ता है। यदि जन्म कुंडली में काल सर्पयोग हो, तो जातक को राहु की महादशा या अंतर्दशा में बुरे फल भोगने पड़ते हैं। गोचर भ्रमण में जब भी राहु अशुभ स्थिति में होता है, तब उसके अशुभ परिणाम जातक को भोगने पड़ते हैं। ेÛ यदि जन्म कुंडली के लग्न या सप्तम भाव में राहु या केतु हो तथा सप्तम, नवम्, दशम, एकादश एवं द्वादश भाव में अन्य ग्रह हों तो प्रकाशित कालसर्प योग होता है। राहु या केतु के दाईं या बाईं ओर सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ग्रह हों तो भी कालसर्प योग बनता है। राहु का चुंबकीय क्षेत्र दक्षिण और केतु का उŸार दिशा में है। यदि राहु और केतु के बीच लग्न एवं अन्य ग्रह हांे अथवा सात ग्रहों की युति में राहु और केतु भी वक्र गति में आते हों, तो कालसर्प योग होता है। यदि राहु से अष्टम भाव में शनि हो तो कालसर्प योग होता है। यदि जन्म कुंडली में चंद्र से राहु या केतु अष्टम भाव में हो, तो कालसर्प योग बनता है। यदि राहु या केतु कंेद्र (लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम) या त्रिकोण (लग्न, पंचम, नवम) में हो, तो कालसर्प योग बनता है। राहु और केतु के मुख में जब सभी ग्रह आ जाते हैं, तब कालसर्प योग बनता है। यदि कोई ग्रह समराशि में हो और वह नक्षत्र या अंशात्मक दृष्टि से राहु से दूर भी हो, तो इस स्थिति में भी कालसर्प योग बनता है। किंतु कालसर्प योग की कुंडली में चंद्र से केंद्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम भाव) में गुरु और बुध से केंद्र में शनि हो, तो जातक को पर्याप्त ऐश्वर्य और धन की प्राप्ति होती है। वह धर्मपरायण होता है और अध्यात्म में उसकी रुचि होती है। वह अपने शत्रुओं को भी शरण देता है। उसकी आंखों में एक खास चमक होती है, जिससे वह किसी को भी सहज में ही आकर्षित कर लेता है। उसकी हर कामना पूरी होती है, किंतु वह सदैव असंतुष्ट रहता है। परिवार के सदस्यों के प्रतिकूल व्यवहार के कारण वह दुखी और परेशान रहता है। इस योग से प्रभावित लोग यदि योग्य पंडित के मार्गदर्शन में तंत्र-मंत्र की साधना करें, तो दोषों से मुक्ति मिल सकती है। कालसर्प योग की कुंडली में शनि और सूर्य या शनि और मंगल की युति हो तथा राहु या केतु का शनि, मंगल या सूर्य के साथ कोई योग बनता हो, तो जातक का जीवन संघर्षों से भरा रहता है। उसे विद्यार्जन, नौकरी तथा व्यवसाय में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसे पत्नी तथा संतान का पर्याप्त सुख नहीं मिल पाता। उसके मित्र तथा रिश्तेदार उसका साथ नहीं देते। निवारणार्थ सुझाव कालसर्प योग के बुरे प्रभाव से बचने के लिए शिव उपासना, शिव शक्ति कवच स्तोत्र का पाठ एवं शिव के मंत्रों का जप करना चाहिए। साथ ही महामृत्यंुजय मंत्र का जप, रुद्राभिषेक, भगवान गणपति की पूजा एवं गणपति स्तोत्र, हनुमान कवच स्तोत्र और बजरंग बाण का पाठ भी करना चाहिए।



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