सुखद दांपत्य जीवन के लिए शुभ लग्न में विवाह करना जरूरी दिलीप कुमार दाम्पत्य जीवन में मधुरता, स्थिरता और सफलता के लिए विवाह लग्न अति महत्वपूर्ण और सर्वथा ग्राह्य कारक है। बहुधा अन्य कारकों का आकलन किए बिना पंचांग में विवाह मुहूर्त सारणी देखकर विवाह की तारीख निश्चित कर दी जाती है, जो सर्वथा गलत है। अन्य कारक भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि विवाह मुहूर्त सारणी, इसलिए उनका भी आकलन अवश्य किया जाना चाहिए। 24 घंटे में बारह लग्न होते हैं और प्रत्येक लग्न लगभग दो घंटे का होता है। वस्तुतः ‘लग्न’ मुहूर्त का परमावश्यक अंग है। जन्म समय की ग्रह स्थिति को हम बदल नहीं सकते, लेकिन शुभ समय में किसी कार्य को आरंभ करके सफलता पाना संभव है। मुहूर्त के आठ अंगों में सर्वाधिक फल ‘लग्न’ को प्राप्त है। इन आठ अंगों में तिथि फल को एक गुणा, नक्षत्र फल को चार, वार को आठ, करण को सोलह, योग को बŸाीस, तारा को साठ, चंद्र को सौ और लग्न को एक हजार गुणा महत्व प्राप्त है। इसीलिए विवाह के लिए मुहूर्त प्रकरण में लग्न का निर्धारण और उसका अनुपालन आवश्यक है। विवाह के उपरांत दो व्यक्ति एकात्म होकर गृहस्थ जीवन में पदार्पण करते हैं। शुभ विवाह लग्न का अर्थ है, शुभ समय में गृहस्थ जीवन को प्रारंभ करने का अनुष्ठान ताकि जीवन रूपी समर को बखूबी जीता जा सके। कहा जाता है कि कनिष्ठ पांडव भ्राता सहदेव ने महाभारत युद्ध शुरू करने का मुहूर्त निर्धारित किया था। तदनुसार युद्ध का शंखनाद हुआ और जीत पांडव की हुई। ध्यातव्य है कि पांडव में सभी भ्राता को किसी न किसी क्षेत्र में महारत हासिल थी। युधिष्ठिर सत्यवादी थे तो भीम महाबली, अर्जुन धनुर्धर थे तो नकुल पशु चिकित्सक और सहदेव मुहूर्त शास्त्र के ज्ञाता। आशय यह कि वे सभी महत्वपूर्ण कार्य, जिनका प्रभाव हमारे संपूर्ण जीवन काल, घर-परिवार और समाज पर पड़ता है, शुभ समय में करने चाहिए। समाज और रिश्तेदारों को भी दो आत्माओं को दाम्पत्य सूत्र में शुभ लग्न में बंधने में सहयोग करना चाहिए। पाया गया है कि जन्मपत्री में दाम्पत्य सुख बाधा हो या नहीं, यदि विवाह लग्न दोषपूर्ण हो, तो दाम्पत्य जीवन कष्टमय होता है। इसलिए शुभ समय में विवाह करना श्रेष्यकर है। विवाह लग्न निर्धारण संबंधी निम्नांकित मुख्य तथ्य विचारणीय है। लग्न- दीर्घ और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ स्थिर लग्न में वैवाहिक अनुष्ठान सम्पादित करना चाहिए। वर-कन्या की जन्म राशि या जन्म लग्न से लग्न 3, 6, 10 या11 शुभ माना जाता है। जन्म-लग्न या जन्म राशि से चतुर्थ, अष्टम या द्वादश लग्न अशुभ माना जाता है। विशेषतः अष्टम राशि दोष ही चिंतनीय है, अतः शुभ युत अष्टम भी त्याज्य है। वैसे, इसके परिहार भी होते हैं जिनका विवरण यहां प्रस्तुत है। लग्न से अष्टम राशि 2, 4, 6, 8,10 या 12 होने पर दूषित नहीं होती। लग्न से अष्टम राशि का स्वामी केंद्र या शुभ स्थान में स्थित हो, तो वह दोष का परिहार कर देता है। अष्टमेश अपने शुभ नवांश, स्वराशि या मित्र राशि में हो तो अष्टम लग्न दोष दूर हो जाता है। त्रिबल शु(ि- गुरु बल- गुरु जन्म राशि से राशि 2, 5, 7, 9 या 11 में हो तो ठीक है। विवाह कार्य में जन्म राशि व लग्न को महत्व दिया गया है। जन्म राशि ज्ञात न होने पर नाम राशि का प्रयोग होना चाहिए। गुरु जन्म राशि से 1, 2, 3, 6, 10 पूज्य है। 4,8,12 स्थानस्थ ठीक नहीं है, किंतु स्वराशि या उच्च का होने पर ग्रहण नहीं होता। आवश्यक होने पर पूजा दान कर और शांति पाठ कराकर विवाह किया जा सकता है, किंतु यदि किसी की जन्म कुंडली संतान के लिए अच्छी नहीं है तो विवाह पूज्य दोष होने पर नहीं करना चाहिए। कन्या के लिए गुरु बल आवश्यक है। सूर्य बल- जन्म राशि से राशि 3, 6, 10 या 11 में स्थित सूर्य अच्छा है, राशि 1, 2, 5, 7 या 9 में हो तो पूज्य है। वर के लिए सूर्य बल आवश्यक है। पूज्य होने पर विवाह नहीं किया जाता, किंतु यह समय एक माह का होता है, त्यागा जा सकता है। राशि 4, 8 या 12 में स्थित सूर्य अच्छा नहीं है। चंद्र बल- जन्म राशि से राशि 1, 2, 3, 5, 6, 7, 9, 10 या 11 में स्थित चंद्र श्रेष्ठ है। 12वां चंद्र पूज्य है, जबकि राशि 4 या 8 में हो तो स्थित खराब है। आवश्यकता पड़ने पर 12 वां चंद्र ग्रहण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विवाह लग्न में कर्तरी दोष का विश्लेषण भी किया जाता है। लग्न से द्वितीय में वक्री ग्रह और लग्न से 12वें में मार्गी ग्रह हों तो कर्तरी दोष होता है। इस दोषयुक्त लग्न में विवाह कार्य संपादित होने से दाम्पत्य जीवन प्रभावित होता है। जन्म से 12 वें स्थान में वक्री पाप ग्रह और द्वितीय में मार्गी पाप ग्रह होने से कर्तरी दोष नहीं होता। विवाह लग्न में चंद्र भी कर्तरी दोष से मुक्त हो तो और अच्छा है। कहा गया है कि विवाह लग्न में चंद्र यदि सूर्य से युक्त हो तो दारिद्र्य, मंगल से युक्त हो तो मरण, बुध से युक्त हो तो शुभ, बृहस्पति से युक्त हो तो शुभ, शुक्र से युक्त हो तो शत्रुता, शनि से युक्त हो तो वैराग्य तथा राहु से युक्त हो तो अशुभ फल देता है। मुहूर्Ÿामार्तण्ड के अनुसार राशि 1, 4, 5, 9 या 10 में बुध हो तो एक सौ, शुक्र हो तो दो सौ, तथा गुरु हो तो एक लाख दोषों का नाश होता है। यह तथ्य भी विवाह लग्न की महŸाा को उजागर करता है। जन्म राशि या जन्म लग्न में विवाह अशुभ माना जाता है, परंतु यदि जन्म राशि और जन्म लग्न का स्वामी एक हो अथवा दोनों में परस्पर मित्रता हो, तो यह दोष नहीं लगता। विवाह में ज्येष्ठ वर, ज्येष्ठ कन्या और ज्येष्ठ मास त्याज्य हंै अर्थात् ज्येष्ठ मास में ज्येष्ठ वर का ज्येष्ठ कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए। एक ज्येष्ठ में दोष नहीं लगता। उŸाराफाल्गुनी नक्षत्र त्याज्य कहा गया है। इस नक्षत्र में सीता का विवाह हुआ, किंतु उन्हें वैवाहिक सुख की प्राप्ति नहीं हुई। नक्षत्र सम्राट पुष्य भी त्याज्य कहा गया है। विवाह लग्न में ग्रहों की निम्न स्थिति विघ्नकारक एवं त्याज्य है- लग्नेश भाव 6, 8 या 12 में, सूर्य 1 या 7 में, चंद्र 1, 6, 7, 8 या 12 में, मंगल 1, 7, 8 या 10 में, बुध 7 या 8 में, शुक्र 3, 6, 7 या 8 में, शनि 1, 7 या 12 में औ राहु 1 या 7 में। यदि हम लग्न शुद्धि, चंद्र शुद्धि और मुहूर्Ÿामार्तण्ड की बुध, शुक्र और गुरु की स्थिति प्राप्त कर लें तो विवाह उŸाम हो। गुरु व शुक्र के अस्त होने पर विवाह त्याज्य बताया गया है। जिस तरह कन्या के विवाह के लिए गुरु बल आवश्यक है, उसी तरह वर के विवाह के लिए शुक्र बल आवश्यक है। कुछ लोग कहते हैं कि सब समय ईश्वर का बनाया हुआ है, अतः सब ठीक है। लेकिन विचारणीय है कि संपूर्ण सृष्टि ईश्वर की ही बनाई हुई है, फिर भी इसमें सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष हैं, अच्छे और बुरे लोग, दैवी और दानवी तत्व हैं। कुल मिलाकर, यदि शुभ जीवन की अभिलाषा हो तो विवाह शुभ लग्न युक्त समय में करें।