विनय शक्ति की शोभा है... किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में शक्ति के साथ-साथ विनय की भूमिका भी अहम होती है। विनय हो तो शक्ति की शोभा स्वयमेव बढ़ जाती है। यह तथ्य हम पिछले अंक में महावीर हनुमान के ऋण से मुक्ति के प्रसंग में देख चुके हैं। उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए इस अंक में विनय की महिमा के साथ-साथ पाठकों के लाभार्थ उन पावनस्थलों का वर्णन प्रस्तुत है जहां पवनदेव के 49 रूपों अर्थात मरुतों ने हनुमान द्वारा प्रदत्त पुष्प गिराए...ष्
़ऋण से मुक्ति हेतु उपायों के क्रम में महावीर हनुमान ने माता के आदेषानुसार सभी ग्रहों, देवी देवताओं, गंधर्वों, यक्षों, किन्नरों, दैत्यों, असुरों, सभी शक्तियों, ऋषि-मुनियों, महाविद्याओं, शास्त्रों, तत्वों, इंद्रियों, जीव-जंतुओं आदि के साथ-साथ अपने पिता पवनदेव के 49 रूपों अर्थात मरुतों तथा भगवान भास्कर को भी श्रद्धा-भक्तिपूर्वक दिव्य पुष्प अर्पित किए। उन मरुतों ने उसी भक्तिभाव से तीनों लोकों के सभी प्राणियों, प्रकृति तत्वों आदि को वे सारे पुष्प प्रदान कर दिए। महावीर हनुमान को वरदान देकर दिव्य पुष्पों से लदे हुए तथा दिव्य सुगंधि की मादकता से उन्मŸा अटपटी चाल से जा रहे सूर्य देव को पवन देव और पवन पुत्र कुछ देर तक आनंदपूर्वक देखते रहे। फिर उनके आंखों से ओझल होने के उपरांत वायु देव ने हनुमान जी से कहा, ‘‘देखो वत्स! तुम्हारे दिए हुए पुष्पों का कैसा अद्भुत प्रभाव पड़ा सूर्य देव पर?’’ हनुमान जी विनीत भाव से बोले, ‘’ये मेरे शिक्षा गुरु हैं। मुझ पर सदैव इनकी कृपा रही है।’’ पवन देव ने झट कहा, ‘‘तुम्हारा इनसे एक संबंध और भी है। तुम जिन वानर राज सुग्रीव के मंत्री हो, ये उनके पिता हैं।’’ ‘‘इसीलिए तो सूर्य नारायण मेरे पूज्य हैं।’’ ‘‘तुम बड़े भाग्यशाली हो पुत्र! अब तुम अपना शेष कार्य पूरा करो और मुझे विदा करो। मुझे बहुत बड़ा काम करना है। जिन-जिन देवी-देवताओं, शक्तियों और सिद्धियों को तुमने पुष्पांजलि अर्पित की है, उन सभी ने अपने पुष्प मुझे देकर सर्वत्र बिखेरने की प्रार्थना की है। यह कार्य मुझे करना है।’’ ‘‘कष्ट के लिए क्षमा चाहता हूं।’’े ‘‘इसमें मुझे कष्ट नहीं आनंद होगा वत्स, क्योंकि तुम्हारे ये पुष्प जहां-जहां गिरेंगे, वहां-वहां अपूर्व चमत्कार उत्पन्न करेंगे।’’ ‘‘वह चमत्कार मेरे कारण नहीं, आपके स्पर्श के कारण होगा।’’ ‘‘तुम्हारी यही विनम्रता तुम्हारी शक्ति की शोभा है। शक्ति के साथ विनय हो, तो क्या कहना। जब कोई तुम्हें पवन पुत्र कहकर संबोधित करता है, तब मैं गद्-गद् और धन्य हो जाता हूं।’’ हनुमान जी ने उनकी परिक्रमा की और चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। फिर कल्याणमस्तु कहकर पवन देव उड़ चले। पुष्प गिराने में मरुतों ने उŸार-दक्षिण या पूर्व-पश्चिम दिशा को नहीं देखा। उन्होंने उदारतापूर्वक समस्त धरा पर फूल बरसाए। भारत वर्ष के कुछ स्थानों पर गिरे इन दिव्य पुष्पों ने अद्भुत प्रभाव दिखाया। इनमें एक प्रमुख स्थान है आसाम कामरूप। यह एक प्रसिद्ध तंत्रपीठ है जहां मा कामाख्या विराजमान हैं। इन पुष्पों से प्रभावित भारत के कुछ और भी स्थल उल्लेखनीय हैं, जैसे नाभि सरोवर मांगलियावास, वृन्दावन, यमुनातट, नारायण, भैराणा, भुवनेश्वर, कोणार्क, तिरुपति, पुरी, रजरप्पा आदि। मांगलियावास: इसका उपाख्यान बड़ा रोचक है। कहते हैं, एक बार ब्रह्माजी भूमंडल पर पधारे और एक रमणीक स्थान देखकर उन्होंने वहां यज्ञ करने का संकल्प किया। ब्रह्माजी का संकल्प पूरा होने में देर कैसे लगती। ऋषि-मुनि और सभी देव गण तत्काल उपस्थित हो गए। बात की बात में यज्ञ की सारी सामग्री भी जुट गई। यज्ञ-कार्य में पत्नी का होना बहुत आवश्यक है। अतः ब्रह्माजी ने सरस्वती को आने के लिए कहलाया, किंतु सरस्वती किसी कारणवश समय पर नहीं पहुंच सकीं। यज्ञारंभ का मुहूर्त टलता देखकर आचार्यों की अनुमति से ब्रह्माजी ने गायत्री नाम की एक गोप कन्या से विवाह कर लिया और उसे साथ बैठाकर यज्ञ-कार्य संपन्न किया। ब्रह्माजी तथा उनकी नवविवाहित पत्नी गायत्री देवी के यज्ञ पूर्व और यज्ञोपरांत में स्नानार्थ एक जलाशय यहां बनाया गया था। उसमें दोनों ने स्नान किया और उसी के जल से देवताओं को अघ्र्य आदि दिया। आए हुए सब ऋषियों तथा देवताओं ने भी उसमें स्नान किया। आज वही जलागार पुष्कर का नाभि सरोवर कहलाता है। यज्ञ-कार्य संपन्न होने के उपरांत, ब्रह्माजी और गायत्री देवी ने जिस स्थान पर प्रथम रात्रि व्यतीत की, वह मंगलवास के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालांतर में वही मंगलवास अपभ्रंश रूप में मांगलियावास कहलाया। यहां पर ब्रह्माजी और गायत्री देवी के प्रथम रात्रि-निवास के फलस्वरूप दो कल्पवृक्ष उत्पन्न हुए जिनमें से एक राजा कल्पवृक्ष और दूसरा रानी कल्पवृक्ष के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी कामना की पूर्ति के लिए अपनी सामथ्र्य के अनुसार निष्ठापूर्वक यहां पूजा-आराधना करता है, तो उसकी कामना अवश्य पूर्ण होती है। कुछ स्थल ऐसे भी हैं, जो पहले से ही विशिष्ट महत्व वाले हैं। इन पर जब दिव्य पुष्प गिरे, तब इनकी महिमा और अधिक हो गई। मोक्षदायिनी सात पुरियां अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारिका इनमें प्रमुख हैं। इन सप्त पुरियांे पर जब पवन देव ने हनुमान जी द्वारा अर्पित पुष्प गिराए, तब ये अत्यधिक उद्दीप्त हो गईं। इनकी शोभा देखते ही बनती थी। कुछ समय बाद देवेच्छा से वायु के झोकों ने अन्य 6 पुरियों के पुष्प उड़ाकर मायापुरी पर बिखेर दिए। फिर मायापुरी की उन्मŸाता का क्या कहना। अपनी उन्मत्तता के वशीभूत अपनी सुध-बुध खोकर वह मदमाती धरती पर न टिक सकी और पृथ्वी के गर्भ में समा गई और कालांतर में रत्नाकर सागर के तट पर प्रकट हुई। दिव्य पुष्पों के प्रभाव से वह भूमि अत्यंत मनोहर थी। शीघ्र ही वहां एक बस्ती बस गई। मायापुरी से उŸाम होने के कारण उस बस्ती को लोग दैव प्रेरणा से मायापुरी कहने लगे। समय बीतता गया और वह छोटी बस्ती उŸारोŸार विशाल होती गई, साथ ही भाषा के परिवर्तन से उसके नाम में भी परिवर्तन होता गया और आज यह नगरी मुंबई के नाम से जानी जाती है। तीन ओर से सागर से घिरे होने के कारण इसे पुण्यदायक कपिल क्षेत्र भी कहा जाता है। यहां असाध्य साधना के लिए भी साधक को सभी प्रकार के साधन समुचित रूप में सुलभ हो जाते हैं। कुछ लोग आसाम के कामरूप प्रदेश को मायापुरी मानते हैं, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। यहां भगवती दुर्गा के वाहन सिंह का सर्वाधिक ओजस्वी स्वरूप स्थित है। नारायण-भैराणा: ये दोनों स्थान जयपुर से लगभग 70-80 किलो मीटर दूर स्थित हैं। यहां पर भी वायु देव के द्वारा गिराए गए दिव्य पुष्पों का प्रभाव परिलक्षित होता है। रजरप्पा: झारखंड के हजारीबाग जिले में रामगढ़ कैंट से 30 से 35 किलो मीटर दूर स्थित इस दिव्य स्थल पर एक ओर से महानद दामोदर आकर पहाड़ की तलहटी से टकराता है और दूसरी ओर से, कहीं पतली कहीं मोटी किंतु अत्यंत तेज धारा वाली भैरवी नदी से मिलता है। यह स्थल तंत्र घाट के नाम से प्रसिद्ध है। इस तंत्र घाट का इतिहास बहुत प्राचीन है। मार्कण्डेय पुराण में उल्लेख है कि महर्षि मेधा ने राजा सुरथ और समाधि नामी वैश्य को जब भगवती महामाया तथा दुर्गा देवी के प्राकट्य की कथा सुनाई थी, उससे बहुत पहले ही यह तंत्रघाट अवस्थित था। तब यह भगवती छिन्नमस्ता तथा महाकाल का सिद्ध क्षेत्र कहलाता था। तंत्रघाट की अलौकिकता आज भी विद्यमान है। यह नित्य चैतन्य एवम् जाग्रत है। यहां आने पर भक्तों को असाधारण चमत्कार की अनुभूति होती है। यहां की एक विशेषता यह है कि देवी को चढ़ाई गई बलि पर मक्खियां नहीं बैठतीं, चाहे जितना समय बीत जाए। यहां पर की गई मनौती आशु फलवती होती है और भगवती अपने भक्त की प्रत्येक कामना पूर्ण करती हंै। इस तरह श्री हरि के समान उनकी प्रकृति भी अनंत है। इसका पूरा ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य के वश की बात नहीं है। इसका पूर्ण ज्ञान तो इसके स्वामी श्री हरि को ही है। इसी प्रकृति के क्रोड़ में स्थित उक्त दिव्यस्थल अपनी दैवीय शक्ति और नैसर्गिक छटा के कारण समस्त विश्व में प्रख्यात हैं। इन दिव्य स्थलों में आकर निष्ठापूर्वक साधना उपासना करने वाले साधकों की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।