देवमूर्तियों का निर्माण करते समय यह ज्ञान होना अति आवश्यक है कि जिस शिला से हम देवमूर्ति का निर्माण करने जा रहे हैं वह शुभ है अथवा अशुभ तथा देवता अथवा देवी के निर्माण योग्य शिला का क्या लक्षण है? इस ज्ञान पिपासा की तृप्ति देवता मूर्ति प्रकरण का अध्ययन करने से होती है। यह लेख शिला परीक्षा एवं प्रतिमा प्रमाण से संबंधित है।
सूत्रधार मंडन के अनुसार जाति भेद से तीन प्रकार की शिला होती हैं -
1. पुंशिला
2. स्त्रीशिला
3. नपुंसकशिला
1. पुंशिला: ‘एकवर्णा घना स्निग्धा मूलाग्रादार्जवान्विता। अजघंटारवाघोषा सा पुंशिला प्रकीर्तिता।।’
2. स्त्रीशिला: ‘स्थूलमूला कृशाग्रा या कांस्यतालसमध्वनिः।’
3. नपुंसकशिला: ‘कृशमूलाऽग्रस्थूला शिला षण्ढेति निःस्वना।’
सूत्रधार मंडन का यह विवेचन ‘मयमतम्’ से अत्यधिक प्रभावित है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि इस वर्णन का आधार मयमतम् ही है। मयमतम् में पुरुष जाति की शिला के लक्षण में ‘अजघण्टारव’ के स्थान पर ‘गजघण्टारव’ का प्रयोग किया गया है। घण्टारव अर्थात् हाथी की पीठ पर लटकते हुए घण्टे जैसी शब्द वाली। मयमतम् व देवतामूर्ति प्रकरण में कांसे के घण्टे जैसे आवाज वाली शिला को स्त्री जाति की शिला कहा गया है जबकि अग्निपुराण में उक्त ध्वनि वाली शिला पुरुषजाति की शिला कही गयी है। यथा - ‘कांस्यघण्टानिनादा स्यात्पुलिंगा विस्फुलिंगका’। मयमतम् में स्त्रीशिला का उल्लेख इस प्रकार है- ‘स्थूलमूला कृशाग्रा या कांस्यतालसमध्वनिः’ यहां भी स्पष्ट है कि मयमतम् और सूत्रधार मंडन के स्त्रीशिला लक्षण में आकृति एवं ध्वनि दोनों में ही समानता है। ‘मानसार अध्ययन’ में भी जाति भेद से तीनों ही प्रकार की शिलाओं का वर्णन मिलता है।
आकृति भेद की दृष्टि से देखा जाये तो मानसार अध्ययन के मतानुसार भी समान आकार वाली पुंशिला तथा मूल में स्थूल तथा अग्रभाग में कृश स्त्रीशिला कहलाती है। किंतु नपुंसक शिला के विषय में कुछ मतभेद है। सूत्रधार मंडन के अनुसार तो मूल में कृश और अग्र में स्थूल शिला नपुंसक होती है जब कि मानसार अध्ययन के मत में मूल और मध्य में स्थूल तथा अग्र भाग में कृश नपुंसक शिला होती है - ‘स्थूलाग्रं च कृशं मध्यं स्थूलं नपुंसकं शिला।’ मानसार अध्ययन में समान्य लक्षण की दृष्टि से समचोरस-पुंशिला, गोल स्त्रीशिला तथा अत्यधिक गोल या बहुशाखा वाली नपुंसकशिला कही गयी है यथा - ‘चतुरस्रं पुंशिला प्रोक्तं वृत्तं स्याद् वनिताशिला। बहुधा चाग्रश्रृङ््रगं स्यान्नपुंसकं तमुदाहृतम्।। काश्यपशिल्प में भी प्रकारांतर से इसी मत की पुष्टि की गई है - चतुरस्रा च वस्वस्रा स्त्रीशिलेति प्रकीर्तिता। आयतास्रा च वृत्ता च दश- द्वादश कोणका।। पुंशिला सा शिला ख्याता सुवृत्ता सा नपुंसका।
मानसार अध्ययन में रत्न के बरतन जैसी आवाज वाली पुरुषशिला कही गई है। जबकि सूत्रधारमंडन के अनुसार बकरी के गले में बंधी घंटी जैसी ध्वनि वाली पुंशिला होती है। स्त्रीशिला एवं नपुंसकशिला का ध्वनि लक्षण दोनों में समान है। मानसार अध्ययन में ध्वनि के आधार पर शिलाओं को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। ‘तालध्वनिनिनादं स्याच्छिला वल्ली प्रकीर्तिता। महिषध्वनिसंयुक्ता शिला वृक्षा प्रकीर्तिता।। पूर्वोक्तार्थ ध्वनिनादं बावना च शिला भवेद्।’ इसी प्रकार काश्यप शिल्प (अ. 49) मयमतम् (अ. 33) और अग्नि पुराण में शिला बाला, यौवना व वृद्धा के नाम से अभिहित है। जाति भेद के आधार पर ही सूत्रधार मण्डन ने शिलाओं का कार्यभेद भी किया है अर्थात् पुल्लिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग की शिला के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। सूत्रधार के अनुसार पुंशिला का कार्य इस प्रकार है: ‘लिंगानि प्रतिमामिश्रं कुर्यात् पुंशिलया बुधः।’ अर्थात् शिवलिंग एवं देवों की मूर्तियों का निर्माण पुरुष जाति की शिला से करना चाहिए। लिंग तीन प्रकार के होते हैं -निष्कल, सकल और मिश्र जैसा कि मयमतम् में कहा गया है- निष्कलं सकलं मिश्रं लिंगश्चेति त्रिधा मतम्। निष्कलं लिंगमित्युक्तं सकलं बेरमुच्यते।।
मुखलिंगतया मिश्रं लिंगञ्चाकृतिसन्निभैः। बिम्बमूर्तिः शरीराभा विश्वमूर्तिस्वरूपकैः।। मयमतम् के मतानुसार त्रिविध लिंगों का निर्माण पुंशिला से करना उपयुक्त है। ‘सकलं निष्कलं मिश्रं कुर्याद् पुंशिलया सुधीः’ मंडन ने भी ‘लिंगानि’ से त्रिविध लिंड.ों की ओर ही संकेत किया है। जबकि काश्यपशिल्प में त्रिविध लिंगों का नामोल्लेख न करते हुए केवल ‘पुंशिलाभिः कृतं लिंगम्’ इतना ही कहा गया है। मंडन मतानुसार देवीमूर्ति के निर्माण में स्त्री जाति की शिला का प्रयोग किया जाना चाहिए। ‘युंजीयात् स्त्रीशिंला सम्यक् पीठिका-शक्तिमूत्र्तयः’ पीठिका का तात्पर्य गौरी पीठ से है काश्यपशिल्प में कहा गया है कि पीठार्थ स्त्रीशिला का ग्रहण श्रेष्ठ होता है। मयमतम् के अनुसार भी देवी की मूर्तियों के निर्माण हेतु स्त्री जाति की शिला ही उपयुक्त होती है। यथा- ‘युंजीयात् स्त्री शिला सम्यक् नारी बेरंच पिण्डिका।’ स्पष्टतः सूत्रधार ने भी प्रकारांत से इसी मत को पुष्ट किया है। सूत्रधार ने नपुंसक जाति की शिला की उपयोगिता का वर्णन इस प्रकार किया है- षण्ढोपलेन कत्र्तव्यं ब्रह्मकूर्मशिले तथा। प्रासादतलकुण्डादि कर्म कुर्याद् विचक्षणः।। प्रतिमा के नीचे स्थापनीय शिला पादशिला कहलाती है।
इसके दो भेद है - ब्रह्मशिला और कूर्मशिला। मत्स्यपुराण में इसका विवेचन इस प्रकार है- अधः कूर्मशिला प्रोक्ता सदा ब्रह्मशिलाधिका। उपर्यवस्थिता तस्या ब्रह्मभागाधिका शिला।। अर्थात् मंदिर के गर्भगृह के खनन मुहूर्त के समय स्थापित की जाने वाली कूर्म चिन्ह युक्त शिला कूर्मशिला कहलाती है तथा इस शिला के ऊपर रखी जाने वाली शिला ब्रह्मशिला कहलाती है। अतः ब्रह्मकूर्मशिला तथा प्रसादतलकुण्डादि का निर्माण नपुंसकशिला से करना चाहिए। मयमतम् का भी यही मत है। यथा- ‘षण्ढोपलेन कत्र्तव्यं ब्रह्मकूर्मशिले तथा। नन्द्यावत्र्तशिले वापि कत्र्तव्या तेन चाऽऽत्मना।। प्रासादतलकुडयादि कर्म कुर्याद् विचक्षणः।’ यहां स्पष्ट है कि सूत्रधार मंडन और मयमतम् के मत में ही नहीं अपितु श्लोकों में भी अत्यधिक समानता है। सारांशतः पुरुष जाति की शिला से देव मूर्तियों का स्त्रीशिला से देवी की मूर्तियों का तथा नपुंसक जाति की शिला से प्रासादतलकुड्यादि का निर्माण करना चाहिए। देवमूर्तियों का निर्माण करते समय भूमि पर स्थित शिला की दिशा स्थिति पर ध्यान देना परमावश्यक होता है। अर्थात् निर्माणकाल के समय यह विचारणीय है कि शिला का अग्र भाग एवं मूल भाग किस दिशा में है।
इसके आधार पर ही मूर्ति के मुख, पैर एवं अन्य अंगों का निर्माण किया जाता है। इस विषय में अधिकांश शिल्प शास्त्रकारों का मत है कि शिला का अग्र भाग पूर्व या उत्तर में तथा मूल भाग दक्षिण या पश्चिम में होता है तथा भूमि पर स्थित शिला नीचे मुख करके उल्टी सोती है। शिला के नीचे के भाग का मुख और ऊपर के भाग का शिर बनाना चाहिए। सूत्रधारमंडन के अनुसार शिला पूर्व और पश्चिम की ओर लंबी हो तो उसका पश्चिम की ओर अग्र भाग मानकर शिर बनाना चाहिए तथा यदि शिला उत्तर और दक्षिण की ओर लंबी हो तो दक्षिण की ओर शिर बनाना चाहिए। यथा- प्राक् पश्चाद्दक्षिणे सौम्ये स्थिता भूमौ तुया शिला। प्रतिमायाः शिरस्तस्याः कुर्यात् पश्चिमदक्षिणे।। मानसार अध्ययन में यह विषय विस्तृत एवं स्पष्ट रूप से उल्लिखित है यहां शिला का अग्रभाग पूर्व और उत्तर दिशा में स्वीकार किया गया है, तथा शिला की दिशा स्थिति के आधार पर अंग निर्माण का भी वर्णन है जिसके अनुसार यदि शिला का अग्र भाग पूर्व दिशा में हो तो उसका दाहिना अंग दक्षिण में तथा वामांग उत्तर दिशा की ओर बनाना चाहिए। उत्तर दिशा की ओर अग्र भाग वाली शिला का दाहिना अंग पूर्व दिशा में और बांयाँ अंग पश्चिम दिशा में होता है।
शिला की कोण स्थिति के विषय में मानसार अध्ययन का मत है कि यदि शिला ईशान और नैर्ऋत्य कोण में हो तो उसका अग्र भाग ईशान कोण में एवं मूल भाग नैर्ऋत्य कोण में होता है। मानसार अध्ययन के अनुसार पुंलिंग शिला दिशा की ओर तथा नपुंसक जाति की शिला कोणे की ओर लंबी होती है। मयमतम् में भी पूर्व और उत्तर में शिला का अग्र भाग तथा दक्षिण व पश्चिम में मूल माना गया है यथा - ‘मुखमुद्धरणेऽधोंऽशमूध्र्वभागं शिरो विदुः।। शिलामूलवाक्प्रत्यगुदग्रं प्रागुदग्दिशि। अग्रमूध्र्वमधोमूलं पाषाणस्य स्थितस्य तु, नैऋत्येशानदेशाग्रा बह्व्यग्रा वह्रिवायुगा।।’ मयमतम् के अनुसार अग्र ऊध्र्वभाग और मूल अधोभाग कहलाता है। मानसार अध्ययन में अग्निकोण और वायुकोण में शिला का अग्र व मूल नहीं माना है जबकि मयमतम् में अग्निकोण में शिला का अग्रभाग और वायु कोण में मूल भाग माना गया है। काश्यपशिल्प तथा शिल्परत्न में भी पूर्व और उत्तर को शिला का अग्र भाग तथा दक्षिण व पश्चिम में मूल भाग माना है। यथा ‘प्रागग्रां चोदगग्रां वा शिला संग्राह्य देशिकः। प्रागग्रे पश्चिमं मूलमुदगग्रं तु दक्षिणे।। अधो भागं मुखं ख्यातं पृष्ठमूध्र्वगतं भवेत्।’
शिल्परत्न में उल्लखित ‘पूर्वोत्तरशिरोयुक्ता घण्टानादस्फुलिंगवत्’ इस श्लोकांश से विशेष रूप से यह विदित होता है कि शिला के अग्रभाग की ओर मूर्ति का शिर एवं मूल भाग की ओर पैर बनाने चाहिए। उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि प्रायः सभी शिल्पशास्त्रकारों ने पूर्व और उत्तर दिशा में शिला का अग्र भाग और पश्चिम व दक्षिण में मूल भाग स्वीकार किया है जब कि सूत्रधार मंडन ने पश्चिम और दक्षिण में अग्र भाग शिर बनाना उपयुक्त माना है तथा सूत्रधार ने शिला की कोण स्थिति के विषय में भी कोई मत प्रकट नहीं किया है। प्रतिमा निर्माण योग्य शुभाशुभ शिला के विषय में सूत्रधार मंडन का निम्न मत है- ‘निविडा निव्र्रणा मृद्वी सुगन्धा मधुरा शिला। सर्वार्चा लिंगपीठेषु श्रेष्ठा कान्तियुता च या।। अर्थात् दृढ़, छेद या बिंदु रहित, कोमल, सुगंध वाली मधुर तथा कांति युक्त शिला सभी जाति की प्रतिमा, शिवलिंग और पीठिका के लिए श्रेष्ठ या शुभ होती है। यहां निव्र्रणा का तात्पर्य ‘फोड़े के आकृति वाली बिंदु से रहित शिला से है’ काश्यपशिल्प में त्रिविध बिंदुओं का वर्णन है यथा- ‘कृष्णलोहनिभाकारा कृष्णभ्रमरसन्निभा। शिखिपिच्छसमाकारा त्रिविधा बिन्दुरेव हि।। अर्थात् काले लोहे के सदृश, काले भौंरे के समान और मोर के पंख तुल्य तीन प्रकार की बिंदु होती हैं।
अतएव यह भी कहा जा सकता है कि लोहे, भौरे तथा मयूर पंख के समान स्वरूप वाली बिंदु से रहित शिला श्रेष्ठ होती है। सूत्रधार ने सुगंधा शिला को श्रेष्ठ बतलाया है सुगंधा अर्थात् स्वाभाविक सुगंध से युक्त न कि कृत्रिम सुगंध वाली काश्यपशिल्प में वर्णित निंदित या त्याज्य शिला का विशेष आशय स्पष्ट हुआ है। जिसके अनुसार वर्षा, धूप एवं अग्नि से उत्पन्न गंध दुर्गंध होती है न कि सुगंध अतः काश्यपशिल्प में वर्षा, धूप और अग्नि के गंध वाली तथा खारे जल से व्याप्त शिला को निंदित शिला कहा गया है। इस आधार पर वर्षा, धूप और अग्नि की गंध से रहित स्वाभाविक सुगंध वाली शिला ही श्रेष्ठ होगी। यथा - वर्षातपाग्निगंधां×च सुकीर्णा क्षारवारिणा’ मयमतम् में बाला यौवना एवं वृद्धा संज्ञक शिला के लक्षणों का विवेचन है इनमें से चिकनी, सुगंधवाली, शीतल, कोमल और तेजस्वी शिला यौवना नाम से अभिहित है तथा यही शिला सिद्धिदात्री एवं श्रेष्ठ कही गयी है। ध्यातव्य है कि देवतामूर्ति प्रकरण एवं मयमतम् दोनों में श्रेष्ठ शिला का लक्षण समान है। प्रतिष्ठासार के ‘कठिना शीतला स्निग्धा सुस्वादा दृढा तथा।’ सुगंधात्यन्ततेजस्का मनोज्ञा चोत्तमा शिला।।’ इस श्लोक से भी उक्त लक्षणों वालीशिला ही श्रेष्ठ सिद्ध होती है।
वर्ण के आधार पर शुभ या ग्राह्य शिला के विषय में वास्तुविद मंडन का मत है कि कबूतर, कुमुदपुष्प, भ्रमर, उड़द, मूंग और कृष्णवर्ण वाली, पीत घी के वर्ण की तथा श्वेत कमल के समान वर्ण वाली शिला सभी देवताओं की प्रतिमा बनाने हेतु ग्राह्य होती है। वसुनंदीकृतप्रतिष्ठासार के अनुसार उपर्युक्त वर्णों के अतिरिक्त लाल, हरे, कमेड़ी तथा मंजीठ के वर्ण वाली शिला भी कल्याणकारी होती है। प्रतिष्ठासार में वर्णित है कि ब्राह्मण, क्षत्रियादि के वर्ण क्रमानुसार भिन्न-भिन्न वर्ण वाली शिला की प्रतिमा शुभ होती है यथा-‘श्वेता रक्ता पीता कृष्णा विप्रादीनां हिता सदा।’ अर्थात् ब्राह्मण वर्ण के लिए श्वेत, क्षत्रिय के लिए लाल, वैश्य के लिए पीत (पीली) और शूद्र के लिए कृष्ण वर्ण वाली प्रतिमा हितप्रद होती है। काश्यप शिल्प में भी प्रतिष्ठा सारोक्त रंगों वाली शिला ही ब्राह्मणादि के लिए उत्तम कही गयी है। यथा- ‘श्वेता रक्ता च पीता च कृष्णा चैव चतुर्विधा।’ तथा क्रमानुसार ब्राह्मणादि वर्ण की उपयोगिता के विषय में कहा गया है कि -‘श्वेता रक्ता च पीता च विप्रादीनां क्रमाद् भवेत्’ यही मत अग्निपुराण का भी है। जैसा कि कहा गया है -‘पाण्डरा ह्यरुणा पीता कृष्णा शस्ता तु वर्णिनाम्।
अग्राह्यशिला के विषय में सूत्रधार ने लिखा है कि विशेष मलिन तथा सुवर्ण कांसा लोहादि धातु के समान वर्ण (रंग) के चिन्ह वाली और अन्य दूसरे प्रकार के चिन्ह वाली प्रतिमा त्याज्य है। मयमतम् के ‘रेखाबिन्दुकलंकाढ्या सा त्याज्या सर्वयत्नतः’ इस श्लोकांश से भी देवतामूर्तिप्रकरण का यह कथन पुष्ट होता है। प्रकारांतर से यही मत काश्यप शिल्प में भी उक्त है- ‘रेखाबिन्दुकलंकादिसंयुक्ता परिवर्जयेत्’ कुछ ग्रंथों में चिन्ह का परिहार भी वर्णित है इस संदर्भ में आचार्य दिनकर एवं प्रतिष्ठासार में लिखा है कि प्रतिमा के पाषाण में यदि अपने ही वर्ण के रंग की रेखा या दाग हो तो दोष नहीं होता है। अग्निपुराण के अनुसार शिला में यदि सफेद रेखा हो तो वह उत्तम होती है और अगर काली रेखा हो तो उसका नरसिंह मंत्र के हवन से परिहार हो जाता है। मानसार अध्ययन में सफेद रेखा के साथ ही सुवर्ण रंग की रेखा को भी शुभ बतलाया गया है किंतु यहां कृष्ण वर्ण युक्त रेखा या चिन्ह वाली शिला का त्याग वर्णित है। यथा - ‘सर्वेषां वर्णपाषाणे कृष्णरेखां विसर्जयेत्। श्वेतं च स्वर्णरेखां च सर्वसंपत्करं शुभम्।। यद्यपि पाषाण या काष्ठ में किसी प्रकार का चिन्ह या रेखा अशुभ होती है किंतु कुछ चिन्ह ऐसे भी हैं जो पाषाण या काष्ठ में शुभ होते हैं शिल्प रत्न में लिखा है कि नद्यावर्त, शेषनाग, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शंख, स्वस्तिक, हाथी, गौ, नंदी, इन्द्र, चंद्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिवलिंग, तोरण, हरिण, मंदिर, कमल, वज्र या शिवजटा के समान रेखा या चिन्ह शुभ होते हैं। प्रतिमा निर्माण हेतु उत्तम शिला को शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और अच्छे शकुन में प्रसन्नचित्त होकर ग्रहण करनी चाहिए।