संपूर्ण कालसर्प यंत्रा से अनुकूलता की प्राप्ति पं. रमेष चंद्र शास्त्री जन्म के समय सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण जैसे दोषों के होने से जो प्रभाव जातक पर होता है, वही प्रभाव कालसर्प योग होने पर होता है। कुंडली में कालसर्प होने से जातक की अपेक्षित प्रगति में अड़चनें आती हैं। ऐसा जातक शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक दृष्टि से परेशान होता है। पुराणों में शेष नाग सहित अनेक नागों की पूजा का उल्लेख है। नाग जाति की आयु कई हजार वर्षों की होती है। कुछ नाग इच्छाधारी भी पाये जाते हैं। कालसर्प योग के परिहार के लिए अनेक उपाय बतलाए गये हैं। यदि कालसर्प योग का जातक इसका समुचित उपाय करे, तो वह अवश्य ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। उपाय: कालसर्प योग में सर्प को देवता मान कर नागों की पूजा-उपासना की जाती है। पंचाक्षर मंत्र आदि के जप सार्थक सिद्ध होते हैं, क्योंकि नाग जाति के गुरु शिव हैं। इस कारण शिव आराधना भी की जाती है। इसकी निवृत्ति के लिए इसकी शांति नासिक, त्र्यंबकेश्वर, प्रयाग, काशी आदि शिव संबंधी समस्त तीर्थों में की जाती है। यदि संभव हो, तो कालसर्प की शांति के लिए सूर्य एवं चंद्र ग्रहण के दिन रुद्राभिषेक करवाना चाहिए। अधिक शांति पाने के लिए चांदी के नाग-नागिन के जोड़े की पूजा आदि कर के उसे शुद्ध नदी में प्रवाहित करने से भी कालसर्प की शांति होती है। गणेश एवं सरस्वती की उपासना भी लाभकारी मानी जाती है। इसकी शांति किसी सुयोग्य कर्मकांडी ब्राह्मण से करवा सकते हैं। काल सर्प योग के समस्त उपायों में नाग-नागिन को ही श्रेष्ठ मान कर पूजा की जाती है। इसकी शंाति चाहे जब की जाए, परंतु शांति करने के समय कालसर्प यंत्र को ही आधार मान कर नागों की पूजादि करना श्रेष्ठ है, क्योंकि इस यंत्र के प्रभाव से संपूर्ण जातक को संतुष्टि एवं लाभ मिलता है, इस कारण इसकी महत्ता अधिक है। कालसर्प के जातक को राहु-केतु की दशा-अंतर्दशा, एवं गोचर में स्वराशि पर उनके गोचर के दौरान शांति आदि से अधिक लाभ मिलता है। राहु-केतु तमोगुणी, विषैले एवं राक्षसी प्रवृत्ति के होने पर भी ऊर्जा के स्रोत माने गए हैं तथा नवीन तकनीक से जुड़े विदेशी व्यापार से भी इनका संबंध है। अतः इनकी उपासना जीवन को सफल एवं सबल बनाती है। यदि कोई जातक कालसर्प यंत्र को अपने घर में, व्यावसायिक स्थल पर, अथवा अपने आसपास कहीं भी स्थापित करे, तो जातक को पुष्टि मिलती है तथा वह मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होने लगता है। यह योग काल की तरह दीर्घकालिक है, जिस कारण, अन्य उपायों की अपेक्षा, संपूर्ण कालसर्प योग यंत्र स्थापित करना अधिक उचित एवं लाभकारी है। इस यंत्र में अन्य कई यंत्रों को समाहित किया गया है, जो, राहु-केतु की समस्त नकारात्मक स्थितियों को परिवर्तित कर के, सकारात्मक परिणाम प्रदान करते हैं। एक ओर अनेक प्रकार के दान-तप, यज्ञ, पूजादि करते समय विघ्नों एवं त्रुटियों का भय बना होता है, तो दूसरी ओर वे खर्चीले भी होते हंै। ऐसी स्थिति में इस यंत्र को स्थापित करना एक प्रकार से समुचित विकल्प माना गया है। शास्त्रों में कहा गया है: भावो हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम्।। अर्थात, ईश्वर भावना में है। इस आधार पर प्रस्तुत यंत्र को शुद्ध भावना से स्थापित मात्र करने से अनोखा लाभ होता है। बिना किसी वस्तु के, बिना किसी मंत्र एवं माला के, मात्र शुद्ध भावना से मानसोपचार पूजा एवं जप करना ही समस्त विश्व का सर्वोत्तम यज्ञ है। अतः यदि कोई यह सोचे कि यंत्र को घर में स्थापित करने से अनेक नियम-संयम पालन करने होंगे, तो यह उसका मिथ्या भ्रम है। अतः इस यंत्र को कोई भी जातक स्थापित कर के लाभान्वित हो सकता है। कालसर्प यंत्र की स्थापना के पश्चात् यदि जातक किसी मंत्र का जप करना चाहे, तो निम्न मंत्रों में से किसी भी मंत्र का जप-पाठ आदि कर सकता है। शिव पंचाक्षर मंत्रा: ˙ नमः शिवाय। लघु मृत्युंजय मंत्रा: ˙ हौं जूं सः। राहु मंत्रा: ˙ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः। केतु मंत्रा: ˙ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः। नव नाग स्तुति: अनंतं वासुकिं शेषं पद्म नाभं च कम्बलं। शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।। एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनां। सायं काले पठेन्नित्यं प्रातः काले विशेषतः।। तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।। यंत्रा स्थापना विधि: वैदिक, तांत्रिक, मानसिक, वाचिक, कायिक, चल, अचल किसी भी पद्धति द्वारा इसे प्रतिष्ठित किया जा सकता है। स्वयं के धर्मानुसार जातक स्वतः अथवा कर्मकांडी से इसे स्थापित करवा सकता है। किसी भी माह शुक्ल पक्ष, सोम, बुध, गुरु, शुक्र, वारों में स्थापित कर के, श्रद्धा एवं शुद्ध भावना से यंत्र के सम्मुख किसी भी मंत्र का जप-पाठ, अथवा मात्र नित्य सरसों के तेल का दीपक जलाने से भी लाभ होता है। यंत्र अशुद्ध हो जाए, टूट जाए, अथवा चोरी हो जाए तो शांति पाठ करना चाहिए अथवा गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। दीपावली, दशहरा, नवरात्रि, शिवरात्रि, सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण में यंत्र को यथाशक्ति पूजनादि करने से अधिक लाभ होता