विवाह आदि का निर्णय लेते समय गुण मिलान के अतिरिक्त कुंडली में ग्रह स्थिति और भावेशांे के बलाबल का ध्यान भी रखना चाहिए। केवल गुणों के आधार पर निर्णय लेना उचित नहीं। कई स्थितियों में देखा गया है कि विवाहोपरांत धन की कमी, उचित संतान न होने अथवा पति-पत्नी में आपसी सहयोग की भावना क्षीण होने के कारण अक्सर विघटन की स्थितियां पैदा हो जाती हंै, अतः यदि गुण मिलान के अतिरिक्त अन्य योगों पर भी ध्यान दिया जाए, षड्वर्गों, विशेषकर होरा, द्रेष्काण, सप्तमांश विश्लेषण कर व नवमांश का सूक्ष्मता से विश्लेषण कर विवाहादि का निर्णय लिया जाए तो दाम्पत्य जीवन सुखमय हो सकता है, विघटन की स्थितियों से बचा जा सकता है।
होरा फल विचार: जातक की धन-संपत्ति का विचार होरा लग्नानुसार किया जाता है। जिस जातक की जन्मकुंडली में क्रूर ग्रह विषम राशि में स्थित होकर सूर्य की होरा में हो वह बली, साहसी व धनी होने के साथ-साथ कुछ क्रूर भी होता है। सम राशियों में सौम्य ग्रह स्थित हो व चंद्र होरा में भी सौम्य ग्रह हो तो जातक विनयी, नम्र, आकर्षक तथा सौभाग्यशाली होता है। इन स्थितियों में मिश्रित ग्रहों का फल मिश्रित होता है। होरा लग्न सिंह राशि का हो तथा सूर्य शुभ ग्रहों से युक्त होकर स्वयं की होरा में हो तो विद्वानों के मतानुसार जातक संपत्तिवान व सुखी होता है, किंतु यदि पापी ग्रहों का प्रभाव हो तो निर्धन व दुखी होता है। कर्क राशि की होरा में होरेश चंद्र शुभ ग्रहों के साथ स्थित हो तो जातक संतोषी, माता से स्नेह करने वाला, उदार व नम्र स्वभाव होता है। पापी ग्रहों से युक्त चंद्र इस स्थिति में जातक को आचारहीन, क्रोधी, चंचल व दुष्ट प्रकृति का बनाता है।
होरेश लग्न कुंडली में शुभ स्थान व शुभ प्रभाव में हो तो जातक को धन की कमी नहीं रहती, परंतु यदि छठे, आठवें या 12वें भाव में हो तो जातक धन-संपत्तिहीन होता है। कुंडली विश्लेषण: यदि जातक की कुंडली का सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो कई तथ्य सामने आएंगे। जातक का गृहस्थ जीवन सुखद है, धन की कोई कमी नहीं है, विवाहोपरांत ससुराल पक्ष से उसे भरपूर सहयोग मिला, फिर भी माता पिता से अलग रह रहा है, पिता की संपत्ति या सहयोग प्राप्त नहीं है, हालांकि माता की मदद यदाकदा मिलती रहती है। विवाह के 13 वर्ष बाद भी उसे सिर्फ एक पुत्री है।
पुत्र संतान न होने के कारण यदाकदा पत्नी से मामूली झगड़ा कर लेता है। फिर भी परिवार में सहयोग व प्रेम का वातावरण है। जातक की पत्नी की कुंडली में काक बंध्या योग है और स्वयं जातक की कुंडली में पंचमेश शनि अस्त है, पंचम का कारक गुरु तृतीय भावस्थ है षष्ठेश भी है, मंगल दृष्ट है, पंचम भाव पर कोई अन्य शुभ प्रभाव नहीं है, अतः अल्प संतति कष्ट जातक को भोगना पड़ा। प्रस्तुत कुंडली में सूर्य-शनि की युति अष्टम भाव में है। अकारक मंगल नवम तथा केतु दशम भाव में है और नवमेश अस्त है। फलस्वरूप जातक को पिता का सहयोग और पैतृक संपत्ति प्राप्त नहीं हुई। तथापि गुरु-चंद्र दशांतर दशा में जातक ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। गुरु की स्थिति सुदृढ़ है, नवमांश चक्र में उच्च का है।
होरा नियमानुसार कर्मेश चंद्र, होरेश होकर कुंडली में लग्नेश, धनेश-सप्तमेश और भाग्येश से युक्त होकर भाग्य भाव में स्थित है। यद्यपि चंद्र होरा में मंगल, राहु और केतु जातक को क्रोधी, चंचल व चालाक बनाते हैं परंतु ठेकेदारी जैसे कार्य के लिए यह स्थिति भी शुभ है, येन-केन-प्रकारेण जातक अधिकतर टेण्डर पास करवा लेता है। विचारणीय तथ्य यह है कि जातक की जन्म राशि मिथुन है और शनि की साढ़ेसाती भी उसके लिए सफलतादायक सिद्ध हुई। द्रेष्काण फल: द्रेष्काण लग्न से भाई-बहनों के सुख-सहयोग का विचार किया जाता है। यदि द्रेष्काण लग्न का स्वामी पुरुष संज्ञक हो तो भाई का सुख और यदि स्त्री संज्ञक हो तो बहन का सुख प्राप्त होता है। द्रेष्काण लग्न में पापी या शत्रु ग्रह हो, द्रेष्काणेश लग्न से छठे,आठवें या 12वें भाव में हो, पापी ग्रहों से युक्त व दृष्ट हो तो भाई अल्पायु, रोगी, धनहीन एवं कष्ट में रहने वाला होता है।
द्रेष्काण की लग्नेश से मित्रता हो तो भाई से संबंध सुखद, शत्रुता हो तो कटु और यदि समता हो तो भाई या बहन से सम संबंध होता है। उदाहरण कुंडली में द्रेष्काण नियम 3 पूर्ण रूप से घटित है। जातक भाई को पूर्ण सहयोग प्रदान करता है। अपने कारोबार में भाई को साझेदार बनाना चाहता है, परंतु वह इस ओर विशेष ध्यान नहीं देता यद्यपि यदाकदा मदद जरूर करता है। यहां नियम 2 असर दिखाता है। द्रेष्काणेश लग्न कुंडली में अस्त है, पापी ग्रह मंगल से युक्त है, अतः जातक का भाई भाई के कारोबार के हिसाब से धनहीन है। यदाकदा केवल कुछ पैसे लेकर जातक के टेंडर इत्यादि जमा करवाने चला जाता है और स्वयं खेती व पशुपालन का कार्य करता है। सप्तमांश फल: सप्तमांश से संतान सुख का विचार किया जाता है।
सप्तमांश लग्न विषम राशि हो तथा उसमें शुभ ग्रह स्थित हो तो पुत्र सुख प्राप्त होता है। यदि सप्तमांश लग्न सम हो तो कन्या संतान होती है। इस विषय में सप्तमांशेश से भी विचार किया जाना आवश्यक है। यदि वह पुरुष ग्रह है तो पुत्र तथा स्त्री ग्रह है तो पुत्री देने वाला होगा। यदि सप्तमांश लग्न में पापी ग्रह हों तो संतान प्राप्ति में प्रबल बाधा आती है। सप्तमांशेश निर्बल, अस्त, पापयुक्त एवं पापदृष्ट होकर लग्न से छठे, आठवें, या 12वें भाव में हो तो संतान सुख नहीं होता। यदि सप्तमांशेश बली हो तथा शुभ युक्त एवं शुभ दृष्ट होकर शुभ भाव में हो तो उत्तम संतान होती है। सप्तमांशेश गुरु, शुक्र तथा बुध से युक्त या दृष्ट होकर लग्न में हो तो संतान भाग्यशाली एवं धनवान होती है।
लग्नेश व सप्तमांशेश की मित्रता हो तो पुत्रों का सुख प्राप्त होता है तथा संतान आज्ञाकारी होती है। दोनों में यदि शत्रुता हो तो संतान आज्ञाकारी नहीं होती तथा पिता से शत्रु भाव रखती है। सप्तमांशेश बली होकर द्वितीय भाव में हो तो संतान धनी, पंचमस्थ हो तो उच्च शिक्षा प्राप्त, नवम में हो तो पुण्यवान एवं भाग्यवान होती है तथा दशम में हो तो उसमें पिता के गुण अधिक होते हंै। उदाहरण कुंडली में यह तथ्य विचारणीय है कि सप्तमांश लग्न विषम राशि है, सप्तमांशेश पुरुष ग्रह है फिर भी जातक को पुत्र संतान प्राप्त नहीं हुई। प्रथम संतान कन्या है, सन् 1997 में द्वितीय संतान की गर्भावस्था में मृत्यु हुई। उस समय जातक पर गुरु की दशा में मंगल का अंतर चल रहा था। यदि सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो ज्ञात होगा कि सप्तमांश कुंडली में सप्तमांशेश बुध व राहु से दृष्ट है, सप्तमांश लग्न से द्वादश में पापी शनि नीच राशिगत है, वहीं सप्तमांशेश लग्न कुंडली में नवम भावस्थ होकर स्त्री ग्रहों चंद्र व शुक्र से युक्त है। चलित कुंडली पर भी विचार आवश्यक हो जाता है।
चलित चक्र में मंगल मिथुन राशि 26ः16ः06 अंशों पर अपनी नीच राशि कर्क में है। वहीं केतु से युक्त व धनु राशि के तृतीय भावस्थ राहु से दृष्ट है। द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम एकादश का कारक ग्रह गुरु (व) चलित में द्वितीय भावस्थ है। कुंडली में पचमेश-सुखेश शनि अस्त होकर अष्टमस्थ शत्रु सूर्य से युक्त है। चलित कुंडली में चंद्र उच्च राशि का है और शुक्र (लग्नेश) स्वराशिस्थ है। स्त्री कारक ग्रह कुछ बली होकर स्त्री जाति का सुख जातक को प्रदान करते हैं। अतः माता, बहिन, पत्नी, सास व भाई की स्त्री का सहयोग जातक की सफलता प्राप्ति में सहायक रहा, किंतु भाई, पिता व पत्नी के भाई से जातक का तालमेल सही नहीं है, उनके साथ उसके वैचारिक मतभेद चलते रहते हैं।
नवमांश फल: नवमांश से पति या पत्नी सुख का विचार किया जाता है। नवमांश लग्न का स्वामी बली होकर केंद्रस्थ हो तो विवाह सामान्य से कम आयु में और त्रिकोणस्थ हो तो उचित आयु में होता है। नवमांश लग्न में पापी ग्रहों का योग हो तो विवाह में बाधा आती है। नवमांश लग्न का स्वामी सूर्य हो तो स्त्री पतिव्रता, धर्म के कार्यों में रत रहने वाली, सात्विक किंतु उग्र होती है। चंद्र हो तो शांत, सुंदर व चंचल, मंगल हो तो क्रोधी व आचारहीन, बुध हो तो बुद्धिमती, शिल्पकला की ज्ञाता एवं हास्यप्रिय, गुरु हो तो धार्मिक, दान-पुण्य करने वाली व सदाचारिणी, शुक्र हो तो शृंगार प्रिय, सुंदर व भोग-विलास प्रिय तथा यदि शनि हो तो क्रूर और उग्र स्वभाव वाली एवं आयु में कुछ अधिक दिखने वाली होती है। नवमांश का स्वामी कुंडली में शुभ युक्त व दृष्ट होकर शुभ स्थान पर हो तो पत्नी सुख उत्तम रहेगा और यदि पाप युक्त व दृष्ट होकर लग्न से छठे, आठवें, या बारहवें भाव में स्थित हो तो पत्नी का सुख प्राप्त नहीं होगा।
नवमांशेश जन्मकुंडली में छठे भाव में स्थित हो तो स्त्री प्रायः बीमार रहती है, अष्टम भावस्थ हो तो वियोग की संभावना प्रबल होती है, 12वें भाव में हो तो स्त्री धन का नाश करने वाली होती है। लग्नेश व नवमांशेश की मित्रता हो तो पति-पत्नी के संबंध मधुर, अन्यथा कटु रहते हैं। उदाहरण कुंडली में नवमांश के कई नियम विद्यमान हैं। जातक का जन्म लग्न तुला व नवमांश लग्न मिथुन है, नवमांशेश व लग्नेश मित्र ग्रह हैं, वहीं कुंडली व नवमांश दोनों में युक्त हैं। नवमांशेश बुध है। इन सभी स्थितयों के फलस्वरूप जातक की पत्नी मेहमाना का सम्मान करने वाली, बुद्धिमती व जातक के संघर्ष के समय में उसकी सहयोगी रही।
नवमांशेश कुंडली में स्वयं भाग्येश है, स्वराशिस्थ है, कर्मेश चंद्र, धनेश, सप्तमेश व लग्नेश से युक्त है, फलस्वरूप जातक को ससुराल पक्ष से भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। नवमांश कुंडली में गुरु उच्चस्थ होकर धन भावस्थ है, शनि स्वराशिस्थ होकर नवम भाव में स्थित है। अतः आंशिक दोषों के बावजूद जातक के षड्वर्गों का आकलन करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसका वैवाहिक जीवन सुखमय रहेगा। पति-पत्नी का परस्पर सहयोग बना रहेगा। जातक ने पिछले दो महीनों में दो ट्रक भी खरीद लिए हैं।
वर्तमान समय में जातक पर शनि की दशा चल रही है, छः टेंडर जातक ने भरे व सभी प्राप्त किए, एक प्लाट खरीदकर उचित मुनाफे में बेचा व दूसरा खरीदा। कुल मिलाकर जातक की आर्थिक व पारिवारिक स्थिति दिन व दिन सुदृढ़ होती जा रही है। धर्म-कर्म में रुचि बढ़ती जा रही है। भाई के पुत्र को जातक अपनी दूसरी संतान मान कर उसकी शिक्षा इत्यादि का खर्च वहन कर रहा है, परंतु उसकी पत्नी को इस बात का कोई दुःख या कष्ट नहीं है। पति के हर निर्णय को वह कबूल करती है। वह स्वयं भी पत्नी से संतुष्ट व खुश है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विवाह के समय इस दंपति को न तो कोई ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त हुआ, न गुण मिलाए गए और न ही कुंडलियां।
अतः यदि केवल गुणों को ध्यान में रखकर वैवाहिक निर्णय लिए जाएं तो उचित नहीं। ग्रहों के योग, दृष्टि, युति व षड्वर्गों का आकलन भी आवश्यक है। आवश्यकता शास्त्र (ज्योतिष) वर्णित आवश्यक नियमों पर ध्यान देकर कुंडली का सही विश्लेषण कर उचित परामर्श देने व यथोचित निर्णय लेने की है।