शनि की साढ़ेसाती, ढैया एवं दशा के प्रभाव पं. अंजनी उपाध्याय नवग्रहों में शनि को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैमिनी ऋषि के अनुसार कलियुग में शनि का सबसे ज्यादा प्रभाव है। शनि के पिता सूर्य और माता छाया हंै, इसलिए इसे छायानंदन भी कहा जाता है। शनि की कहानियां वेद, पुराण और धर्मशास्त्रों में मिलती हैं, लेकिन जनमानस में इसके बारे में बहुत सारे भ्रम भी व्याप्त हैं। यह किसी भी प्राणी को अकारण दंडित नहीं करता है। जिन लोगों ने पूर्वजन्म में शुभ कर्म किए हैं, उन्हें इस जन्म में यह पुरस्कृत करता है। पूर्व जन्म में दूसरों को सताने वाले और अशुभ व पाप कर्म करने वाले पर इस जन्म में शनि की महादशा, साढ़ेसाती या ढैया बुरा प्रभाव डालती है। साढ़े साती क्या है? जन्मकुंडली में चंद्र जिस राशि में रहता है वह जातक की जन्मराशि कहलाती है। जब जन्मराशि से गोचर में शनि द्वादश भाव में आता है तब साढे़साती प्रारंभ होती है। यह साढ़ेसाती का प्रथम चरण कहलाता है। जन्मराशि अर्थात् चंद्र पर शनि के गोचर का काल साढ़ेसाती का द्वितीय और जन्मराशि से द्वितीय भाव में प्रवेश का काल तृतीय चरण कहलाता है। वास्तव में, साढ़ेसाती पूरे साढ़े सात साल नहीं चलती। जन्मकालीन चंद्र जितने अंश पर हो उससे 45 अंश पीछे जब गोचर में शनि आता है तब साढ़ेसाती प्रारंभ होती है तथा जन्मकालीन चंद्र से गोचर में शनि के 45 अंश आगे रहने तक रहती है। ढैया क्या है? शनि गोचर में चतुर्थ या अष्टम भाव में हो तो यह अवधि उसकी ढैया कहलाती है। शनि की साढ़ेसाती 7 वर्ष 6 माह अर्थात लगभग 2700 दिन का काल होता है। इन 2700 दिनों में साढ़ेसाती का प्रभाव जातक के शरीर के विभिन्न अंगों पर किस प्रकार पड़ता है इसका विश्लेषण यहां प्रस्तुत है। 100 दिन - इस अवधि में शनि मुख पर रहता है। यह अवधि हानिकारक होती है। 101 से 500 दिन (400 दिन) तक शनि दायीं बांह पर रहता है। यह समय लाभदायक, सिद्धिदायक तथा विजयदायक होता है। 501 से 1100 दिन (600 दिन) तक इस अवधि में शनि पांवों पर रहता है। यह समय यात्राएं करवाता है। 1101 से 1600 दिन (500 दिन) तक शनि पेट पर रहता है। यह अवधि लाभदायक, सिद्धिदायक व हर कार्य में सफलता देने वाला होता है। 1601 से 2000 दिन (400 दिन) तक शनि बायीं भुजा पर रहता है। यह समय रोग, कष्ट, हानि आदि का होता है। 2001 से 2300 दिन तक (300 दिन) इस समय शनि मस्तक पर रहता है। यह समय लाभप्रद व सरकारी कार्यों में सफलता देने वाला होता है। 2301 से 2500 दिन तक (200 दिन) - शनि आंखों पर रहता है। यह समय सुखदायक और सौभाग्यकारक होता है। 2501 से 2700 दिन तक (200 दिन)- शनि गुदा पर रहता है। यह समय दुखःप्रद होता है। इसके अलावा शनि के शुभ-अशुभ प्रभाव की सूक्ष्मता जानने के लिए उसके पादों अर्थात् पायों पर विचार किया जाता है। जन्म राशि से पहले, छठे या 11वें गोचर में शनि हो तो वह चरण स्वर्णपाद या सोने का पाया कहलाता है। स्वर्णपाद का फल उत्तम होता है। जन्म राशि से दूसरे, पांचवे या 9 वें गोचर में शनि हो तो यह चरण रजतपाद कहलाता है। रजतपाद का फल सुख एवं लाभप्रद होता है। जन्म राशि से तीसरे, 7वें, 10 वें गोचर में शनि हो तो यह ताम्रपाद अर्थात तांबे का पाया कहलाता है। इसका जन्म राशि से चैथे, 8वें या 12वें गोचर में शनि हो तो यह लौहपाद कहलाता है। इसके अलावा शनि के वाहनों के माध्यम से भी उसके शुभ-अशुभ प्रभावों का आकलन करते हैं। शनि का कौन सा वाहन जातक को शुभ या अशुभ फल देगा यह जानने हेतु उसके जन्म नक्षत्र से गोचरस्थ शनि के नक्षत्र तक गिनें। यह संख्या 9 से अधिक हो तो उसमें 9 से भाग दें। जो शेष बचे, उसके सामने की संख्या के अनुरूप जो वाहन होगा उसी के अनुसार फल मिलेगा। 1. गधा - दुःख, वाद-विवाद। 2. घोड़ा - सुख-संपत्ति, प्रवास, यात्रा। 3. हाथी - सुख-संपत्ति रूचि के अनुसार भोजन 4. बकरा - अनिष्ट, अपयश, रोगभय, मानहानि। 5. सियार- भय, डर, कष्ट, पीड़ा। 6. शेर - विजय, लाभ, यश, प्रसिद्धि। 7. कौआ - मानसिक कष्ट व पीड़ा। 8. हंस - विजय, यश, लाभ, मान-सम्मान। 9. मयूर - सुख, लाभ, समृद्धि। पराशरी के अनुसार शनि के शुभ-अशुभ फलों का विश्लेषण स अगर जन्म, सूर्य, तथा चंद्र, लग्नों से शनि केंद्र या त्रिकोण में स्थित हो और शुभ ग्रहों से दृष्ट हो, उच्च हो, मूल त्रिकोण, या स्वराशि में हो, तो साढ़ेसाती में अत्यंत अच्छा प्रभाव देता है। अगर शनि उक्त तीनों लग्नों अर्थात् तीसरे, छठे, 8वें, 9वें या 12वें भाव का स्वामी हो और उसी भाव में स्थित तथा पापग्रहों से दृष्ट हो, तो विपरीत राजयोग के कारण अच्छा धन देने में सक्षम होता है। बशर्ते मकर या कुंभ में राहु, केतु, मंगल या क्षीण चंद्र न हो। देखा जाए तो साढ़ेसाती के कुल साढे़ सात वर्षों में से 46 महीने 20 दिन का कालखंड शुभ, लाभप्रद, उन्नति व उत्कर्षदायक होता है। 43 महीने 10 दिन अति अशुभ, हानिकारक और कष्टदायक होते हैं। साढ़ेसाती के प्रारंभ के साढ़े चार वर्षों में वृष, धनु और मकर राशियों के लोगों को शुभ और अशुभ दोनों फल प्राप्त होते हंै। मध्य के ढाई वर्ष मेष, कर्क, सिंह, कन्या एवं वृश्चिक राशियों के लोगों के लिए कष्टदायक एवं हानिकारक होते हैं। अंतिम ढाई वर्ष मिथुन, तुला, कुंभ तथा मीन राशियों के लोगों के लिए घातक और कष्टप्रद होते हैं। साढ़ेसाती मंे अच्छे परिणामों की अवधि अधिक और अनिष्ट की कालावधि कम रहती है। यदि जन्मकुंडली में शनि बलवान हो तो अनिष्ट फलों की संभावना बहुत ही कम रहती है। शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव प्रथम चरण: इस अवधि के दौरान जातक आर्थिक रूप से अत्यंत पीड़ित रहता है, आय की अपेक्षा व्यय अधिक होता है। इस कारण उसकी बहुत सी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं। अप्रत्याशित आर्थिक हानि होती है। शारीरिक सुख नहीं मिलता है, स्वास्थ्य आक्रांत रहता है। और नेत्रों की व्याधि की संभावना रहती है। वह मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है और अकारण ही भ्रमण करता रहता है। अभिभावक एवं आत्मीयजन कष्ट का अनुभव करते हैं। आय एवं लाभ नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। परिवार में वियोग होता है। पिता को अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। दादी को मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। द्वितीय चरण: पारिवारिक तथा व्यावसायिक जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है। किसी संबंधी के कारण कष्ट होता है। लंबी यात्राएं, शत्रुओं से कष्ट, आत्मीयजनों से विछोह व्याधि से कष्ट, संपŸिा की हानि, सामाजिक पतन, सच्चे मित्रों का अभाव एवं कार्य में बाधा इस चरण के मुख्य फल हैं। सभी प्रयासों में असफलता मिलती है। आर्थिक चिंता घेरे रहती है। शारीरिक सामथ्र्य व प्रभाव में कमी आती है। मानसिक स्तर पर प्रबल उद्वेलन रहता है। व्यर्थ का व्यय होता है और कोई कार्य मनोनुकूल नहीं होता। तृतीय चरण: इस अवधि में सुखों का नाश होता है। पदाधिकार का हनन होता है। व्यय आशा से अधिक होता है। शारीरिक निर्बलता अथवा जड़ता का अनुभव होता है। आनंद बाधित होता है। धनागम होता है, किंतु उसी गति से खर्च भी होता है। निम्नवृŸिा के व्यक्ति में प्रवंचना होती है। व्यर्थ के विवाद उत्पन्न होते हैं। आत्मीयजनों से अकारण संघर्ष होता है। जातक का स्वास्थ्य, संतति का सुख एवं उनका आयुर्बल प्रभावित होता है। शनि की महादशा और अंतर्दशा का प्रभाव शंभु होरा प्रकाश के अनुसार शनि की दशा-भुक्ति में जातक मान-सम्मान व अधिकार पाता है। उसकी बौद्धिक क्षमता प्रबल हो जाती है। उसे कुल में प्रधानता, प्रसिद्धि तथा धन-संपदा मिलती है। शनि अपनी दशा-भुक्ति में देवता की अर्चना तथा ब्राह्मण, संतजनों/गुरु का सत्कार-सम्मान करवा कर जातक को परम सुख की ओर ले जाने का प्रयास करता है। दुर्बल या पापी शनि वात, पित्त व कफ जनित रोग व पीड़ा देता है। खाज, खुजली और दाद सरीखे रोग, दास व अधीनस्थ कर्मचारियों की हड़ताल से हानि, प्रौढ़ा या वृद्ध स्त्री से संभोग के कारण अपयश, निंदा आदि शनि के ही पाप फल हैं। शनि पापी नहीं वरन् धर्मात्मा है और अपनी दशा में भोग-वैभव को नष्ट कर, जातक के मन को भगवान की ओर मोड़ता है। धर्म में श्रद्धा भाव, भगवान पर विश्वास मन में जाग जाए तो व्यक्ति इह लोक और परलोक को सहज ही सुधार लेगा। फलदीपिका में मंत्रेश्वर ने शनि की दशा के बारे में कहा है कि शनि प्रायः रोग, कष्ट व पीड़ा देता है। जातक वातजनित पीड़ा से कष्ट पाता है। वह व्यर्थ की व कष्टदायी बातें बोलता है। उसकी फसल नष्ट हो जाती है व दुष्टस्त्री में आसक्ति होती है। उसकी स्त्री या पुत्र को रोग की संभावना रहती है। उसका अपने परिवार से वियोग होता है। अचानक स्थान या नौकरी त्याग कर जाना पड़ता है। मानसिक सुख-संतोष समाप्त हो जाता है व धन का नाश होता है। जातक पारिजात के अनुसार शनि की दशा में सामान्यतः बकरी, गधे, ऊंट आदि के द्वारा लाभ, उम्र में बड़ी स्त्री से लाभ या उससे संयोग तथा पक्षी व मोटे अनाज के व्यापार से लाभ होता है। मंडल, बस्ती, काॅलोनी या गांव के निकाय में किसी पद की प्राप्ति तथा उससे धनलाभ और निम्नश्रेणी के लोगों से संपर्क होता है। जातकाभरण के अनुसार शनि की शुभदशा में जातक को पद या अधिकार तथा अपने क्षेत्र में सम्मान मिलता है। वह बुद्धिमान, दानशील तथा विनयशील होता है उसे वाहन, वस्त्र, स्वर्णादि का लाभ और देवों-ब्राह्मणों के सत्कार तथा अपनी पुरानी जगह या क्षेत्र से लाभ व सुख मिलता है। देवालय आदि बनाने के अवसर, कीर्ति आदि की प्राप्ति होती है। वह अपने कुल में श्रेष्ठ होता है। लेकिन, अशुभ शनि की दशा में आलस्य, निद्रा, कफ, वात और पिŸा जनित रोग, त्वचा रोग अन्य लोगों से कष्ट आदि होते हंै।