शनि, पिता सूर्य के श्रापवश हुए क्रूर बसंत कुमार सोनी वैदिक और पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख है कि भगवान विष्णु के नाभि-कमल से उत्पन्न ब्रह्मा जी की जब सृष्टि के सृजन की इच्छा हुई, तब उन्होंने अपने तेज से अनेक नारी शरीरों की रचना की जो ब्रह्मपुत्र और ब्रह्मपुत्रियां कहलाए। फिर ब्रह्मा जी ने महर्षि मरीचि को अपनी पहली पुत्री अदिति देकर वंश परंपरा चलाने की आज्ञा दी। महर्षि मरीचि ही कालांतर में कश्यप कहलाए। कश्यप और अदिति की संतानें देव कहलाईं, जबकि उनकी द्वितीय पुत्री दिति की संतानें दैत्य कहलाईं। आगे चलकर दैत्य और दानव संगठित होकर सŸााधिकार के लिए देवताओं से बैर रखने लगे। दैत्य-दानवों के प्रचंड आक्रमण से देव-वर्ग के विनाश की कल्पना से व्याकुल होकर अदिति और कश्यप ने तपश्चर्या करते हुए सूर्य-शक्ति की उपासना आरंभ की जिससे प्रसन्न होकर सूर्य-शक्ति ने उनसे वर मांगने का आग्रह किया। तब अदिति ने अपनी संतानों अर्थात् देव-वर्ग की रक्षा की याचना की। सूर्य-शक्ति ने कहा, ‘मैं स्वयं को तुम्हारे गर्भ में स्थापित करूंगा और देवरूप में जन्म लेकर दैत्यों और दानवों को पराजित करके देवताओं की रक्षा करूंगा।’ उसके कुछ दिनों बाद अदिति गर्भवती हुईं। उनके गर्भ में कोई साधारण बच्चा न होकर वरदानस्वरूप सूर्य-शक्ति का अंश था। अदिति नाना प्रकार के नियम-संयम व व्रतोपवास करने लगीं। उनके इन प्रयासों के कारण जिससे उनका शरीर निर्बल होने लगा। एक दिन क्रुद्ध होकर महर्षि कश्यप बोले, ‘‘क्या तुम भूखी-प्यासी रहकर गर्भस्थ शिशु को मार डालना चाहती हो?’’ अदिति नम्रतापूर्वक बोलीं, ‘‘हे स्वामी ! यह गर्भ आप द्वारा प्रदŸा नहीं है, यह सूर्य-शक्ति का कृपा-प्रसाद है। यह अविनाशी है जो देव-वर्ग के शत्रुओं का संहार करेगा। यह गर्भ तो नष्ट होगा भी नहीं। इतना कहकर अदिति ने स्वयं को अपमानित समझते हुए भावावेग में गर्भ का परित्याग कर दिया। पृथ्वी पर गिरते ही उस गर्भ के तेज से दसों दिशाएं ऐसे दहकने लगीं, मानो संपूर्ण ब्रह्मांड इस गर्भ में ही भस्मीभूत हो जाएगा। महर्षि कश्यप सूर्य के उस अंश को साक्षात् सूर्य मानकर क्षमा याचना करने लगे। तब उनकी वाणी सुनकर आकाश से सूर्य-शक्ति ने क्षमा दान देते हुए कहा, ‘हे कश्यप ! तुमने तो इस गर्भ को मरा हुआ कहकर अदिति पर भ्रूण हत्या का लांछन-सा लगा डाला। जाओ तुम्हें क्षमा किया, पर अब इसकी उपेक्षा कभी न करना। हजार नामों से युक्त हजार किरणों वाले इस अंड (गर्भ) का एक नाम मारितांड (मारित$अंड) भी होगा। यही मारितांड बाद मंे मार्Ÿाण्ड कहलाए। कश्यप ने वेद मंत्रों से जब उस अंड की स्तुति की तो कुछ ही क्षणों में उसके फटने से समूची पृथ्वी, संपूर्ण नभमंडल और दसों दिशाओं में अपनी किरणों से प्रकाश बिखेरता एक कांतिवान, तेजस्वी बालक प्रकट हुआ, जो सूर्य आदि सहस्र नामों से विख्यात हुआ। ऐसे तेजोमय सूर्य को नायक रूप में पाकर देववर्ग ने दैत्यों को ललकारा। उनमें युद्ध हुआ। मार्Ÿाण्ड सूर्य का तेज न सह सकने के कारण दैत्य-दानव भाग खड़े हुए और देवताओं की विजय हुई। सूर्य को ब्रह्मांड का सर्वाधिक तेजवान ग्रह नायक मान लिया गया। पुनः देव शासन स्थापित हो गया और देवतागण सुखपूर्वक अपनी दिनचर्या बिताने लगे। कुछ दिनों बाद प्रजापति विश्वकर्मा ने कुमार सूर्य को सुयोग्य जानकर उनके साथ अपनी कन्या ‘संज्ञा’ का विवाह कर दिया, जिनसे दो पुत्र वैवस्वत मनु और यम तथा एक कन्या यमुना उत्पन्न हुई। उधर, मार्Ÿाण्ड सूर्य के प्रचंड तेज से बचने के लिए सुकुमारी संज्ञा ने अपने योगबल से अपने प्रतिरूप की रचना की जो रूप, रंग, गुण आदि में उसी की तरह थी। ‘‘संवर्णा’’ उसका नाम रखा गया। सूर्य को यह सब कुछ पता नहीं चला और संज्ञा की जगह संवर्णा से उनका दाम्पत्य-प्रेम चलता रहा। संवर्णा (छाया) ने भी दो पुत्रों संवीर्ण व शनि और एक पुत्री ताप्ती को जन्म दिया। सूर्य की ज्येष्ठ पुत्री व संज्ञा सुता यमुना नदी के रूप में और कनिष्ठ पुत्री व छाया सुता ताप्ती नदी के रूप में जानी जाती है। छाया से उत्पन्न होने के कारण शनि देव छाया के लाला व मार्Ÿांदड के पुत्र कहे जाते हैं- ‘‘छाया मार्Ÿाण्ड सम्भूतम् नमामि तं शनैश्चरम्’’ शनि की माता छाया की प्रकृति कालांतर में शनैः शनैः उदासीन होने लगी और वह अपनी संतानों से विशेष लगाव रखने लगीं। अब वह संज्ञा की संतानों को उपेक्षा की दृष्टि से देखतीं। यह उपेक्षापूर्ण बर्ताव संज्ञा की संतानों को अखरने लगा। गंभीर स्वभाव होने के कारण वैवस्वत मनु तो सहन कर गए, परंतु क्रोधी स्वभाव वाले यम कुपित होकर माता छाया पर एक बार प्रहार करने झपट पड़े। उनके इस अशिष्ट व्यवहार से माता छाया ने उन्हें मंदबुद्धि और प्रेताधिपति होने का श्राप दे दिया। सूर्यदेव मार्Ÿादण्ड को जब छाया के अस्तित्व और उनके स्वभाव का पता चला तो वे उद्विग्न हो उठे। सर्वप्रथम उन्होंने अपने बड़े बेटे संज्ञा सुत यम को छाया के श्राप से मुक्त किया और धर्मराज के पद पर आसीन होने का वरदान दिया।’ ‘जाओ पुत्र, संपूर्ण जगत के समस्त चराचर प्राणियों के कर्मफल का लेखा-जोखा तुम्हारे कर-कमलों में रहेगा।’ वहीं दूसरी ओर छाया के प्रति क्रोध शांत न होने के कारण उन्होंने छायासुत शनि को शाप देते हुए कहा, ‘जैसी क्रूर भावना और ईष्र्या तथा राग द्वेष तुम्हारी माता में हैं, वैसे ही सारे दुर्गुण तुममें भी स्थायी रूप में वास करेंगे। जाओ तुम्हारी दृष्टि वक्र रहेगी और तुम सदैव क्रूर बने रहोगे।’ पिता के श्रापवश शनि की दृष्टि वक्र हो गई, वे क्रूर बन गए कानन किला शिविर सेनाकर, नाश करत सब ग्राम्य नगर नर। डालत विघ्न सबहिं के सुख में, व्याकुल होहिं पड़े सब दुख में। शनि पीड़ा निवारक यंत्र शनि की साढ़ेसाती, ढैया आदि के कारण जब मनुष्य कष्ट में हो अथवा प्रश्न कुंडली के आधार पर शनि बाधाकारक हो या सर्वतोभद्रचक्र में शनि का वेध अनिष्ट फल दे रहा हो तो शनिवार को अष्टधातु से बना स्वर्ण पालिशयुक्त शनि यंत्र की स्थापना करनी चाहिए। जैसे आत्मा और शरीर में कोई भेद नहीं है, उसी तरह यंत्र और देवता में कोई भेद नहीं होता। यंत्र मंत्र रूप होता है और मंत्र देवताओं का विग्रह होता है। अतः यंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा करा लेनी चाहिए। कहा गया है- ‘यंत्र मंत्रमयं प्रोक्तं मन्त्रात्मा देवतैव हि’ अथवा ‘बिना यंत्रेण पूजायां देवता न प्रसीदति।’ यंत्र कष्टों का निवारण करने वाला होता है। यंत्र के समक्ष बैठकर शनि के बीज मंत्र का 23000 की संख्या में जप करने से शनि पीड़ा का शमन हो जाता है। शनि का बीज मंत्र है- ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः। जप के अंत में दशांश हवन करना चाहिए।