शनि के फलों का विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन रामप्रवेश मिश्र शास्त्रों में वर्णन है कि शनि वृद्ध, तीक्ष्ण, आलसी, वायु प्रधान, नपुंसक, तमोगुणी, और पुरुष प्रधान ग्रह है। इसका वाहन गिद्ध है। शनिवार इसका दिन है। स्वाद कसैला तथा प्रिय वस्तु लोहा है। शनि राजदूत, सेवक, पैर के दर्द तथा कानून और शिल्प, दर्शन, तंत्र, मंत्र और यंत्र विद्याओं का कारक है। ऊसर भूमि इसका वासस्थान है। इसका रंग काला है। यह जातक के स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है। यह मकर और कुंभ राशियों का स्वामी तथा मृत्यु का देवता है। यह ब्रह्म ज्ञान का भी कारक है, इसीलिए शनि प्रधान लोग संन्यास ग्रहण कर लेते हंै। शनि सूर्य का पुत्र है। इसकी माता छाया एवं मित्र राहु और बुध हैं। शनि के दोष को राहु और बुध दूर करते हैं। शनि दंडाधिकारी भी है। यही कारण है कि यह साढ़े साती के विभिन्न चरणों में जातक को कर्मानुकूल फल देकर उसकी उन्नति व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। कृषक, मजदूर एवं न्याय विभाग पर भी शनि का अधिकार होता है। जब गोचर में शनि बली होता है तो इससे संबद्ध लोगों की उन्नति होती है। कुंडली की विभिन्न भावों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल- शनि 3, 6,10, या 11 भाव में शुभ प्रभाव प्रदान करता है। प्रथम, द्वितीय, पंचम या सप्तम भाव में हो तो अरिष्टकर होता है। चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव में होने पर प्रबल अरिष्टकारक होता है। यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष की रात्रि में हुआ हो और उस समय शनि वक्री रहा हो तो शनिभाव बलवान होने के कारण शुभ फल प्रदान करता है। शनि सूर्य के साथ 15 अंश के भीतर रहने पर अधिक बलवान होता है। जातक की 36 एवं 42 वर्ष की उम्र में अति बलवान होकर शुभ फल प्रदान करता है। उक्त अवधि में शनि की महादशा एवं अंतर्दशा कल्याणकारी होती है। शनि निम्नवर्गीय लोगों को लाभ देने वाला एवं उनकी उन्नति का कारक है। शनि हस्त कला, दास कर्म, लौह कर्म, प्लास्टिक उद्योग, रबर उद्योग, ऊन उद्योग, कालीन निर्माण, वस्त्र निर्माण, लघु उद्योग, चिकित्सा, पुस्तकालय, जिल्दसाजी, शस्त्र निर्माण, कागज उद्योग, पशुपालन, भवन निर्माण, विज्ञान, शिकार वृŸिा आदि से जुड़े लोगों की सहायता करना है। यह कारीगरों, कुलियों, डाकियों, जेल अधिकारियों, वाहन चालकों आदि को लाभ पहुंचाता है तथा वन्य जन्तुओं की रक्षा करता है। शनि से अन्य लाभ शनि और बुध की युति जातक को अन्वेषक बनाती है। चतुर्थेश शनि बलवान हो तो जातक को भूमि का पूर्ण लाभ मिलता है। लग्नेश तथा अष्टमेश शनि बलवान हो तो जातक दीर्घायु होता है। तुला, धनु, एवं मीन का शनि लग्न में हो तो जातक धनवान होता है। वृष तथा तुला लग्न वालांे को शनि सदा शुभ फल प्रदान करता है। वृष लग्न के लिए अकेला शनि राजयोग प्रदान करता है। कन्या लग्न के जातक को अष्टमस्थ शनि प्रचुर मात्रा में धन देता है तथा वक्री हो तो अपार संपŸिा का स्वामी बनाता है। शनि यदि तुला, मकर, कुंभ या मीन राशि का हो तो जातक को मान-सम्मान, उच्च पद एवं धन की प्राप्ति होती है। शनि से शश योग- शनि लग्न से केंद्र में तुला, मकर या कंुभ राशि में स्थित हो तो शश योग बनता है। इस योग में व्यक्ति गरीब घर में जन्म लेकर भी महान हो जाता है। यह योग मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला वृश्चिक, मकर एवं कुंभ लग्न में बनता है। भगवान राम, रानी लक्ष्मी बाई, पं. मदन मोहन मालवीय, सरदार बल्लभ भाई पटेल, आदि की कुंडली में भी यह योग विद्यमान है। विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल- मेष: इस लग्न में शनि कर्मेश तथा लाभेश होता है। इस लग्न वालों के लिए यह नैसर्गिक रूप से अशुभ है, लेकिन आर्थिक मामलों में लाभदायक होता है। वृष: इस लग्न में केंद्र शनि तथा त्रिकोण का स्वामी होता है। उसकी इस स्थिति के फलस्वरूप जातक को राजयोग एवं संपŸिा की प्राप्ति होती है। मिथुन: इस लग्न में यदि शनि अष्टमेश या नवमेश होता है। यह जातक को दीर्घायु बनाता है। कर्क: इस लग्न में शनि अति अकारक होता है। सिंह: इस लग्न में यह षष्ठ एवं सप्तम घर का स्वामी होता है। इस स्थिति में यह रोग एवं कर्ज देता है तथा धन का नाश करता है। कन्या: इस लग्न में शनि पंचम् तथ षष्ठ स्थान का स्वामी होकर सामान्य फल देता है। यदि इस लग्न में अष्टम स्थान में नीच राशि का हो तो व्यक्ति को करोड़पति बना देता है। तुला: इस लग्न के लिए शनि चतुर्थेश तथा पंचमेश होता है। यह अत्यंत योगकारक होता है। वृश्चिकः इस लग्न में शनि तृतीयेश एवं चतुर्थेश होकर अकारक होता है, किंतु बुरा फल नहीं देता। धनु: इस लग्न के लिए शनि निर्मल होने पर धनदायक होता है, लेकिन अशुभ फल भी देता है। मकर: इस लग्न के लिए शनि अति शुभ होता है। कुंभ: इस लग्न के लिए भी यह अति शुभ होता है। मीनः शनि मीन लग्न वालों को धन देता है, लेकिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। भाव के अनुसार शनि का फल- प्रथम भाव में शनि तांत्रिक बनाता है, किंतु शारीरिक कष्ट देता है और पत्नी से मतभेद कराता है। द्वितीय भाव में शनि संपŸिा देता है, लेकिन लाभ के स्रोत कम करता है तथा वैराग्य भी देता है। तृतीय भाव में शनि पराक्रम एवं पुरुषार्थ देता है। शत्रु का भय कम होता है। चतुर्थ भाव में शनि हृदय रोग का कारक होता है, हीन भावना से युक्त करता है और जीवन नीरस बनाता है पंचम भाव में शनि रोगी संतान देता है तथा दिवालिया बनाता है। षष्ठ भाव में शनि होने पर चोर, शत्रु या सरकार जातक का कोई नुकसान नहीं कर सकता है। उसे पशु-पक्षी से धन मिलता है। सप्तम भाव में स्थित शनि जातक को अस्थिर स्वभाव का तथा व्यभिचारी बनाता है। उसकी स्त्री झगड़ालू होती है। अष्टम भाव में स्थित शनि धन का नाश कराता है। इसकी इस स्थिति के कारण घाव, भूख या बुखार से जातक की मृत्यु होती है। दुर्घटना की आशंका रहती है। नवम् भाव में शनि जातक को संन्यास की ओर प्रेरित करता है। उसे दूसरों को कष्ट देने में आनंद मिलता है। 36 वर्ष की उम्र में उसका भाग्योदय होता है। दशम स्थान का शनि जातक को उन्नति के शिखर तक पहुंचाता है। साथ ही स्थायी संपŸिा भी देता है। एकादश भाव में स्थित शनि के कारण जातक अवैध स्रोतों से धनोपार्जन करता है। उसकी पुत्र से अनबन रहती है। द्वादश भाव में शनि अपनी दशा-अतंर्दशा में जातक को करोड़पति बनाकर दिवालिया बना देता है। लघु कल्याणी या ढैया जब शनि गोचर में जन्म राशि से चतुर्थ भाव में भ्रमण करता है तो इस अवधि को लघु कल्याणी ढैया कहा जाता है। दो वर्ष छः माह की इस अवधि में जातक को अधिक कष्ट नहीं होता है। थोड़ी मानसिक परेशानी होती है। किंतु यदि शनि तुला, धनु, मकर, कुंभ या मीन का हो तो भवन और वाहन देता है। ढैया के अन्य शुभाशुभ फल: जब शनि गोचर में जन्म राशि से अष्टम भाव में जाता है तो व्यक्ति वात रोग से ग्रस्त होता है। उसके पैरों में दर्द की संभावना होती है, लेकिन दशा एवं महादशा अच्छी हो तो दर्द का अनुभव नहीं होता है। कन्या लग्न वाले को यह ढैया अपार संपŸिा देती है, क्योंकि द्वितीय भाव पर शनि की उच्च दृष्टि होती है। शनि की साढ़े साती: दीर्घायु लोगों के जीवन में साढ़े साती तीन बार आती है। प्रथमबार की साढे़ साती जातक के शरीर एवं मां-बाप को प्रभावित करती है। द्वितीय साढ़े साती कार्य, रुचि, आर्थिक स्थिति एवं पत्नी पर प्रभाव डालती है। तृतीय साढ़े साती जातक के स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव डालती है। किसी-किसी जातक की मृत्यु भी हो जाती है। साढ़े साती का भी अनुकूल प्रभाव: शनि की साढ़े साती हमेशा अशुभ ही हो, यह जरूरी नहीं। अपने विभिन्न चरणों में यह शुभ फल भी देती है। विभिन्न राशियांे में इसके शुभ प्रभाव का विश्लेषण यहां प्रस्तुत है। मेष: इस राशि के लोगों को अंतिम ढाई वर्षों के दौरान शुभ फल मिलता है। वृष: इस राशि वालों के लिए मध्य तथा अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं। इस दौरान जातक की उन्नति होती है और उस संपŸिा की प्राप्ति होती है। मिथुन: इस राशि के लिए आरंभ के ढाई वर्ष अनुकूल होते हैं। इस दौरान जातक की तीर्थ यात्रा होती है एवं शुभ कार्य पर धन खर्च होता है। कर्क: आरंभ के ढाई वर्ष शुभ होते हैं। सिंह: अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं। कन्या: अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं, आर्थिक कष्ट नहीं होता है। तुला: मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते हंै। वृश्चिक: आरंभ के ढाई वर्ष शुभ होते हैं। धनु: मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते हैं। मकर: आरंभ तथा अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हंै। कुंभ: मध्य एवं अंत के ढाई वर्षों के दौरान सुख-शांति मिलती है। मीन: इस राशि के लिए मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते हंै। विशेष: इस तरह ढैया एवं साढ़े साती शुभ तथा अशुभ दोनों फल प्रदान करती हैं। लेकिन जब गोचर में शनि तृतीय, षष्ठ या एकादश भाव में प्रवेश करता है तो पूर्ण अनुकूल फल प्रदान करता है। शनि की कुछ अन्य स्थितियों के शुभाशुभ फल- तृतीय भाव का शनि स्वास्थ्य लाभ, आराम तथा शांति प्रदान करता है। साथ ही, शत्रु पर विजय दिलाता है। षष्ठ भाव का शनि सफलता, भूमि भवन, संपŸिा एवं राज्य लाभ कराता है। एकादश भाव का शनि पदोन्नति, लाभ तथा मान सम्मान में वृद्धि कराता है। साथ ही भूमि तथा मशीनरी का लाभ देता है। जिन जातकों के जन्म काल में शनि वक्री होता है वे भाग्यवादी होते हैं। उनके क्रिया-कलाप किसी अदृश्य भक्ति से प्रभावित होते हंै। वे एकांतवासी होकर प्रायः साधना में लगे रहते हैं। धनु, मकर, कुंभ और मीन राशि में शनि वक्री होकर लग्न में स्थित हो, तो जातक राजा या गांव का मुखिया होता है और राजतुल्य वैभव पाता है। द्वितीय स्थान का शनि वक्री हो तो जातक को प्रदेश तथा विदेश से धन की प्राप्ति होती है। तृतीय भाव का वक्री शनि जातक को गूढ़ विद्याओं का ज्ञाता बनाता है, लेकिन माता के लिए अच्छा नहीं होता है। चतुर्थ भावस्थ शनि मातृ हीन, भवन हीन बनाता है। ऐसा व्यक्ति घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी नहीं निभाता और अंत में संन्यासी बन जाता है। लेकिन, चतुर्थ में शनि तुला, मकर या कुंभ राशि का हो तो जातक को पूर्वजों की संपŸिा प्राप्त होती है। पंचम भाव का वक्री शनि प्रेम संबंध देता है। लेकिन जातक प्रेमी को धोखा देता है। वह पत्नी एवं बच्चे की भी परवाह नहीं करता है। षष्ठ भाव का वक्री शनि यदि निर्बल हो तो रोग, शत्रु एवं ऋण कारक होता है। सप्तम भाव का वक्री शनि पति या पत्नी वियोग देता है। यदि शनि मिथुन, कन्या, धनु या मीन का हो तो एक से अधिक विवाहों अथवा विवाहेतर संबंधों कारक होता है। अष्टम भाव में शनि हो तो जातक ज्योतिषी दैवज्ञ, दार्शनिक एवं वक्ता होता है। ऐसा व्यक्ति तांत्रिक, भूतविद्या, काला जादू आदि से धन कमाता है। नवमस्थ वक्री शनि जातक की पूर्वजों से प्राप्त धन में वृद्धि करता है। उसे धर्म परायण एवं आर्थिक संकट आने पर धैर्यवान बनाता है। दशमस्थ शनि वक्री हो तो जातक वकील, न्यायाधीश, बैरिस्टर, मुखिया, मंत्री या दंडाधिकारी होता है। एकादश भाव का शनि जातक को चापलूस बनाता है। व्यय भावस्थ वक्री शनि निर्दयी एवं आलसी बनाता है। शनि दोष निवारण के सरल उपाय शनिवार को सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निवृŸा होकर गुड़ मिश्रित जल पीपल के वृक्ष की जड़ में दें एवं शाम को तिल के तेल का दीप पीपल के नीचे जलाएं। अगर जातक को कष्ट बहुत हो, तो उसे शनिवार को भोजन में नमक नहीं लेना चाहिए और आचरण पवित्र रखना चाहिए घर में दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ श्रद्धापूर्वक करें। जब तक शनि की महादशा अंतर्दशा, साढ़े साती अथवा ढैया का प्रकोप हो, तब तक मांस, मछली, शराब आदि का सेवन न करें। कौए एवं काले कुŸो को प्रति दिन एक बार भोजन दें। स काले घोड़े की नाल की अंगूठी सप्ताह भर गोबर में रखकर पवित्र करें और फिर उसे बायें हाथ की मध्यमा में शनिवार को धारण करें। यथाशक्ति काले उड़द, काले तिल, कुलथी, लोहा, काले कपड़े, जूते और छाते दक्षिणा सहित दान करें। शनिवार को ब्रह्मचर्य का पालन करें।