शनि शत्रु नहीं मित्र भी
शनि शत्रु नहीं मित्र भी

शनि शत्रु नहीं मित्र भी  

व्यूस : 13231 | जुलाई 2008
शनि शत्रु नहीं मित्र भी अशोक सक्सेना शनि की साढ़े साती एवं ढैया (लघु कल्याणी) को लेकर तथाकथित ज्योतिषियों ने इतनी भ्रांतियां फैला रखी हैं कि प्रत्येक जातक भयभीत होने पर मजबूर हो जाता है, जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं है। आइए, पहले शनि के स्वरूप एवं गुण पर नजर डालते हैं। शनि का शरीर लंबा, पतला तथा नसों से युक्त है। इसकी आंखें भूरी और गहरी तथा स्नायुएं पुष्ट हैं। यह एक वात प्रकृति का वृद्ध ग्रह है। इसका वर्ण काला है। स्वभाव से यह आलसी, चुगलखोर, निर्दयी, मलिन वेशधारी, चेष्टाहीन, अपवित्र, भयानक और क्रोधी है। इसके वस्त्र काले हैं। आयु, मृत्यु, भय, पतितता, दुख, अपमान, रोग, दरिद्रता, बदनामी, निंदित कार्य, अपवित्रता, विपत्ति, स्थिरता, नीच लोगों से प्राप्त सहायता, भैंसे, आलस्य, कर्ज, लोहे, दासता, कृषि के उपकरण, जेल यात्रा व बंधन का विचार शनि से करें। बली होने पर ये चीजें प्रतिकूल तथा निर्बल होने पर अनुकूल होती हैं। शनि का अर्थ है शनैश्चरा - धीरे-धीरे चलने वाला। शनि एक राशि में लगभग ढाई साल रहता है। यह कुंडली के भाव 3, 6, 7, 10 या 11 में हो तो शुभ फल देता है। यह तुला राशि में उच्च का होता है। मकर व कुंभ इसकी स्वराशियां हैं। मेष राशि में शनि नीच का होता है। बुध, शुक्र और राहु इसके मित्र एवं सूर्य, चंद्र तथा मंगल शत्रु हैं। इसका समय सारी रात तथा अंधेरा दिन और देवता भैरव हैं। भैंसा, कीकर, आक व शमी के वृक्ष लोहा, फौलाद, कोयला, नीलम उड़द एवं उड़द की दाल, काला नमक, आदि इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। यह श्मशान, वीरान जगह अथवा मदिरापान में वास करता है। शनि को भगवान शिवजी द्वारा मृत्युलोक के न्यायाधीश का पद दिया गया है। अतः यह व्यक्ति को उसके कर्मानुसार दंड देता है। लेकिन, इससे भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि व्यक्ति के कर्म अच्छे हों तो शनि उसे शुभ फल प्रदान करता है। यदि कर्म बुरे हों तो क्षमा नहीं करता दंड देता है। ठीक वैसे ही, जैसे एक न्यायाधीश करता है। ज्योतिष शास्त्र में यह माना जाता है कि ग्रहों में स्वतंत्र फल देने की क्षमता नहीं होती, वे तो जातक के पूर्व कर्मफल के भोग मात्र की सूचना देते हैं। जातक की लग्न पत्रिका में ग्रहों की स्थिति से बनने वाले योगों का निर्धारण उन्हीं कर्मफलों के अनुसार विधाता द्वारा किया जाता है। कुंडली में शुभ ग्रहों की श्रेणी में आने वाले ग्रहों चंद्र, बुध, गुरु एवं शुक्र भी भावों की स्थिति के अनुसार अनिष्टकारी हो सकते हैं। अतः सारा दोष अकेले शनि को ही देना उचित नहीं, न ही इसके साढ़ेसाती या ढैया के नाम पर भयभीत होने की जरूरत है। द्वादश लग्नों में शनि के फलों का वर्णन इस प्रकार है। 1. मेष लग्न में कर्मेश एवं आयेश होने से नैसर्गिक रूप से शनि अशुभ होता है, लेकिन धन के क्षेत्र में लाभ देता है। 2. वृषभ लग्न मंें केंद्र एवं त्रिकोण के स्वामी (नवम एवं दशम भाव) होकर प्रबल कारक होता है, अतः राजयोग कारक होकर सब सुख प्रदान करता हैं। मिथुन लग्न में शनि, अष्टमेश और नवमेश होता है, फिर भी शुभ फल देता है। कर्क लग्न के लिए सप्तमेश होने से स्वास्थ्य और आयु की हानि करता है। सिंह लग्न उसके पिता और शत्रु सूर्य का है, अतः भाव 6, 7 का स्वामी होने से रोग, ऋण तथा हानि देता है। स कन्या लग्न में शनि पंचम एवं छठे भाव का स्वामी होकर मिश्रित फल देता है। तुला लग्न में, चतुर्थेश एवं पंचमेश होने (केंद्र-त्रिकोण) से अति शुभ फल देता है। शनि वृश्चिक लग्न में तृतीयेश एवं चतुर्थेश होता है, इस कारण मिलाजुला फल देता है। धनु लग्न में यह द्वितीय एवं तृतीय भावों का स्वामी होता है, अतः अशुभ फल देता है। मकर एवं कुंभ लग्न में कर्क राशियों का स्वामी होने के कारण यह पूर्ण शुभ फल देता है। मीन लग्न में लाभेश एवं व्ययेश होने से यह धन तो देता है, पर स्वास्थ्य की हानि करा देता है। पंच महापुरुष योग: यदि कुंडली में शनि केंद्र में, अपनी राशि मकर या कुंभ में स्थित हो अथवा मूल त्रिकोण में, उच्च राशि में हो तो पंच महापुरुष योग के अंतर्गत ‘‘शश योग’’ बनता है। यह योग मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर या कुंभ लग्न में ही बनता है। इस योग में जन्मा जातक भले ही गरीब परिवार में पैदा हुआ हो, आगे चलकर शनि उसे सफल व प्रसिद्ध बना देता है। ऐसा जातक सुंदर एवं आकर्षक भी होता है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी (पूर्व प्रधानमंत्री), सरदार पटेल, कुंदन लाल सहगल, गुलजार, एम. करुणानिधि, मनोज कुमार, धर्मेंद्र, गोविंदा, कांशीराम आदि की कुंडली में शश योग है। यदि जन्म लग्न में शनि तीसरे, छठे या 11वें भाव में हो तो सामान्य रूप से हर प्रकार से जातक को सुख संपत्ति तथा लाभ प्रदान करता है। गोचर के शनि के साढ़े साती में विभिन्न राशियों पर पड़ने वाले प्रभाव का विवरण निम्न तालिका में प्रस्तुत किया गया है। तालिका से यह स्पष्ट हो जाता है कि शनि की साढ़े साती का केवल एक चरण ही अशुभ होता है, बाकी दो चरण सामान्य एवं शुभ होते हैं। केवल दो राशियों (कर्क और सिंह) में ही दो चरण अशुभ होते हैं। इस तरह साढ़ेसाती का केवल आधा भाग खराब होता है। पूरी साढ़ेसाती अशुभ परिणाम नहीं देती। फिर फल इस पर भी निर्भर करता है कि पत्रिका में शनि किस भाव में स्थित है वह राशि मित्र की है, शत्रु की है या स्वराशि है। इसके अतिरिक्त राशि में शनि के पाये के अनुसार भी परिणाम में परिवर्तन होता है। सोने और चांदी के पाये से हो तो फल शुभ और तांबे के पाये से हो तो सामान्य होता है। किंतु यदि लोहे का पाया है तो अतिकष्टकारक होता है। गोचर में शनि के साथ दूसरे बड़े ग्रह गुरु का गोचर भी देखा जाता है। यदि गुरु भी शत्रु राशि में गोचर कर रहा हो तो दोनों ग्रहों का परिणाम अशुभ होगा। यदि गुरु का गोचर शुभ भाव में हो तो जातक को कष्टों से कुछ राहत निश्चित रूप से प्राप्त होती है। शनि की अशुभता को कम करने हेतु जातक को अपना आचरण शुद्ध रखना चाहिए। सात्विक भोजन करना और मांस-मदिरा से दूर रहना चाहिए। अपने से बड़ों का आदर एवं सेवा तथा माता-पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। अपंग, असहाय लोगों तथा रोगियों की सहायता करनी चाहिए। इनके अतिरिक्त कई अन्य उपाय भी हैं, जैसे- छायादान करें, शनिवार को डकौत को तेल, लोहा और कपड़ा दक्षिणा सहित दान करें। गाय, कौए व कुत्ते को अपने खाने से पूर्व भोजन दें। संभव हो तो रोज, अन्यथा मंगलवार एवं शनिवार को हनुमान चालीसा का पाठ, एवं हनुमान जी का दर्शन करें तथा प्रसाद चढ़ाएं। पीपल के पेड़ के नीचे शनिवार की शाम को तेल का दीपक जलाएं तथा सात परिक्रमाएं करें। भैंसे को हरा चारा खिलाएं। शनि चालीसा का पाठ तथा ‘‘¬ शं शनैश्चराय नमः’’ मंत्रा का जप करें। महाराजा दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ करने से हर प्रकार के अभीष्ट की प्राप्ति तथा बाधाओं का अंत होता है। इस तरह इस विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि शनि केवल शत्रु ही नहीं, मित्र भी है। वह सदाचारियों, दूसरों के हितों का ध्यान रखने वालों, दयाभाव रखने वालों, बुजुर्गों एवं माता-पिता की आज्ञा का पालन करने वालों और असहायों, अपंगों, तथा रोगियों की सेवा सहायता करने वालों को अपनी साढ़े साती एवं ढैया अथवा दशा में शुभ फल देता है। इसके विपरीत आचरण करने वाले लोगों को वह अशुभ परिणाम देता है। तात्पर्य यह कि शनि राजा से रंक और रंक से राजा बनाने की सामथ्र्य रखता है। शनि देवाधिदेव भगवान महादेव का भक्त है। यदि भगवान शिव की पूजा एवं उनके ‘‘¬ नमः शिवाय’’ मंत्रा का एक माला जप नियमित रूप से करें तथा समय समय पर उन्हें दूध, दही, गंगाजल आदि से स्नान कराएं, रुद्राभिषेक कराएं तो शनि के शुभ फल अवश्य प्राप्त होंगे। साथ ही, अपने पूजा स्थल में एक पारद शिवलिंग और एक शनियंत्र की स्थापना भी करें।



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