भगवान् ने कहा है कि हृदय में स्थित मैं दीप जलाता हूं। जो ज्ञान अंतरात्मा से फूट पडे़, वह परम कृपा प्रसाद है, परम् मृदुल प्रेम है, परम अनुकम्पा है, परम कल्याणमयी ज्ञानगंगा है। ध्यान रहे परमात्मा बाह्य दर्शन नहीं देते, आंतरिक दीप जलाते हैं। यह आंतरिक बहाव है। यदि जीवन शिवमय हो जाए तो गंगा बह ही जायेगी। मन-मस्तिष्क से वह फूट पड़ेगी और नित्य अविनाशी ज्ञान प्रवाह बनकर जन्म-जन्म के संस्कार को धो देगी। जो इस गंगारूप प्रवाह के आसरे शिव तत्व तक पहुंचेगा वह शिव का और शिव जैसा ही हो जाएगा। उनके लिए भगवान कहते हैं कि मैं उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहं की अन्त्येष्टि करने आऊंगा। मैं स्वयं ज्ञानदीप जलाऊंगा। मैं स्वयं दीपावली मनाऊंगा। ‘‘तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञाननं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।’’ -श्रीमद्भगवतगीता-10/11 श्री कृष्ण कहते हैं- भक्तों पर विशेष कृपा करने के लिए उनके हृदय में निवास करने वाला मैं स्वयं ही प्रकाशमय तत्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा उनके अज्ञान जनित अंधकार को सर्वथा नष्ट कर देता हूं।
दूसरे शब्दों में उन मेरे भक्तों का किसी भी भांति कल्याण हो ऐसी अनुकंपा करने के लिए ही मैं उनके अंतःकरण में स्थित हुआ उनके अविवेकजन्य मिथ्या प्रतीतिरूप मोहमय अंधकार को प्रकाशमय विवेक-बुद्धि रूप ज्ञानदीपक द्वारा सदा-सर्वदा के लिए नष्ट कर देता हूं। उन भक्तों के हृदय में कोई भी सांसारिक चाह नहीं होती। इतना ही नहीं उनके अंतःकरण में मुझे छोड़कर मुक्ति तक की भी चाह नहीं होती। तात्पर्य यह है कि वे न तो सांसारिक वस्तुएं चाहते हैं और न पारमार्थिक। वे तो केवल प्रेम से मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेम पूर्वक भजन करने को देखकर ही मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूं कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा हो जाय, वे मुझसे कुछ लें। किंतु वे मुझसे कुछ लेते ही नहीं, तो स्वभावतः द्रवित हृदय होने के कारण केवल उन पर कृपा करने के लिए मैं उनके अज्ञानजन्य अंधकार को दूर कर देता हूं। मेरे द्रवित हृदय होेने का कारण यह है कि मेरे भक्तों में किसी प्रकार की लेशमात्र भी कमी न रहे।
मनुष्य अपना जो अस्तित्व मानते हैं कि ‘मैं हूं’ तो यह अस्तित्व प्रायः शरीर के साथ संबंध जोड़कर ही मानते हैं। अर्थात् तादात्म्य के कारण शरीर के बदलने में अपना बदलना मानते हैं। जैसे- मैं बालक हूं, मैं युवा हूं, मैं सशक्त हंू, मैं अशक्त हूं आदि। लेकिन इन विशेषणों को छोड़कर तात्विक दृष्टिकोण से इन प्राणियों का अपना जो अस्तित्व हो, वह शरीर से रहित है। प्रकृति से रहित है। देदीप्यमान तत्व ज्ञान दीपक के द्वारा उन प्राणियों के अज्ञान जनित अंधकार का मैं समूल नाश कर देता हूं। अभिप्राय यह है कि जिस अज्ञान के कारण ‘मैं कौन हूं और मेरा स्वरूप क्या है?’ ऐसी जो अज्ञानता रहती है, उस अज्ञानता का मैं नाश कर देता हूं अर्थात् तत्वबोध करा देता हूं। जिस तत्वबोध की महिमा वेद-शास्त्रों में गायी गयी है, उसके लिए उनको श्रवण, मनन, स्मरण, ध्यान आदि साधन नहीं करने पड़ते, कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्युत मैं स्वयं उनको तत्वबोध करा देता हूं। जहां भक्तिरूपी मां होगी, वहां उसके वैराग्य और ज्ञानरूपी बेटे रहेंगे ही।
इसी कारण भक्ति के आने पर समता-संसार से वैराग्य और अपने स्वरूप का बोध-ये दोनों स्वतः आ जाते हैं। तत्वबोध अथवा स्वरूप ज्ञान भगवान स्वयं देते हैं का तात्पर्य यह है कि भक्तों को इनके लिये इच्छा और प्रयत्न नहीं करना पड़ता, प्रत्युत भगवत कृपा से उनमें समता स्वतः आ जाती है। उनको तत्वबोध स्वतः हो जाता है। इसका आशय यह है कि जो साधनजन्य पूर्णता होती है, उसकी अपेक्षा भगवान द्वारा प्रदŸा पूर्णता बहुत ही विलक्षण होती है। इसमें अपूर्णता की गंध भी नहीं रहती है। कभी-कभी भक्तों की आलोचना दार्शनिक यह सोचकर करते हैं कि भक्तगण अंधकार में हैं, दर्शनिक दृष्टि से वे भोले-भाले तथा भावुक हैं; किंतु यह कथ्य सत्य नहीं। यदि कोई भक्त बड़े-बड़े विद्वान प्रणीत भक्ति साहित्य और व्यापक भक्ति दर्शन अथवा स्वगुरुज्ञान का लाभ न भी उठाये तो भी यदि वह अपनी भक्ति में एकनिष्ठ रहे, तो योगेश्वर स्वयं उसकी सहायता करते हैं। अतएव कृष्ण भावामृत् में रत एकनिष्ठ भक्त ज्ञान रहित नहीं हो सकता।
इसके लिए केवल इतनी ही योग्यता चाहिए कि वह पूर्ण कृष्ण भावनामृत में रहकर भक्तियोग संपन्न करता रहे। आधुनिक दार्शनिकों का विचार है कि बिना विवेक के शुद्ध ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। उनके लिए योगेश्वर का उŸार है कि जो लोग शुद्ध भक्ति में रत हैं, भले ही वे पर्याप्त शिक्षित न हों तथा वैदिक नियमों से पूर्णतया अवगत न हों, तो भी भगवान् उनकी सहायता करते ही हैं। कोरे मानसिक प्रयास से न तो भगवान को जाना जा सकता है, न ही प्राप्त किया जा सकता है। कोई लाखों वर्ष तक चिंतन-मनन, अध्ययन- अध्यापन करता रहे और भक्ति नहीं करता तथा वह परमसत्य का प्रेमी नहीं है, तो उसे कभी भी कृष्ण अथवा परम सत्य समझ में नहीं आयेंगे। परम सत्य कृष्ण केवल भक्ति से प्रसन्न होते हैं और अपने अचिन्त्य शक्ति से वे शुद्ध भक्त के हृदय में स्वयं प्रकट होते हैं। शुद्ध भक्त के हृदय में कृष्ण सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं और कृष्ण की यही उपस्थिति सूर्य प्रकार के समान है, जिसके द्वारा अज्ञान, अंधकार अविलंब दूर हो जाता है।
शुद्ध भक्त के प्रति भगवान् की यही विशेष कृपा है। करोड़ों जन्मों के भौतिक संसर्ग के दोष के कारण मनुष्य का हृदय भौतिकता के मैल से आच्छादित हो जाता है, किंतु जब मनुष्य भक्ति में लगता है और निरंतर हरि ऊँ तत्सत् का अजपाजप करता है तो वह मैल तुरंत दूर हो जाता है और उसे शुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाता है। परम लक्ष्य भगवान को इसी अजपाजप तथा भक्ति योग के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। अन्य किसी भी भांति मनोधर्म अथवा तर्क के माध्यम से नहीं। शुद्ध भक्त जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के लिए चितंन नहीं करता है और न उसे कोई अन्य विषयक चिंतन करने की आवश्यकता है क्योंकि हृदय से अंधकार हट जाने पर भगवान् स्वयं उसे सब कुछ प्रदान कर देते हैं। जैसे ही मनुष्य भगवान् के शरणागत होकर शुद्ध भक्ति में लग जाता है और भक्त की प्रेमभक्ति से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं वैसे ही भगवान अपने ऊपर भक्त का भार ले लेते हैं और भक्त सारे भौतिक प्रयासों से मुक्त हो जाता है।
यही श्रीमद् भगवद्गीता का सार है। स्मरण रहे, भगवान् ने कहा है कि हृदय में स्थित मैं दीप जलाता हूं। जो ज्ञान अंतरात्मा से फूट पडे़, वह परम कृपा प्रसाद है, परम् मृदुल प्रेम है, परम अनुकम्पा है, परम कल्याणमयी ज्ञानगंगा है। ध्यान रहे वे बाह्य दर्शन नहीं देते, आंतरिक दीप जलाते हैं। यह आंतरिक बहाव है। यदि जीवन शिवमय हो जाए तो गंगा बह ही जायेगी। मन-मस्तिष्क से वह फूट पड़ेगी और नित्य अविनाशी ज्ञान प्रवाह बनकर जन्म-जन्म के संस्कार को धो देगी। जो इस गंगारूप प्रवाह के आसरे शिव तत्व तक पहुंचेगा वह शिव का और शिव जैसा ही हो जाएगा। उनके लिए भगवान कहते हैं कि मैं उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहं की अन्त्येष्टि करने आऊंगा। मैं स्वयं ज्ञानदीप जलाऊंगा। मैं स्वयं दिवाली मनाऊंगा।