रूप चतुर्दषी व्रत
रूप चतुर्दषी व्रत

रूप चतुर्दषी व्रत  

व्यूस : 6801 | नवेम्बर 2010
रूप चतुर्दशी व्रत (5 नवंबर 2010 ) पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी रूप चतुर्दशी व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को करने का विधान है। जैसा कि नाम से ही विदित है, यह रूप सौंदर्य को प्रदान करने वाला व्रत है। इस दिन प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व ही जागकर नित्य नैमित्तिक क्रिया कलापों को पूर्णकर भक्त वत्सल, विश्वरूप, कृपानिधान, अतुलित रूप सौंदर्य युक्त, जगत् नियन्ता, मां देवकी के हृदेश्वर वसुदेव के प्राणेश्वर करोड़ों कामदेव की छवि को भी धूल-धूसरित करने वाले, करोड़ों-करोड़ों सूर्य की आभा से भी आभावान भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में विनयानवत् हो विधिवत् संकल्पादि क्रियाओं को करता हुआ, नवग्रहादि देवों का पूजन कर योगयोगेश्वर रूप-बल गुण, तेज-सौंदर्य निधान मंगलों का भी मंगल करने वाले, राधा रानी के प्रियतम, यशोदानन्दन, नंद के दुलारे भगवान् गोविंद का षोडशोपचार पूजन करें। दिव्य लीलाओं का श्रवण-स्मरण चिंतन मनन करें। ¬ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र का जप करें व इसी मंत्र से यज्ञ भी करें। अपने हृदय-मन-बुद्धि में दूसरों के प्रति शुद्ध विचार रखें। दूसरों की निंदा न करे, तो निश्चय ही ब्रज के रसिया, रसिकों के रसिक, लीलाबिहारी, रास बिहारी, श्री हरि भगवान् अच्युत निश्चय ही उसे अतुलनीय अद्भूत् रूप -माधुर्य प्रदान करते हैं। इसी संदर्भ में एक सुंदर कथा इस प्रकार हैः- कथा : एक समय भारत वर्ष की पवित्र पावन धरा पर स्थित हिरण्यगर्भ नामक नगर में एक परम कृपालु, दयालु एवं विकारों से रहित भगवत् तत्त्व में लीन योगिराज रहते थे। उन्होंने अपने मन को एकाग्र करके एक समय सदा सर्वदा के लिए पुराण पुरूषोत्तम भगवान् में लीन होना चाहा। अतः व पांचों कर्मेन्द्रियां, पांचों ज्ञानेन्द्रियां, ग्यारहवां मन एवं चित्त बुद्धि-अहंकार को एकाग्र कर समाधि अवस्था में लीन हो गए। समाधिस्थ हुए अभी कुछ ही दिवस व्यतीत हुए थे कि उनके शरीर में प्रारब्ध वश कीड़े पड़ गए। बालों में छोटे-छोटे कीड़ों ने अपना निवास बना लिया। आंखों के रोओं व भौहों पर जूएं सुशोभित होने लगीं। इस दशा को प्राप्त होकर योगिराज विचलित हो गये, धैर्य समाप्त हो गया तथा भयानक कष्टकारी दुखों से पीड़ित रहने लगे। दुख निवृत्ति का समाधान खोजते-खोजते भी कोई समाधान नहीं मिल सका। संपूर्ण देह दुर्गंध से पूर्ण हो गया। असहाय वेदना से योगिराज चीत्कार कर उठे। भगवत् कृपा से उसी समय वहां भक्त वत्सल भगवान विष्णु के परम भक्त श्री देवर्षि नारद जी हरिगुण गान की कर्णप्रिय मधुर ध्वनि को वीणा और खरताल पर बजाते हुए आ गए। तब योगिराज ने देवर्षि मुनीश्वर को सादर प्रेमसहित प्रणामकर पूछा- हे मुनिश्रेष्ठ! मैं श्री हरि अकारण करुणा करुणालय भगवान के चिंतन में निमग्न होना चाहता था, परंतु मेरी यह दशा क्यों हो गयी? तब दयानिधान नारद जी ने कहा- हे योगिराज! प्रथम तो यह कुछ प्रारब्ध संस्कार के कारण हुआ, दूसरा तुम चिंतन करना जानते हो परंतु देह आचार का पालन नहीं। इसी कारण तुम्हारी यह अशोभनीय दशा हुई है। तब दीनों पर दया करने वाले देवर्षि नारद जी से योगिराज ने पूछा- हे भगवन्! देह आचार-विचार का सर्वोत्तम साधन क्या है? इस पर भगवत् चरणारविन्दों में लीन देवर्षि बोले - योगिराज। देह आचार से अब तुम्हें कोई लाभ नहीं है। सर्वप्रथम तो तुम्हें जो मैं बताता हूं, उसे करना। फिर देह आचार के बारे में समयानुसार बताऊंगा। पुनः थोड़ा रुककर हरिहर भक्त नारद जी ने कहा कि जब कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दर्शी का आगमन हो, तब तुम उस दिन श्रीकृष्ण का दक्षता व पूर्ण रीति से पूजन ध्यान करना तथा आरती क्षमा प्रार्थना करना। ऐसा करने से बालधातिनी पूतना जैसी मायावी राक्षसी को भी अपना परमधाम प्रदान करने वाले जनार्दन भगवान् तुम पर अवश्य कृपा करेंगे और तुम्हारा शरीर पहले जैसा ही स्वस्थ और रूपवान हो जायेगा। योगिराज ने ऋषिवर के बताए अनुसार रूप चतुर्दशी व्रत का नियमानुसार पालन किया और उनका शरीर पहले जैसा ही हो गया और जगत के जीवों के लिए यह चतुर्दशी ''रूप चतुर्दशी'' के नाम से विखयात हो गयी। हे कृपानिधान, प्राणों के भी प्राण, आत्माराम, आप्तकाम, पूर्णकाम, परिपूर्णावतार भगवान् वासुदेव ! जैसा अपने योगिराज को स्वरूप प्रदान किया, वैसा सभी को प्रदान करना। शारीरिक अस्वस्थता निवारण व सौंदर्य कोष प्राप्ति हेतु इस व्रत का पालन अवश्य ही करें।



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