श्रीविद्या-आत्मविद्या-आत्मसमर्पण
श्रीविद्या-आत्मविद्या-आत्मसमर्पण

श्रीविद्या-आत्मविद्या-आत्मसमर्पण  

अर्चना शर्मा
व्यूस : 9442 | नवेम्बर 2010

श्री’ अर्थात् देवी और विद्या अर्थात ज्ञान। सीधे-सादे शब्दों में यह देवी की उपासना है। एक ऐसा ज्ञान है जिसे जानने के पश्चात कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य आत्म बोध है। अपने निज स्वरूप से अनभिज्ञ मनुष्य स्वयं को असहाय महसूस करता है। कर्म बंधन में फंसा जीवन इसी आत्म बोध के लिए जन्म जन्मांतर तक भटकता रहता है। इसी आत्मबोध के तंत्र का नाम श्री विद्या है। यह शाक्त परंपरा की प्राचीन एवं सर्वोच्च प्रणाली है। आदि काल से मनुष्य लौकिक और पारलौकिक सुखों के लिए विभिन्न देवी-देवताआंे की उपासना करता आया है। ऐसा अक्सर पाया जाता है कि भौतिक सुखों में लिप्त जीवन जीते हुए मनुष्य आत्मिक सुख से वंचित रहता है, कुछ अधूरा सा अनुभव करता है। यह भी माना जाता है कि आत्मिक अनुभूति के लिए भौतिक सुखों का मोह छोड़ना पड़ता है। एक साधारण मनुष्य के लिए यह भी संभव नहीं है।

ऐसे संदर्भ में श्री विद्या उपासना एक महत्वपूर्ण साधन है। यह देवी (शक्ति) की तीन अभिव्यक्तियों पर आधारित है। Û भोग, मोक्ष प्रदायिनी मां ललिता त्रिपुर सुंदरी का स्वरूप। Û श्री यंत्र Û पंचदशाक्षरी मंत्र श्रीविद्या एक क्रमबद्ध, रहस्यमयी पद्धति है जिसमें ाान, योग (प्राणायाम), भक्ति और देवी के पूजन-अर्चन का संुदर समावेश है। Û महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी: महाशक्ति त्रिपुरसुंदरी महादेव की स्वरूपा शक्ति हैं। इन्हीं के सहयोग से शिव सृष्टि में सूक्ष्म से लेकर स्थूल रूपों में उपस्थित हैं। सामान्य मनुष्य के लिए कण-कण में भगवान उपस्थित हैं। जगद् गुरु शंकराचार्य कृत सौंदर्य लहरी के प्रथम श्लोक में यह भाव प्रत्यक्ष दिखाई देता है। शिवः शक्तया युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि। अतस्त्वामाराध्यांहरिहरविरन्चयादिभिरपि प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति।। अर्थात- हे भगवती! जब शिव शक्ति से युक्त होते हैं तभी जगदुत्पन्न करने में समर्थ होते हैं।

यदि वे शक्ति से युक्त न हों तो सर्वथा हिलने या चलने में भी अशक्त रहते हैं। मां त्रिपुर सुंदरी की अलौकिक सुंदरता का वर्णन भी सौंदर्य लहरी में कई स्थानों (श्लोकों) में मिलता है। यूं तो मां शक्ति रूपा हैं, निराकार होकर भी सब में विद्यमान हैं, तो भी साधक के मन की एकाग्रता के लिए उनके स्थूल रूप का प्रयोजन है। शरदज्योत्सना शुद्धां शशियुत जटासूटमकुटाम्वरत्रासत्राणस्फटिक घटिका पुस्तककराम्। सकृत्र त्वां नत्वा कथमिव सतां संमिधते मधुक्षीर दªाक्षामधुरिणाः फणितयः।। शरदपूर्णिमा की चांदनी के समान शुभ्रवर्णा, द्वितीया के चंद्रमा से युक्त जटाजूट रूपी मकुटों वाली, अपने हाथों में वरमुद्रा, अभय मुद्रा, स्फटिक मणि की माला और पुस्तक धारण किए हुए आपको एक बार भी नमन करने वाले मनुष्य के मुख से मधु, क्षीर, द्राक्षा शर्करादि से भी मधुर अमृतमयी वाणी क्यों न झरेगी। आदि। मां की चार भुजाओं में पाश, अंकुश, इक्षुधनु और पंच पुष्पबाणों का ध्यान किया जाता है।

पाश अर्थात 36 तत्वों में प्रीति, अंकुश अर्थात क्रोध, द्वेष, इक्षुधनु - संकल्प-विकल्पात्मक क्रियारूप मन ही इक्षुधनु है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध पांच पुष्प बाण हैं। इच्छाशक्तिमयपाशमकुशंज्ञानरूपिणम्। क्रियाशक्तिमये बाणधनुषी दधदुज्जवलम्।। अर्थात पाश- इच्छाशक्ति, अंकुश-ज्ञान शक्ति तथा बाण और धनुष क्रियाशक्ति स्वरूप हैं। इन तीनों शक्तियों को अपने में धारण करती हैं मां त्रिपुर सुंदरी। किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए मनुष्यं को उपरोक्त शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है। प्रथम कार्य करने की इच्छा रखना, दूसरा ज्ञान (कार्य से संबंधित ज्ञान) और तीसरा कार्य को करना। स्पष्ट है कि इन तीनों के लिए आवश्यकता होती है मन की एकाग्रता की। मन की एकाग्रता प्रबल आत्मिक शक्ति और दृढ़ संकल्प के बिना असंभव है। अर्थात् आत्मिक शक्ति ही मां त्रिपुरा हैं। अदम्य आत्मिक शक्ति का परिचय उपासक को सशक्त बनाता है और वह असंभव को संभव कर देता है।

मां की उपासना मां का सीधा-सादा उपदेश है- स्वात्म शक्ति का ज्ञान क्योंकि यही पारसमणि है। श्री यंत्र: श्री विद्या उपासना चिह्न इसकी रचना जटिल है। यह एक बिंदु के चारों ओर अनेक त्रिकोणों का क्रमबद्ध समागम है। श्री चक्र मानव जीवन के अपने केंद्र ‘‘स्व’’ तक की यात्रा का प्रतीक है। बिंदु स्व का, आत्मशक्ति का- मां त्रिपुर सुंदरी का प्रतीक है। त्रिभुज आवरण हैं। श्री यंत्र की आराधना नव (9) आवरण आराधना कही जाती है। जैसे-जैसे आवरण हटते जाते हैं उपसक अपने ही करीब आता जाता है। अंत में सब आवरण हटते ही उपासक मां त्रिपुर सुंदरी (स्वआत्मिक शक्ति) में लीन हो जाता है। यह बाहर से भीतर की यात्रा कुंडलिनी जागरण से भी संबंध रखती है। आदि शक्ति मूलाधार चक्र में सर्पाकार रूप में सुप्त अवस्था में उपस्थित होती है। कुंडलिनी योग और प्राणायाम से जाग्रत हो षटचक्रों को भेदती हुई सहस्त्राशार में पहुंच जाती है। यहां उपस्थित शिव तत्व में लीन होकर उपासक को परमानंद की अनुभूति देती है।

महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि। मनोऽपिभ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं सहस्त्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे।। अर्थात्- हे भगवती! आप मूलाधार में पृथ्वीतत्व को, मणिपुर में जलतत्व को, स्वाधिष्ठान में अग्नितत्व को, हृदय में स्थित अनाहत में मरुतत्व को, विशुद्धि चक्र में आकाशतत्व को तथा भूचक्र में मनस्तत्व को इस प्रकार सारे चक्रों का भेदन कर सुषुम्ना मार्ग को भी छोड़कर सहस्त्रा पद्म में सर्वथा एकांत में अपने पति सदाशिव के साथ विहार करती हैं। -सौंदर्य लहरी (9) पंचदशाक्षरी मंत्र: शिवःशक्तिः कामः क्षितिरथं रविश्शीत किरणः स्मरो हंसश्शक्रस्तदनु च परामार हरयः अमी अहव्ल्लेखामिस्तिसृमिरवसानेषु घटिताः भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् अर्थात क-शिवः, ए- शक्ति, ई-कामः, ल-क्षिति, ह्रीं-ह्रल्लेखा,-ह,-रवि, स-सोम, क- रूमर, ह- हंस ल-शुक्रः हल्लेखा - हृीं, स-परा शक्ति, क-मारः ल-हरि, हल्लेखा-ह्रीं- इस प्रकार तीन कूटबीजों की सृष्टि होती है।

हे भगवती ! आपके नामरूप ये तीन कूट हैं। इनका जप करने से साधक का अतिहित होता है। -सौंदर्य लहरी (32) इस श्लोक मंे गुप्त रूप से पंचदशाक्षरी मंत्र का वर्णन है। इस मंत्र के तीन भाग हैं- वाग्भव कूट अर्थात् वाहनि कुंडलिनी, कामराजकूट- सूर्य कुंडलिनी और शक्ति कूट- सोम कुंडलिनी। उपरोक्त सभी विधियां सामान्य मनुष्य के लिए कठिन प्रतीत होती हैं। किसी भी ज्ञान या विद्या का मूल्यांकन उसकी व्यवहारिकता से किया जाता है। यदि किसी विद्या का प्रयोग मनुष्य रोजमर्रा के जीवन में अपने विविध कार्य कलापों के लिए न कर सके तो उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसके लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने अपने ग्रंथ सौंदर्य लहरी में एक सरल विधि बतायी है। जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचना गतिः प्रादक्षिण्यक्रमणमशनाद्या हुतविधिः। प्रणामः संवेशः सुखमखिल मात्मार्पणदुशा सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम्।। अर्थात- हे भगवती! आत्मार्पण दृष्टि से इस देह से जो कुछ भी बाह्यन्तर साधन किया हो, वह अपनी आराधना रूप मान लें और स्वीकार करें।

मेरा बोलना आपके लिए मंत्र जप हो जाए, शिल्पादि बाह्य क्रिया मुद्रा प्रदर्शन हो जाए, देह की गति (चलना) आपकी प्रदक्षिणा हो जाए, देह का सोना (शयन) अष्टांग नमस्कार हो तथा दूसरे शारीरिक सुख या दुख भोग भी सर्वार्पण भाव में आप स्वीकार करें। स्पष्ट है कि यह अत्यंत सरल मार्ग है। आत्म समर्पण भाव से यदि श्री विद्या उपासना की जाए तो शीघ्र ही मां त्रिपुरा उपासक के जीवन का संचालन स्वयं करती हैं। उपासक सुख, समृद्धि सफलता तो पाता ही है, सत् चित आनंद भी उसके लिए सुलभ और सहज हो जाते हैं अर्थात् भौतिक और आत्मिक सुख दोनों प्राप्त हो जाते हैं। यही भोग, मोक्ष प्रदायिनी मां की अपने भक्तों से प्रतिज्ञा है।



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