या देवी सर्व भूतेषुः व्यक्ति में शक्ति का उदय डाॅ. सुरेश मिश्रा आद्या शक्ति भगवती सर्वपूजित शक्ति के रूप में सर्वकाल सर्वत्र विद्यमान हैं हीं, परंतु कैसे, यदि इसका वैज्ञानिक आधार पर तात्विक विवेचन किया जाय तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंदर विद्यमान विभिन्न ईश्वरीय गुणों का प्रत्येक समय स्फुरण होता दिखाई देगा। इस लेख में महामाया के सहज हृदयंगम हो जाने वाले उसी बहु आयामी स्वरूप को चित्रित किया गया है। खुद पर और किसी परम शक्ति पर पूरा विश्वास होना, उसके उप-नजदीक, आसन-बैठना रहना, मनोवृत्ति को स्थिर करना ही शक्ति की उपासना है। खुद पर पूरा विश्वास पुख्ता करने और अपनी सोच को सरल और शुभ मार्ग पर आगे बढ़ाने का नाम शक्तिपर्व नवरात्र है। संघर्ष (महाकाली), स्वच्छता व ईमानदारी (महालक्ष्मी) और बुद्धि मानी (महासरस्वती) के समन्वय के साथ अपने कार्यक्षेत्र में खुद पर पूरा भरोसा रख आगे ही आगे बढ़ने का नाम शक्ति उपासना है। और स्पष्ट करें तो मन वचन कर्म में हिंसा से बचना, त्रिविध शुद्धि से उत्पन्न शोभा पाना और अच्छे बुरे का विवेक करने वाली सरस्वती का त्रिगुण रूप ही नवरात्र पर्व की शक्ति उपासना का मर्म है। जप, माला, तिलक, आरती, व्रत सब बाहरी आचरण हैं। हाथ में फिरती माला और चंहुदिस घूमता मन हो तो सारे धर्माचार बेकार हैं। वास्तव में धर्म हमें सबसे पहले अच्छा इन्सान बनाने की प्रक्रिया का नाम है। इस कारण आज नवरात्र पर्व को व्यक्ति के लिहाज से समझने की तमन्ना बलवती हो चली है। आइए, देवी सूक्त के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। 1. ज्योत्स्नायै चेन्दु रूपिण्यै यानि माता का रूप देवीसूक्त में कभी रौद्र है तो अगले ही पल चांदनी सा शीतल है। माता में यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है। आदमी और औरत के सही स्वस्थ और कल्याणकारक रिश्ते वास्तव में पितृत्व मातृत्व पाकर कृतार्थ होने से ही है। नवरात्र का यही पहला सबक है- परिवार की शक्ति को पहचान कर उसे बढ़ाने और संवारने का ईमानदार प्रयास। 2. बुद्धिरूपेण संस्थिता चेतना रूप में सबके भीतर बसने वाली यह शक्ति सबसे पहले बुद्धि रूप में प्रकट होती है। यदि बुद्धि ठिकाने पर है, आपकी सोच स्वच्छ और छलावे से रहित है तो सब दुख आखिर में सुख देकर ही जाएंगे। शंख और बांसुरी दोनों में अपनी आवाज या सुर नहीं हैं। उन्हें कोई और ही बुलवाता है। लेकिन भीतर से घुमावों से भरा शंख सिर्फ सीधी सपाट आवाज ही निकाल सकता है, जबकि भीतरी गांठो (घुमाव, छल-छिद्र, दुराव-छिपाव) से मुक्त खुरदरे बांस की बांसुरी से मीठे सुरीले, मनमोहन सुर निकलते हैं। दूसरी सीख है - जंह सुमति तहं संपत्ति नाना यानि उत्तम बुद्धि से अच्छे विचार, विचारों के सदाचरण और सत्कर्म से अच्छे फल मिलते हैं। 3. कान्तिरूपेण संस्थिता अर्थात् क्रमशः मन और विचार शुद्ध, सरल, ममतामय हैं तो निद्रा, भूख, प्यास आदि सारी बाहरी क्रियाएं नियमित होकर यह सारी दुनिया आपको प्यारी लगने लगेगी और आपके चेहरे पर ओज और दैवीय तेज की कान्ति खुद ब खुद आ जाएगी। इसीलिए देवीसूक्त के 10-19 श्लोकों में क्रमशः नींद, भूख, प्यास, शोभा आदि रूप में ही देवी को नमस्कार करते हुए बीसवें श्लोक में उन्हें कान्तिरूप माना है। 4. लक्ष्मी रूपेण संस्थिता के माध्यम से ऋषि मार्कण्डेय (सप्तशती के प्रवक्ता) हमें यही पाठ पढ़ाते हैं कि उक्त सारी बातें हम अपने भीतर पैदा करने की ईमानदार कोशिश करें तो देवी हमारे भीतर और बाहर लक्ष्मी रूप में विराजमान हो जाएंगी। ऐसे व्यक्ति के पास दुनियादारी के नजरिए से बेशक कम नगदनारायण हो पर वे लोग जनसमुदाय के लिए उपयोगी व मूल्यवान होते हैं। 5. वृत्तिरूपेण संस्थिता यानि नवरात्र की पांचवी शिक्षा है कि अपनी रोजी, रोटी, व्यवसाय व्यापार को पूजा, इबादत, व्रत, तपस्या का दर्जा देना चाहिए। जो लोग अपने पेशे के साथ पूरी लगन और ईमानदारी के साथ बर्ताव करते हैं, वे बिन भौतिक पूजा, अर्चन के व्रत का पूरा फल पा जाते हैं। वे कृष्ण भगवान के वचन से योगः कर्मसु कौशलम् के अनुसार सच्चे येागी की तरह पूजनीय आदरणीय बन जाते हैं। 6. स्मृतिरूपेण संस्थिता के द्वारा अगले ही श्लोकमंत्र में हमें हिदायत दी गई है कि संपर्क में आने वालों की अच्छी बातें, अच्छा व्यवहार सदा याद रखें। जो कुछ बुरा हुआ है उसे भूल जाएं और आगे बढ़ें। बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधी ले। सामने वाले के कर्मों का लेखा-जोखा रखना परमशक्ति का काम है। तदनुसार उसका कोई कर्म पाप की श्रेणी में है तो उसका फल परमात्मा देगा। अपराध है तो उसका फल समाज या अदालत देगी। हम उसके लिए अधिकृत नहीं हैं। हमें उसके लिए मानसिक, जुबानी या जमीनी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। दूसरों की गलतियों को देखकर हम अपना धैर्य न खोएं। 7. शान्तिरूपेण संस्थिता सब तरह से सफल योग्य लायक खुशहाल होकर हम दया, उदारता, ममता को न भूलें। जैसा व्यवहार हम खुद के लिए सहन नहीं कर सकते वैसा हम किसी के साथ न करें। जैसे को तैसा करना तो जंगली, सड़क-छाप लोगों का काम है। शक्तिसम्पन्न, ताकतवर लोग तो सामने वाले को उसके दुष्कर्मों का अहसास भर कराना ही उचित समझते हैं। इसीलिए देवी को क्षान्ति यानि क्षमा रूप में नमस्कार करते हुए क्षमा करने वाले का दर्जा बड़ा बताया गया है। 8. तुष्टिरूपेण संस्थिता द्वारा व्यवसाय में शुभ और लाभ का समन्वय बना अपने और सामने वाले के शुभ और लाभ का साथ-साथ ख्याल रखते हुए जीवन में कहीं किसी मोड़ पर तसल्ली (संतोष) का लक्ष्य तय कर लें। सदा लोभ तृष्णा, और कमाने-बचाने की हाय-हाय से ऊपर उठने की बात तय कर लें। इसी में शांति और सुख है। 9. मातृरूपेण संस्थिता द्वारा अंत में फिर माता रूप में नमस्कार करते हुए ऋषि औरत-मर्द के रूप में मतभेद, मनभेद और टकराव से परे जाकर, मन को बांसुरी-सा सुरीला सरल बनाते हुए रिश्ते की सुखद परिणति के रूप में संतान का मुह देखकर टूटे या टूटते घोंसले को फिर फिर बनाए रखने की शिक्षा देते हैं। रहिमन फिर फिर पोहिए टूटे मुक्ताहार। 10. इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या कहकर हमें इन्द्रियों को अनुशासित रखते हुए आत्मानुशासन सिखाकर तन, मन, कर्म, बुद्धि, चित्त और आत्मा का क्रमिक शोधन करते रहने के उत्साह पर्व में सब प्राणियों में व्याप्त चेतना रूप शक्ति के सम्मुख नतमस्तक होने का पाठ पढ़ाते हैं- नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः। और अंत में हाथ में कलावे का बंधा गुच्छा, फैशन के जमाने में नग नगीने, मंदिर में पूजा-अर्चना करते युवक युवतियां, इंटरनेट पर पूजा-अर्चना के व्यवसाय में जोरदार भागीदारी, प्रवचनों में बढ़ती इनकी तादाद से आज की नई पीढ़ी में गर्मागर्म चर्चा का विषय और स्टेटस सिंबल बने रहने वाले नवरात्र पर उनके नजरिए से कुछ आम सवालों के साथ दो-दो हाथ करते हैं। नव रात्र या नवरात्रि? संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण है। नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने से द्वंद समास के कारण नवरात्र शब्द ही शुद्ध है। नवरात्र क्या है? धरती द्वारा सूर्य की परिक्रमा के दौरान एक साल की चार संधियां हैं। उनमें मार्च और सितंबर के लगभग पड़ने वाले गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय को आयुर्वेद में यमराज का जबड़ा बताया है। इन दिनों रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में ही अक्सर मर्ज बढ़ते हैं अतः उस दौरान स्वस्थ रहने, नौ द्वारों वाले इस शरीरदुर्ग को शुद्ध रखने मुकम्मल करने की प्रक्रिया का नाम नवरात्र है। नौ रात या नौ दिन? अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानि नवरात्र नाम सार्थक है। यहां रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र रानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। ये नौ ही क्यों हैं? रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है। इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है। इन मुख्य इंद्रियों में अनुशासन, स्वच्छता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को सारे साल के लिए अच्छी तरह से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इसलिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे हैं। 5. व्रत क्यों रखें? शरीर को सुचारु रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि रोजाना तो हम करते ही हैं लेकिन कभी इसके अंग प्रत्यंगों की पूरी सर्विस करनी भी जरूरी है। इसके लिए हर छमाही पर व्रत रखकर भीतरी सफाई का अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार व्रत से शरीर की शुद्धि, साफ-सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उससे उत्तम विचार, अच्छे विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्र और क्रमशः मन शुद्ध होता है। साफ सुथरे मनमन्दिर में ही तो प्रीतम यानि परमात्मा की शक्ति का स्थायी निवास हो सकता है। नवदुर्गा क्या है? नौ दिन यानि हिंदी महीने चैत्र और असौज के शुक्ल पक्ष की पड़वा यानि पहली तिथि से नौवीं तिथि तक हर दिन की एक देवी यानि नौ द्वारों वाले दुर्ग के भीतर बसने वाली जीवनी-शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप ये हैं- शैलपुत्री, ब्रह्मचारिण् ाी, चंद्रघंटा, कूष्माझडा, स्कन्दमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, मागौरी, सिद्धिदात्री। वास्तव में इनका नौ जड़ी बूटी या खास व्रत की चीजों से भी ताल्लुक है। इन्हें नवरात्रों में व्रत में प्रयोग किया जाता है। कुटूटू (शैलान्न), दूध दही, चैलाई (चंद्रघंटा), पेठा (कूष्माण् ड), श्यामक चावल (छठी देवी यानि स्कन्दमाता का भोज्य), हरी तरकारी (कात्यायिनी), काली मिर्च तुलसी (कालरात्रि), साबूदाना (महागौरी), आंवला (सिद्धिदात्री) क्रमशः नौ कुदरती और जंगल में पैदा होने वाले नौ पदार्थ व्रत खाद्य हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में भी इन पदार्थों को शरीरशोधन में इस्तेमाल करते हैं। 7. जब व्रत न रख सकें व्रत नाम है संकल्प, प्रतिज्ञा, नियम या रिजोल्यूशन का। यदि दिनचर्या या अपने तन की स्थिति के कारण सारे व्रत न रख सकें तो सुविधानुसार 9, 7, 5, 3 या 1 व्रत रख सकते हैं। यदि एक व्रत न रख सकें तो इन दिनों कम से कम शरीरद्वारों के सुखभोग या दुरुपयोग से बचें। जैसे, 1 जुबान का संभल कर प्रयोग और चटोरेपन पर नियंत्रण, 2. बुरा न सुनना, 3. चुगली या शिकायत न करना, 4. शुद्ध सात्विक नजर, 5 समय पर खाना, पीना, सोना और फ्रेश होना, 6. मल मूत्र के वेग को न रोकना, 7. रोमांस फलर्ट और काम संबंधों से बचना। 8. अष्टमी या नवमी? यह अपनी कुल परंपरा के अनुसार तय किया जाता है। भविष्योत्तर पुराण और देवी भागवत के अनुसार बंटें परिवारों में या पुत्र की चाहना वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए। वैसे दोनों ही तिथियां और दशहरे के चार दिन बाद की चैदस इन तीनों की महत्ता दुर्गासप्तशती में साफ कही गई है। 9. जब कन्याओं को भोजन न दे सकें? नौ दिनों तक एक कन्या रोज बढ़ाकर भोजन कराना या उन्हें भेंट देना अथवा नौ दिनों तक संभव हो तो रोज नौ कन्याओं और एक लड़के को भोज्य पदार्थ देना उत्तम है। अष्टमी या नवमी को एक बार नौ कन्याओं का पूजन मध्यम विधान है। अकेले रहने वाले या काम के घंटों के कारण कन्याओं को पूरी विधि से बैठाकर भोजन कराना संभव न हो तो आप सुविधानुसार कन्याओं को तैयार भोज्य पदार्थों के अलावा ये पदार्थ भी भेंटकर सकते हैं- कंघा, हेयर बैंड, क्रीम, तेल, शीशा, काॅपी, पेंसिल, खिलौना, बर्तन, कपड़ा, मिठाई, टाॅफी, फल, फूल, रुपया, या कोई अन्य उपयोगी सामान। 10. खास मन्नत के लिए क्या करें? इन दिनों सप्तशती के कम से कम नौ पाठ करने-करवाने का चलन है। जब ऐसा करना संभव न हो तो उक्त आसान अनुशासनात्मक बातों के साथ घर में जौ या खेतड़ी बोकर, दीपक जलाएं और पास में जल का लोटा रखकर इनमें से किसी मंत्र का रोजाना 10, 28 या 108 बार सहूलियत के अनुसार जप करें- ओं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। या जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।। अथवा केवल कंुजिका स्तोत्र का पाठ करना, दुर्गा चालीसा पढ़ना और दुर्गा की आरती ही कर लेना भी क्रमशः सरल से सरलतर मार्ग है। सुबह, शाम या रात जैसा संभव हो, समय तय कर लें और समय के नियम का पालन जरूर करें। जप के बाद जल को किसी पौधें में डालें या सूर्य को चढ़ा दें।