कई व्याधियों की औषधि है, करंज डाॅ. हनुमान प्रसाद उŸाम प्रायः मध्य भारत एवं दक्षिण भारत में पाया जाने वाला करंज का सदाबहार विशाल वृक्ष 10 से 30 मीटर ऊंचा तथा डेढ़ से ढाई मीटर मोटे तने वाला होता है। इसकी छाल हल्का-सा पीलापन लिए तथा पŸिायां टहनियांे पर 10-18 सेमी. लंबी सींकांे पर लगी 5-7 की संख्या में होती हैं। इसके फूल नीले, सफेद और बैंगनी रंग के होते हैं। करंज का वृक्ष पर्यावरण सौंदर्य के साथ व्याधि शमन के लिए औषधीय आधार से अत्यधिक लाभकारी है। इसके पŸाों, तना, जड़ की छाल और बीजों को चिकित्सा प्रयोग में लिया जाता है। तेल गठिया तथा चर्म रोगों पर दवा का काम करता है तथा जलाने के काम में भी आता है। आयुर्वेदिक मत से इसकी जड़ और छाल गरम, कडु़वी, कसैली, व्याधियों में लाभकारी है। अर्बुद, अर्श, घाव, फोड़े, खुजली, जलोदर, पेट रोग, प्लीहा, पेशाब रोग एवं वात, पिŸा और कफ रोगों को ठीक करती है। इसके कोमल पŸो अग्निवर्धक, विषशामक एवं कृमिशामक होते हैं। ये भूख बढ़ाने वाले तथा कफ, वात, बवासीर एवं त्वचा व्याधियों में लाभप्रद है। इसके पŸो गरम, पाचक, विरेचक, कृमिनाशक और पिŸाशामक होते हैं साथ ही बवासीर (अर्श) के घाव को दूर करता है। इसके फूल वात, पिŸा, कफ और मधुमेह में हितकारी है। इसके बीज उष्ण, कड़वे, कृमिनाशक, खून शोधक, रक्तवर्धक एवं दिमाग तथा नेत्र रोगों में लाभ देने वाले होते हैं। ये कान दर्द, कटिवात, पिŸा, कफ, अर्श, जीर्ण ज्वर, जलार्बुद एवं पेशाब के रोगों में लाभकारी है। इसके बीजों का तेल गरम, कृमिनाशक और आंखों के रोगों, आमवात, धवल रोग, खुजली, घाव एवं त्वचा व्याधियों का शमन करता है। इसकी राख दांतों को मजबूत करती है। इसके पŸाों की पुल्टिस को कृमियुक्त घावों पर लगाया जाता है। इसकी मूल (जड़) के रस का प्रयोग दूषित घावों को साफ करने में किया जाता है। यह भगंदर के घावों को भी भरता है। इसको नारियल के साथ तथा चूने के पानी के साथ रोजाना सबेरे सूजाक रोग के शमन में दिया जाता है। चर्म रोगों में इसका तेल अत्यधिक हितकारी है। यह खाज, विसर्पिका तथा इसी तरह की दूसरी त्वचा व्याधियों में अधिक लाभकारी होता है। चरक के अनुसार जल के साथ इसके फल की लुगदी बनाकर कुष्ठ एवं विसर्पिका व्याधियों में देते हैं। सुश्रुत के अनुसार इसका तेल व्रणदार कुष्ठ मंे हितकारी है। इसके औषधीय प्रयोग निम्नवत हैं। करंज के बीज 50 ग्राम, सौंठ 50 ग्राम, हींग 10 ग्राम को एरंड तेल में पीसकर गोली बनाकर गर्म जल से सेवन करने से किसी भी तरह की उदर पीड़ा शीघ्र समाप्त हो जाती है। शीत-पिŸा में करंज के पŸो के रस को दही, नमक एवं कालीमिर्च के साथ प्रयोग करें। करंज की पŸिायों का स्वरस 10 ग्राम लेने से श्लीपद (फाइलेरिया) खत्म हो जाता है। करंज से सूतिका बुखार समाप्त हो जाता है। गर्भाशय का संकोचन, उदर पीड़ा की समाप्ति एवं खून का ठीक ढंग से निस्सारण होता है। इसके प्रयोग से गर्भाशय का घाव भर जाता है। ज्वर के लिए बीजों या पŸिायों का चूर्ण एक ग्राम घी में भूनकर दें। इसके फूलों की कलियों को घी में भूनकर खाना खाने के बाद सेवन करें और तत्पश्चात उल्टी करा दें तो अम्लपिŸा नष्ट हो जाता है। गनोरिया व सिफलिस में इसकी जड़ का स्वरस, नारियल के दूध व चूने का जल मिलाकर इस्तेमाल कराया जाता है। दुर्गंधयुक्त घाव-शोधन एवं नाड़ी व्रण को भरने के लिए इसकी जड़ का रस लगाना चाहिए। इस तरह करंज विविधता लिए हुए प्राकृतिक देन है।