श्री कूर्म जयंती व् व्रत
श्री कूर्म जयंती व् व्रत

श्री कूर्म जयंती व् व्रत  

व्यूस : 6740 | मई 2012
श्री कूर्म जयन्ती व व्रत (06.05.2012) पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी श्री कूर्म जयन्ती व व्रत वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाता है। मतान्तर से वैशाख कृष्ण अमावस्या श्री हरि अनंत हरिकथा अनन्ता के अनुसार मान्य है। समुद्र-मंथन के समय कूर्म भगवान् का प्राकट्य समुद्र के अंदर सायंकाल की बेला में देव दानवों की सहायतार्थ हुआ था। कर्मों के सकुशल संचालन की निर्विघ्नता के लिए व जलचर जीवों से रक्षार्थ इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए। रोग-शोकादि के निवारणार्थ तथा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूपी पुरूषार्थों की प्राप्ति हेतु इस दिन प्रातःकाल में दैनिक क्रियाकलापों से निवृŸा होकर बिना कुछ ग्रहण किये, सूर्य नारायण भगवान व व्रत के देवता भगवान् विष्णु के अवतार कूर्म भगवान् को प्रणाम कर, निष्काम या सकाम व्रत का संकल्प लें कि ‘आज मैं अमुक कामना-सिद्धि के लिए या भगवत् चरणारविंद प्रीत्यर्थ कूर्म-व्रत का पालन करुंगा या करुंगी।’ संकल्पोपरांत त्रैलोक्याधिपति त्रिभुवनकमल सुंदर भगवान् कच्छप (कूर्म) के दिव्य नाम मंत्रों का स्मरण करते हुए सांयकालीन बेला में पुनः शुद्ध आचरणयुक्त होकर स्वस्तिवाचन, संकल्प तथा पुण्याहवाचन कर्मों को करते हुए गणेश, अम्बिका, वरूण, नवग्रहादि देवों तथा प्रधान-देवता कच्छप भगवान् का षोडशोपचार पूजन करें। भगवान् कूर्म के लीलावतरण का प्रसंग श्रवण करें। पुनः प्रसाद वितरण कर, संभव हो तो निश्चय ही सद्गुण संपन्न ब्राह्मण को भोजन कराकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें। भगवान कूर्म लीलावतरण चरित्र: ‘जिस समय भगवान् ने कच्छप रूप धारण किया था और उनकी पीठ पर बड़ा भारी मंदराचल मथानी की तरह घूम रहा था, उस समय मंदराचल की चट्टानों की नोक से पीठ के खुजलाये जाने के कारण भगवान् को तनिक सुख मिला। उन्हें नींद-सी आने लगी और उनके श्वास की गति थोड़ी बढ़ गयी। उस समय उस श्वास-वायु से जो समुद्र के जल को धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है। आज भी समुद्र उसी श्वास वायु के थपेड़ों के फलस्वरूप ज्वार-भाटों के रूप में दिन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अब तक विश्राम न मिला। भगवान् की वही परम प्रभावशाली श्वास वायु आप लोगों की रक्षा करे।’ एक बार भगवान् शंकर के अंशावतार महर्षि दुर्वासा ने सानंद पृथ्वी तल पर विचरण करते हुए एक विद्याधरी के हाथ में अत्यंत सुवासित माला को देखकर उससे कहा। ‘सुंदरी! अपने हाथ में सुशोभित संतानक-पुष्पों की अत्यंत सुंगधित दिव्य माला मुझे दे दो।’ विद्याधरी ने महर्षि के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर उनके कर-कमलों में माला देते हुए अत्यंत विनम्रतापूवर्क मधुर वाणी में कहा। ‘मेरा परम सौभाग्य है।’ ‘‘मैं तो कृतार्थ हो गयी।’’ महर्षि ने माला लेकर अपने गले में डाल ली और आगे बढ़ गये। उधर से त्रैलोक्याधिपति देवराज इंद्र ऐरावत पर चढ़कर देवताओं के साथ आ रहे थे। महर्षि दुर्वासा ने प्रसन्न होकर वह अत्यंत सुंदर और सुंगधित माला अपने गले से निकाल शचीपति इंद्र के ऊपर फेंक दी। सुरेश्वर ने वह माला ऐरावत के मस्तक के ऊपर डाल दी। ऐरावत ने उस सुवासित माला को सूंड से सूंघा और फिर उसे पृथ्वी पर फेंक दिया। यह दृश्य देखकर महर्षि दुर्वासा के नेत्र लाल हो गये। उन्होंने अत्यंत कुपित होकर सहस्राक्ष को शाप दे दिया- ‘रे मूढ! तूने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया, इसलिए तेरा त्रिलोकी का वैभव नष्ट हो जायगा। तूने मेरी दी हुई माला को पृथ्वी पर फेंका है, इसलिए तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायेगा।’ भयाक्रांत शचीपति ऐरावत से उतरकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और हाथ जोड़कर अनेक प्रकार की स्तुतियों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करने लगे। तब महर्षि दुर्वासा ने कहा- रे इंद्र! तू बारंबार अनुनय-विनय का ढोंग क्यों करता है? तेरे इस कहने-सुनने से क्या होगा? मैं तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता।’ महर्षि दुर्वासा वहां से चले गये और इंद्र भी उदास होकर अमरावती पहुंचे। उसी क्षण से अमरेंद्र सहित त्रैलोक्य के वृक्ष तथा तृण-लतादि क्षीण होने से श्रीहत एवं नष्ट होने लगे। त्रिलोकी के श्रीहीन एवं सŸवशून्य हो जाने से प्रबल पराक्रमी दैत्यों ने अपने तीक्ष्ण अस्त्रों से देवताओं पर आक्रमण कर दिया। देवगण पराजित होकर भागे। स्वर्ग दानवों का क्रीडा-क्षेत्र बन गया। असहाय, निरुपाय एवं दुर्बल देवताओं की दुर्दशा देखकर इंद्र, वरुण आदि देवता समस्त देवताओं के साथ सुमेरु के शिखर पर लोक पितामह के पास पहुंचे। संकट-ग्रस्त देवताओं के त्राण के लिए चतुरानन सबके साथ भगवान् अजीत के धाम वैकुण्ठ में पहुंचे। वहां कुछ भी न देखने पर उन्होंने वेदवाणी के द्वारा श्रीभगवान् की स्तुति करते हुए प्रार्थना की। देवताओं के स्तवन से संतुष्ट होकर अमित तेजस्वी, मंगलधाम एवं नयनानंददाता भगवान् विष्णु मंद-मंद मुस्कराते हुए उन्हीं के बीच प्रकट हो गये। देवताओं ने पुनः दयामय, सर्वसमर्थ प्रभु की स्तुति करते हुए अपना अभीष्ट निवेदन किया। ‘दैत्यों द्वारा परास्त हुए हम लोग आतुर होकर आपकी शरण में आये हैं। आप हम पर प्रसन्न होइये और अपने तेज से हमें सशक्त कीजिए।’ जगत्पति भगवान् विष्णु ने मेघ गंभीर स्वर में देवताओं से कहा। ‘पुनः सशक्त होने के लिए तुम्हें जरा-मृत्युनिवारिणी सुधा अपेक्षित है।’ ‘अमृत समुद्र-मंथन से प्राप्त होगा। यह काम अकेले तुम देवताओं से नहीं हो सकता। इसके लिए तुम लोग सामनीति का अवलंबन कर असुरों से संधि कर लो। अमृत पान के प्रश्न पर वे भी सहमत हो जायेंगे। फिर समुद्र में सारी औषधियां लाकर डाल दो। इसके उपरांत मंदरगिरि को मथानी एवं नागराज वासुकि को नेती बनाकर मेरी सहायता से समुद्र-मंथन करो। तुम्हें निश्चय ही सुफल प्राप्त होगा; पर आलस्य और प्रमाद त्याग शीघ्र ही अमृत प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो।’ लीलाधारी प्रभु वहीं अंर्तध्यान हो गये। इंद्रादि देवता दैत्यराज बलि के समीप पहुंचे। बुद्धिमान् इंद्र ने उन्हें अपने बंधुत्व का स्मरण कराया और भगवान के आदेशानुसार बलि से अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र-मंथन की बात कही। ‘अमृत में देवताओं और दैत्यों का समान भाग होगा’- इस लाभ की दृष्टि से दैत्येश्वर बलि ने सुरेंद्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वहां उपस्थित अन्य सेनापति शंबर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी दैत्यों ने भी इसका समर्थन किया। फिर तो धराधाम की सारी औषधियां, तृण और लताएं क्षीरसागर में डाल दी गयीं। देवताओं और दैत्यों ने अपना मतभेद त्यागकर मंदरगिरि को उखाड़ा और उसे क्षीराब्धि तट की ओर ले चले; किंतु महान् मंदराचल उनसे अधिक दूर नहीं जा सका। विवशतः उन लोगों ने उसे बीच में ही पटक दिया। उस सोने के मंदरगिरि के गिरने से कितने ही देव और दैत्य हताहत हो गये। देवों और दैत्यों का उत्साह भंग होते ही भगवान् गरुड़ध्वज वहां प्रकट हो गये। उनकी अमृतमयी कृपादृष्टि से मृत देवता पुनः जीवित हो गये और उनकी शक्ति भी पूर्ववत् हो गयी। दयाधाम सर्वसमर्थ श्रीभगवान् ने एक हाथ से धीरे से मंदराचल को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रखा और देवता तथा दैत्यों सहित जाकर उसे क्षीरोदधि के तट पर रख दिया। देवता और दैत्यों ने महान् मंदरगिरि को समुद्र में डालकर नागराज वासुकि की नेती बनायी। सर्वप्रथम उन्हें देखकर अन्य देवता भी वासुकि के मुख की ओर चले गये। दैत्यों ने विरोध करते हुए कहा- ‘पूंछ सर्प का अशुभ अंग है। ‘हम इसे नहीं पकड़ेंगे’ और दैत्यगण दूर खड़े हो गये। देवताओं ने कोई आपŸिा नहीं की। वे पूंछ की ओर आ गये और दैत्यगण सगर्व मुख की ओर जाकर सोत्साह समुद्र-मंथन करने लगे। किंतु मंदरगिरि के नीचे कोई आधार नहीं था। इस कारण वह नीचे समुद्र में डूबने लगा। यह देखकर अचिन्त्य शक्ति संपन्न श्रीभगवान् विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारण कर समुद्र में मंदरगिरि के नीचे पहुंच गये। कच्छपावतार भगवान् की एक लाख योजन विस्तृत पीठ पर मंदरगिरि ऊपर उठ गया। देवता और दैत्य समुद्र-मंथन करने लगे। भगवान् आदि कच्छप की सुविस्तृत पीठ पर मंदरगिरि अत्यंत तीव्रता से घूम रहा था और श्रीभगवान् को ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कोई उनकी पीठ खुजला रहा है। समुद्र-मंथन का कार्य संपन्न हो जाय, एतदर्थ श्रीभगवान् शक्ति-संवर्द्धन के लिए असुरों में असुर रूप से, देवताओं में देवरूप से और वासुकि नाग में निद्रा रूप से प्रविष्ट हो गये। इतना ही नहीं, वे मंदरगिरि को ऊपर से दूसरे महान् पर्वत की भांति अपने हाथों से दबाकर स्थित हो गये। श्रीभगवान् की इस लीला को देखकर ब्रह्मा, शिव और इंद्रादि देवगण स्तुति करते हुए उनके ऊपर दिव्य पुष्पों की वृष्टि करने लगे। इस प्रकार कच्छपावतार श्रीभगवान् की पीठ पर मंदराचल स्थिर हुआ और उन्हीं की शक्ति से समुद्र मंथन हुआ। भगवान् कच्छप लीलावतरण चरित्र: प्रलय में भगवान् शेष-शय्या पर योग-निद्रा का आश्रय किये हुए थे। उनके शरीर से आद्याशक्ति प्रकट हुई। उसी से इस ब्रह्मांड के ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रकट हुए। शक्ति स्वरूप में वे ब्रह्मा के पास गयी। उसे उन्होंने चारों ओर से देखा, फलतः वे चतुर्मुख हो गये। विष्णु ने उसे दूर से लौटा दिया। सौ बार शरीर बदलने पर शिव ने उसे स्वीकार कर लिया। शक्ति स्थिर हो गयी; किंतु ब्रह्मा सृष्टि न कर सके क्योंकि पृथ्वी नहीं थी। भगवान् विष्णु ने कर्णमल से दो दैत्य उत्पन्न किये। वे दोनों रुष्ट होकर ब्रह्मा जी को मारने दौड़े। भगवान् विष्णु ने उन्हंे मार डाला। उन दैत्यों के मेद से मेदिनी-पृथ्वी बनी। उनकी अस्थियां पर्वत बनीं। पृथ्वी को स्थिर करने के लिए भगवान् ने कच्छप रूप धारण किया। भगवान् के अवतार नित्य हैं। वही प्रभु पृथ्वी को धारण करते हैं, वही मंदर धारण करके अमृत-मंथन के हेतु बनते हैं। वही मनुष्य की घृति बनते हैं और तभी मानव अक्षय धाम के पथ में स्थिर होता है। वे ही सबके आधार हैं।’ जपनीय मंत्र: ऊँ नमो नारायणाय। ऊँ पूर्णानन्दकच्छपाय नमः। ऊँ सिद्धिसाधन कूर्माय नमः। ऊँ धराधराय नमः ऊँ विष्णवे नमः। रात्रि में जागरण करते हुए उपरोक्त मंत्रों का जप करें। कूर्म भगवान् ने जिस प्रकार देव-दानवों का कार्य साधन कर धर्म की स्थापना की, उसी प्रकार व्रती के कार्यों का साधन भी भगवान् कच्छप की कृपा से अवश्य ही होता है। कूर्म भगवान् का स्वरूप घर में रखने व पूजन करने से संपूर्ण मनोरथों की सिद्धि करने वाला है।



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