महिमामय प्राचीनतम देवी-तीर्थ कामाख्या
महिमामय प्राचीनतम देवी-तीर्थ कामाख्या

महिमामय प्राचीनतम देवी-तीर्थ कामाख्या  

व्यूस : 8480 | जुलाई 2012
महिमामय प्राचीनतम देवी-तीर्थ कामाख्या डाॅ. राकेश कुमार सिन्हा तीर्थों के देश भारतवर्ष में तीर्थों की कोई कमी नहीं है। यहां उत्तर, दक्षिण, पूरब व पश्चिम में असंख्य तीर्थ विराजमान हैं। यहां हिंदू, इस्लाम, जैन, बौद्ध, सिख व ईसाई सभी धर्मों के प्राचीन तीर्थ शोभायमान हैं जिनमें हिंदू तीर्थों का बाहुल्य है। भारत के ख्यातनामा सनातन तीर्थों में पूरब दिशा की रक्षिका के रूप में मान्य माता कामाख्या का विशिष्ट स्थान है। ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे 525 फीट ऊंचे नीलांचल पहाड़ (नील पर्वत) पर विराजमान यह स्थान सम्प्रति असम प्रदेश की राजधानी गोवाहाटी से लगभग 90 किमी. की दूरी पर है। भारतवर्ष में तंत्र, मंत्र, यंत्रके सबसे बड़े व प्रधान धार्मिक केंद्र के रूप में मान्य कामाख्या का यह स्थान अति प्राचीन है। इस तीर्थ को कामाक्षा, कामरूप कामाख्या अथवा कमरू कामाख्या भी कहा जाता है। कहीं-कहीं कामगिरि व कामपीठ के रूप में भी इसकी चर्चा की गयी है। गोवाहाटी से बस व छोटी गाडियों से यहां आना सहज है जहां पर्वत पर ही मां का मंदिर, बाजार व खाने-ठहरने का उत्तम प्रबंध है। मां का मंदिर पर्वत-शिखर के मध्य भाग में अवस्थित है जहां प्रवेश द्वार पर अतिसुंदर व वास्तुशास्त्र की दृष्टि से भव्य सिंह द्वार बने हैं। विवरण है कि जब दक्ष-यज्ञ में सती के स्वयं को अर्पित कर देने के पश्चात शंकर सती के मृत शरीर को लेकर त्रिलोकी में भ्रमण करने लगे तब विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से इस शरीर को खंड-खंड किया ताकि शरीर के नष्ट होते-होते शंकर जी का मोह समाप्त हो जाए। ऐसी स्थिति में मां का योनि प्रदेश जहां गिरा वहीं कामाख्या तीर्थ के रूप में लोकपूजित हुआ। धर्मज्ञों की राय में देवी के उन तीन शक्ति पीठों में, जिन्हें महाफलदायी पीठ भी कहा गया है और जहां जीवनदायिनी शक्ति सन्निहित है, मां कामाख्या सर्वोपरि है। शेष दो शक्ति पीठ ज्वाला देवी पीठ (हिमाचल प्रदेश) और दूसरा मां मंगला गौरी (बिहार) में है। मां कामाख्या को दस महाविद्याओं में सर्वप्रथम माना जाता है। इस कारण मां कामाख्या को काली देवी के रूप में भी पूजा जाता है। मां की महिमा, स्थान की भौगोलिक स्थिति और तंत्र-मंत्र प्रभाव से यहां जादू-टोने की सिद्धि सहज में ही प्राप्त हो जाती है। देश में जितने भी साधक, आराधक, तांत्रिक व औघड़ हैं, सभी का श्रीधाम कामाख्या है। पर यह शंकराचार्य वर्जित क्षेत्र माना जाता है। प्राचीन भारत के चर्चित नगर प्राग्ज्योतिषपुर क्षेत्र के नील पर्वत पर अवस्थित इस मंदिर के निर्माता के रूप में आदि शिल्पी श्री विश्वकर्मा जी का नाम लिया जाता है। उसके बाद राजा भास्कर बर्मन ने अपने अधिकार क्षेत्र से इस मंदिर के लिए काफी कुछ काय किए। 629 ई. में अपनी यात्रा के दौरान चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहां की यात्रा की थी। इस स्थान को नरकासुर से भी जोड़ा जाता है। वर्तमान में भव्य एवं प्रभावोत्पादक मां कामाख्या मंदिर वर्ष 1565 ई. में बुध बिहार के महाराजा विश्व सिंह और उनके पुत्र नर नारायण द्वारा बनवाया गया। विवरण है कि प्राचीन मंदिर 1564 ई. में बंगाल के कुख्यात कला विध्वंसक काला पहाड़ ने तोड़ दिया था। मंदिर निर्माण की बंगाल शैली पर निर्मित इस मंदिर का नक्शा मधुमक्खी के छत्ते की तरह बनाया गया है जिसमें गर्भगृह के पूर्व वक्राकार छतयुक्त लंबे कक्ष में कितने ही देवी-देवताओं के पूजन का स्थान देखा जा सकता है। पर्वत पर चढ़ने के पूर्व सिंह द्वार पर अग्नि बेताल और सिद्ध गणेश का स्थान है। मंदिर में एक प्राकृतिक तालाब भी है जिसे ‘सौभाग्य कुंड’ कहा जाता है। मंदिर में कोटि-कोटि देव वृंद के स्थान हैं जिनमें शिव-पार्वती, विष्णु, लक्ष्मी, गणेश, कार्तिकेय, भैरव, शनि व मातारानी के विविध रूप के मूत्र्त शिल्प हैं। यहां मां के दस प्रधान रूप कामाख्या, मातंगी, कमला, तारा, काली, छिन्न मस्ता, भैरवी, बगलामुखी, लक्ष्मी, सरस्वती व धूमावती पध््र ाान राजमार्ग पर पवर्त ीय पव्र श्े ाद्वार दवे ी क े साथ सदाशिव क े पाचं रूप यथा वामदेव, कामेश्वर, सिद्धीश्वर (सिद्धेश्वर), कोटिलिंग व उमेश्वर (उमानाथ) की पूजार्चना आदि काल से की जाती है। मां के इस मंदिर में बलि का भी स्थान मंदिर के द्वार के ठीक सामने की ओर है। मंदिर में स्थान-स्थान पर श्वेत व भूरे रंग के पत्थर के पूर्व-शिल्प को देखा जा सकता है जिस पर बंग कला का स्पष्ट प्रभाव है। मंदिर के गर्भगृह में हमेशा अंदर से जल-स्राव (मातृ द्रव्य) होता रहता है। गर्भ गृह की बनावट ही इस तीर्थ की प्राचीनता की मूक गवाह है। मां के मंदिर के विशाल प्रांगण से ही दूसरी तरफ जाने पर मां भुवनेश्वरी का स्थान है जो सबसे अधिक ऊंचाई पर विराजमान है। अब तो यहां मोटर रोड़ की व्यवस्था हो जाने से भक्तों को बहुत आराम हो गया है। इसके अलावा अघोर स्थान, दुर्गा डूप, आम्रतकेश्वर, पुरानी ठाकरबाड़ी व भैरव तीर्थ का दर्शन लोग अवश्य करते हैं। इसी क्षेत्र में कामाख्या तीर्थ के पंडों का भी निवास है जो तीर्थ यात्रियों के लिए समुचित व्यवस्था कराते हैं। वैसे तो मां कामाख्या के दर्शनार्थ लोग सारे साल आते रहते हैं पर प्रत्येक वर्ष का सबसे बड़ा मेला अंबुवाची का होता है जो आषाढ़ माह में आयोजित होता है। इसके अलावा यहां वर्ष के दोनों नवरात्र, वसंत पंचमी, श्रावण पूर्णिमा व दीपावली की रात दूर देश से भक्तों व तंत्र साधकों का आगमन होता है। कहते हैं कामाख्या में सिद्धि के बगैर साधक पूर्णता हासिल नहीं कर सकता। सचमुच भारतवर्ष के तंत्र-मंत्र शक्ति का उत्तमोत्तम केंद्र कामाख्या भारतीय देवी तीर्थ में अति महत्वपूर्ण व अतुलनीय है। यहां के तंत्र-मंत्र के बारे में कई अफवाहें भी फैली हुई हैं जैसे कि वहां लोग बकरी, कबूतर व मैना बनाकर पुरुष को वश में कर लेते हैं। पर वास्तविकता ऐसी कुछ भी नहीं। हाॅ ! भक्तों के अहर्निश अंतर्नाद पर मां साधक भक्त के हरेक कार्य को अवश्य पूर्ण करती हैं। वैसे भी यह कटु सत्य है कि तंत्र-मंत्र वही सिद्धिकारी है जिसका उपयोग सद्कार्य हेतु परहित में किया जाए। इन्हीं लौकिक-अलौकिक कथा-कहानी के कारण प्रत्येक देवी भक्त के हृदय में जीवन में एक बार कामाख्या मां के दर्शन की अभिलाषा अवश्य बनी रहती है जिसे वे समय व सुविधा के अनुसार मातृकृपा से अवश्य पूरा करते हैं। मां के इस स्थान के दर्शन भ्रमण करने वाले यहां की शांति, रमणीयता, वास्तुकला व देवी महिमा की खूब चर्चा करते हैं और यहां की स्मृति वर्षों तक मानस-पटल पर जीवंत बनी रहती है।



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