सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सबसे पहले अंड-पिंड सिद्धांत के आधार पर जल में पड़े हुये एक विशाल अंडे से नारायण की उत्पत्ति हुई। फिर नारायण के नाभि कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। न कश्चिद्वेदकर्ता च वेद स्मर्ता चतुर्मुखः।। इस आधार पर जो वेदों के मंत्र थे वे इससे पहले स्वतंत्र रूप से ब्रह्मांड में व्याप्त थे। उनका न कोई ऋषि, न कोई छंद, न कोई देवता था तब ब्रह्मा जी की आज्ञा पर जिस- जिस ऋषि को जो मंत्र प्राप्त हुये वे उस मंत्र के ऋषि हुये। इस प्रकार मंत्रों के ऋषि, छंद, देवता निर्धारित हुये। इस निर्धारण को ही विनियोग कहा जाता है। जैसे महामृत्युंजय मंत्र। इस मंत्र के कहोल और वसिष्ठ ऋषि हैं, रूद्र देवता व अनुष्टुप छन्द है। कहने का तात्पर्य यह है कि मंत्र का विश्लेषण जिसमें कराया जाये वह विनियोग कहा जाता है। बिना विनियोग के किया हुआ मंत्र का जाप प्रभावकारी नहीं होता अतः बिना विनियोग के मंत्र नगण्य है। विनियोग के बाद अंग न्यास, कर न्यास का क्रम आता है। अंग न्यास और कर न्यास ‘‘याजक’’ अपने शरीर के विभिन्न अंगों में जिस मंत्र का जाप कर रहा है उस मंत्र के देवता आदि को स्थापित करता है जिससे याजक को मंत्र जाप करने का अधिकार प्राप्त होता है। देवो भूत्वा देवान् यजेत्।। इस वाक्य से सिद्ध होता है कि देवता के समान होकर ही देवता का यजन (पूजन) करना चाहिये। संकल्प: यज्ञ या अनुष्ठान में सबसे प्रधान संकल्प है। संकल्प से ही अनुष्ठान की सिद्धि होती है। संकल्प के विषय हैं- स्थान, गोत्र-नाम, कामना, समय। स्थान - याजक किस स्थान पर कर्म कर रहा है। गोत्र - याजक किस गोत्र और नाम का है। कामना - याजक की क्या कामना है? समय - याजक किस समय (संवत्सर, मास, तिथि, पक्ष, वार, नक्षत्र) पर पूजा कर रहा है। यह सब विषय संकल्प के हैं जो यज्ञ-अनुष्ठान में बोले जाते हैं। यज्ञ से पवित्र एवं सर्वोत्तम कृत्य कोई नहीं है। अतः प्रत्येक सद् गृहस्थ को यज्ञ करना चाहिये। इस संसार में वे लोग बड़े पुण्यशाली एवं धर्मध्वज कहलाते हैं जो महायज्ञों का आयोजन करते हैं एवं उनमें बहु विधि सहयोग देते हैं। भारत भूमि में यज्ञों का अत्यधिक सम्मान है। कहीं भी यज्ञ होता है तो राक्षस (अहंकार मनोवृत्ति वाले लोग) उसमें विघ्न डालते हैं तथा सज्जन लोग मन-वचन-कर्म से तन-मन-धन से यज्ञ कार्य को पूरा करना अपना नैतिक दायित्व समझते हैं। हमारा शास्त्र इतिहास यज्ञ के अनेक चमत्कारों से भरा पड़ा है। हिंदू सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त के सभी षोडश-संस्कार यज्ञ से ही प्रारंभ होते हैं एवं यज्ञ में ही समाप्त हो जाते हैं। अब इस बात को वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि यज्ञ करने से वायुमंडल एवं पर्यावरण में शुद्धता आती है। संक्रामक रोग नष्ट होते हैं तथा समय पर वर्षा होती है। प्राचीन भारत में प्रत्येक गृहस्थ के लिए पांच महायज्ञ करने आवश्यक थे। अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो देवो बलिर्भूतो, नृप यज्ञोऽथिति पूजनम्।। पंच यज्ञ इस प्रकार थे- 1. ब्रह्म यज्ञ 2. पितृ यज्ञ 3. देव यज्ञ 4.भूत यज्ञ 5. नृप यज्ञ। इन पांच महायज्ञों को जो गृहस्थ नित्य प्रति करता है वह सद् गृहस्थ कहलाता है उसके किये हुये सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। किसी भी अनुष्ठान यज्ञादि का आरंभ संकल्प से होता है तत्पश्चात् विनियोग, न्यास, ध्यानादि प्रक्रियाएं संपन्न करने के पश्चात् माला पूजन व जप होता है। जप कार्य संपन्न करने के उपरांत मुद्राएं प्रदर्शित की जाती हैं और मंत्र सिद्धि हेतु प्रार्थनाएं स्तुतिपाठ, आवरणपूजा, कवच, सहस्त्रनाम आदि गोपनीय क्रियाओं का अनुष्ठान कार्य में समावेश किया जाता है। अनुष्ठान कार्यों में इन्हें पंचांग अर्थात पटल (मंत्र), पद्धति (आवरण पूजा), कवच, सहस्त्रनाम व स्तुति पाठ के नाम से जाना जाता है। पंचांग से दैनिक क्रियाओं को पूर्णता प्राप्त होती है और अनुष्ठान व मंत्र का पुरश्चरण पूरा होने पर हवन अर्थात देवताओं को हविष्य यानी भोजन प्रदान करना आवश्यक होता है।