जिससे प्रसन्न होकर प्रजापति ब्रह्माजी उसके सम्मुख प्रकट हुए और कहा - ‘मै तेरी उग्र तपस्या से अति प्रसन्न हूं अतः तुझे इच्छित वर देना चाहता हूं। अतः जो चाहे मांग ले।’ राहु जो अति महत्वाकांक्षी था, ने ब्रह्माजी से एक ग्रह बनाये जाने, अमरता, देवताओं पर विजय तथा सूर्य और चन्द्र दोनों प्रकाश पंुजों को निगल जाने का वरदान मांगा। ब्रह्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि दोनों प्रकाश पुंजांे का ग्रास तेरे लिए बहुत कष्टकारी होगा, परन्तु फिर भी मैं अपने वचनानुसार तुझे वर देता हूं। तथास्तु कहकर ब्रह्माजी अन्तध्र्यान हो गये। अपमान से जलता हुआ राहु तुरन्त ही सूर्य और चन्द्रमा की ओर दौड़ पड़ा किन्तु भगवान विष्णु ने अपने चक्र द्वारा उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया तथा कहा कि सृष्टिकत्र्ता ब्रह्माजी का वचन निष्फल नहीं होगा। अपने विभिन्न क्रम में दोनों ग्रहों को निगल जाओगे और इस प्रकार संसार में अच्छे व बुरे परिणामों के सूचक बनोगे। संसार में सभी कुछ कारण, कार्य सम्बन्ध के आधार पर बंटा हुआ है। ज्योतिष की मान्यता है कि सभी प्रकार के कार्यों के लिए समय का एक विशेष महत्व है। समय को संस्कृत में काल भी कहते हैं तथा काल का अन्य महत्वपूर्ण अर्थ मृत्यु भी है। अतः समय ही इस संसार में समस्त गतिविधियों का नियंत्रक है व ज्योतिष में हम समय का ही अध्ययन करते हैं। ऋषि पत्नी सिंहिका की असमय की गई इच्छा ने राहु के भविष्य का निर्धारण कर दिया। ऋषि तो पत्नी की इच्छा से कत्र्तव्यबद्ध थे क्योंकि वह मात्र काम इच्छा न होकर, संतान प्राप्ति की आकांक्षा थी। उस समय यह प्रथा थी कि यदि कोई स्त्री, इच्छित व्यक्ति से संतान की आकांक्षा करे और वह उसे पूरा न करे तो उसे वर्षों तक उसका प्रायश्चित करना होगा क्योंकि उसने संतान उत्पत्ति का कार्य न कर सृष्टि के विकास को बाधित किया है। इसी कारण महर्षि कश्यप ने अप्रसन्न मन होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा को पूरा किया। ऋषि और उनकी पत्नी के मध्य बहुत तनाव था और इस उलझन में राहु का जन्म हुआ। राहु का मूल स्वभाव व्यक्ति के जीवन में एक गहरी और जटिल उथल - पुथल में से कुछ नया उत्पन्न करना ही है। स्त्री को धरती अथवा धारणी (जो राहु धारण करे) माना जाता है तथा पुरूष को आकाश माना जाता है जो पृथ्वी पर पूरी तरह आच्छादित होकर बरस उठता है और अपने में सर्वस्व रूप से ढंक लेता है। इस समागम की पूर्णता को प्राप्त होते ही प्रकृति सृजन में लग जाती है तथा नवजीवन का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। उत्तम संतति के लिए स्त्री व पुरूष में पूर्ण समन्वय होना परम आवश्यक है तभी सृजन की अवस्था में दिव्यात्माएं संतान रूप में प्राप्त हो सकती हैं। यूं तो संतान के भविष्य को प्रभावित करने वाले अनेक सूक्ष्म व जटिल कारक होते हैं जैसे - देव प्रारब्ध (पूर्व जन्म के कर्म) आदि किन्तु इन सबके रहते भी माता - पिता का पूर्ण समन्वय उत्तम संतान प्रदान करता है। वर्तमान का किया गया सही कार्य जिस प्रकार भविष्य को प्रभावित करता है उसी प्रकार प्रारब्ध हमारे इस जन्म को। अधिकांशतः लोग बिना सोचे समझे संतति उत्पन्न करते हैं। अतः संयोग से कभी - कभी ही संसार में गांधी, टैगोर, रामकृष्ण, विवेकानन्द, टालस्टाय अथवा आइंस्टाइन जैसे विरले जन्म लेते हैं। सिंहिका की असमय संतान की इच्छा ने यह दिखा दिया कि संतति प्राप्ति ब्रह्माण्डीय शक्ति के हाथ में है। जब भी व्यक्ति अपनी इच्छाओं का दास हो जाता है तो उसे परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए। महर्षि कश्यप यह जानते थे कि पत्नी की इस असमय इच्छा का परिणाम संतान के जीवन में उथल - पुथल का कारण होगा किन्तु पत्नी की इच्छा को जानते हुए उन्होने देव इच्छा मान सहर्ष स्वीकार किया। सिंहिका का व्यवहार एक सामान्य व्यक्ति जैसा था जो इच्छाओं के वशीभूत हो अपने विवेक को खो देता है। आप जब भी विवेक को खोकर बिना सोचे समझे कार्य करते हैं तो आप अपने भविष्य को बांध देते हैं। परन्तु यदि मनुष्य का विवेक विश्व चेतना से एकाकार हो तो निश्चित रूप से इच्छित परिणाम प्राप्त हो सकता है। ज्योतिष हमें विश्व चेतना को विश्वास में लेकर समय का सही ज्ञान देता है। यह ज्ञान सूक्ष्म व जटिल है किन्तु यदि ज्योतिष का प्रयोग ध्यान पूर्वक किया जाये तो सृष्टि के रहस्य को पूरी तरह समझा जा सकता है तथा ग्रहों का प्रभाव मानवता के पूर्ण कल्याण के लिए मददगार सिद्ध होता है। इस कथा में सिंहिका ने परिणामों को नजरअंदाज किया। परन्तु महर्षि सभी कुछ जानते थे किन्तु विधि के विधान को नहीं बदला जा सकता। इसका ज्ञान होने पर हम यथार्थ को जानकर उसके अनुरूप अपने को ढाल सकते हैं तथा इसमें छुपे हुए रहस्य को ज्ञान द्वारा प्राप्त कर प्रकृति के नियमों को आनन्द पूर्वक अपना लेते हैं। राहु का जन्म असमय पर होने के कारण वह अहंकारी, क्रूर, ईष्यालु, मूर्ख, अति साहसी, तेज, दूसरों की शक्ति को पूरी तरह जाने बिना उनसे अकारण विवाद करना तथा अपमान का भागी होने वाला बनाया। सूर्य द्वारा अपमानजनक पराजय ने उसे उसकी लघुता का अहसास कराया। किन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा और अन्य उपायों से पराक्रमी सूर्य को परास्त करने में जुट गया। हमें याद रखना है कि वह महर्षि का पुत्र है तथा उसमें अपने पिता की तरह महान और अमर होने की इच्छा है परन्तु असमय जन्म लेने के कारण, उसके लक्ष्य को पाने के तरीके अलग हैं। पहले तो उसने अपने कौशल और बहादुरी से भरे प्रयास किये किन्तु असफल होने पर हिमालय पर बैठकर हजारों वर्षों तक तप किया जिससे वह सूर्य से बदला ले सके। अपने उग्र तप द्वारा प्रजापति ब्रह्मा को प्रसन्न किया। ब्रह्माजी के प्रकट होने पर भी वह अपने अपमान को न भूल पाया तथा उसने सूर्य से बदला लेने का वर मांगा। राहु की इच्छा शक्ति इतनी बलवती थी कि ब्रह्माजी को उसे वह वर देना ही पड़ा। दूसरे राहु को ज्योतिष द्वारा संसार के नियमन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। ज्योतिष का महत्व व प्रभाव इतना नहीं होता, यदि राहु का इसमें स्थान न होता। केवल राहु की उपस्थिति ने ही ज्योतिष को एक पूर्णता प्रदान की है। ब्रह्माजी यह जानते ही थे। यह सब सोचकर ही राहु को महत्वाकांक्षी वर दिया था। वरदान पाते ही राहु दोनों प्रकाश पुंजों सूर्य और चन्द्रमा की ओर दौड़ चला, किन्तु भगवान विष्णु बीच में आ गए तथा उन्होंने अपने चक्र से राहु के दो टुकड़े कर दिये। ज्योतिष में राहु को छाया ग्रह माना जाता है और ज्योतिषीय गणना में छाया का विशेष महत्व होता है। हम सभी संसार में प्रकाश और अंधकार के महत्व को जानते हैं। प्रकाश जहां ज्ञान का द्योतक है वहीं अंधकार अज्ञान को दर्शाता है, शायद ज्योतिष ही ऐसा विषय है जहां कि छाया और अंधकार का गहराई से अध्ययन किया जाता है। वास्तव में तो हम न पूर्ण प्रकाश में रहते हैं न ही पूर्ण अंधकार में, परन्तु अंधकार की उपस्थिति सचमुच हमें गहराई तक प्रभावित और भयभीत कर जाती है। छाया का अपना ही संसार है, वह जीवन भर हमारे साथ लगी रहती है। छाया की यह खूबी है कि वह अंधकार में तो गुम हो जाती है परन्तु प्रकाश में प्रकट होने लगती है और फैलने लगती है। यदि कोई व्यक्ति सूर्य के प्रकाश में खड़ा हो तो उसकी छाया कभी बढ़ने लगती है तो कभी यह घटने लगती है। कभी व्यक्ति के आगे - आगे चलती प्रतीत होती है तो कभी - कभी पीछे - पीछे परन्तु कभी भी साथ नहीं छोड़ती, किन्तु छाया के रहस्य को जानने का सबसे अच्छा समय मध्याह्न का सूर्य है। जब छाया अपने सामान्य आकार में होती है तभी उसके रूप व रहस्य को पूरी तरह जाना जा सकता है क्योंकि मध्याह्न में जब व्यक्ति सूर्य के नीचे खड़ा हो जाता है तो छाया भी कुछ क्षण के लिए व्यक्ति की ऊंचाई के तुल्य होती है। संसार में सभी प्रकार के भय का एक बड़ा कारण छाया ही है। छाया का संसार हृदय की गहराइयों तक फैला हुआ है। अतः उससे जुड़े भय पर विजय पाना भी सहज नहीं है। यह भय सांसारिक वस्तुओं का भी हो सकता है और प्राकृतिक का भी जैसे की भूतप्रेत आदि। हम जैसे ही छाया के रहस्य को समझ लेते हैं तो अंधकार हमेशा के लिए खो जाता है और ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलने लगता है। यही राहु है।