श्री श्री यन्त्रम
श्री श्री यन्त्रम

श्री श्री यन्त्रम  

व्यूस : 8720 | मई 2008
श्री श्री यंत्रम- परिचय एवं महत्व बसंत कुमार सोनी लक्ष्मी पूजन के साथ यंत्र शिरोमणि श्रीयंत्र, जिसे श्रीचक्र भी कहते हैं, की पूजा भी की जाती है। धन त्रयोदशी और दीपावली को यंत्रराज श्रीयंत्र की पूजा का अति विशिष्ट महत्व है। श्री यंत्र या श्री चक्र सारे जगत को भारतीय अध्यात्म की एक अनुपम और सर्वश्रेष्ठ देन है। इसकी उपासना से जीवन के हर स्तर पर लाभ का अर्जन किया जा सकता है। इसके नव आवरण पूजन के मंत्रों से यह तथ्य उजागर हो जाता है। इस चक्र के नव आवरण निम्नलिखित हैं- स त्रैलोक्य मोहन चक्र- तीनों लोकों को मोहित करने की कामना की पूर्ति के लिए। सर्वाशापूरक चक्र- इसके पूजन से सभी आशाओं की कामना की पूर्ति हेतु। सर्व संक्षोभण चक्र- अखिल विश्व को संक्षोभित करने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु। सर्व सौभाग्यदायक चक्र- सौभाग्य की प्राप्ति हेतु। सर्वार्थ सिद्धिप्रद चक्र- सभी प्रकार की अर्थाभिलाषाओं की पूर्ति के लिए। सर्वरक्षाकर चक्र- सभी प्रकार की बाधाओं से रक्षा हेतु। सर्वरोगहर चक्र- सभी व्याधियों से बचाव हेतु। सर्वसिद्धिप्रद चक्र- सभी सिद्धियों की प्राप्ति हेतु। सर्व आनंदमय चक्र- परमानंद या मोक्ष की प्राप्ति हेतु। ी यंत्र के ये नवचक्र सृष्टि, स्थिति और संहार चक्र के द्योतक हैं। अष्टदल, षोडशदल और भूपुर इन तीन चक्रों को सृष्टि चक्र कहते हैं। अंतर्दशार, बहिर्दशार और चतुर्दशार स्थिति चक्र कहलाते हैं। बिंदु, त्रिकोण और अष्टकोण को संहार चक्र कहते हैं। श्री श्री ललिता महात्रिपुर सुंदरी श्री लक्ष्मी जी के यंत्रराज श्रीयंत्र के पिंडात्मक और ब्रह्मांडात्मक होने की बात को जो साधक जानता है वह योगीन्द्र ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान होता है। श्रीयंत्र ब्रह्मांड सदृश्य एक अद्भुत यंत्र है जो मानव शरीर स्थित समस्त शक्ति चक्रों का भी यंत्र है। श्रीयंत्र सर्वशक्तिमान होता है। इसकी रचना दैवीय है। अखिल ब्रह्मांड की रचना का यंत्र होने से इसमें संपूर्ण शक्तियां और सिद्धियां विराजमान रहती हैं। स्व शरीर को एवं अखिल ब्रह्मांड को श्रीयंत्र स्वरूप जानना बड़े भारी तप का फल है। इन तीनों की एकता की भावना से शिवत्व की प्राप्ति होती है। श्रीयंत्र की पिंडात्मकता- श्री विद्या के उपासक श्रीयंत्र या श्रीचक्र की भावना अपने शरीर में करते हैं। इस तरह विद्योपासकों का शरीर अपने आप आप में श्रीचक्र हेाता है। अतएव श्री यंत्रोपासक का ब्रह्मरंध्र बिंदु चक्र, मस्तिष्क त्रिकोण, ललाट अष्टकोण, भ्रूमध्य अंतर्दशार, गला बहिर्दशार हृदय चतुर्दशार, कुक्षि वृŸा, नाभि अष्टदल कमल, कटि बाह्यवृŸा अष्टदल कमल, स्वाधिष्ठान षोडषदल कमल, मूलाधार षोडशदल कमल का बाह्य त्रिवृŸा, जानु प्रथम रेखा भूपुर, जंघा द्वितीय रेखा भूपुर और पैर तृतीय रेखा भूपुर हैं। श्री यंत्र की ब्रह्मांडात्मकता- श्रीयंत्र का ध्यान करने वाला साधक योगीन्द्र कहलाता है। आराधक अखिल ब्रह्मांड को श्री यंत्रमय मानते हैं अर्थात श्रीयंत्र ब्रह्मांडमय है। यंत्र का बिंदुचक्र सत्यलोक, त्रिकोण तपोलोक, अष्टकोण जनलोक, अंतर्दशार महर्लोक, बहिर्दशार स्वर्लोक, चतुर्दशार भुवर्लोक, प्रथम वृत्त भूलोक, अष्टदल कमल अतल, अष्टदल कमल का बाह्य वृŸा वितल, षोडशदल कमल सुतल, वृŸात्रय या त्रिवृŸा तलातल, प्रथम रेखा भूपुर महातल, द्वितीय रेखा भूपुर रसातल और तृतीय रेखा भूपुर पाताल है। ब्रह्मादि देव, इंद्रादि लोकपाल, सूर्य, चंद्र आदि नवग्रह, अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र, मेष आदि द्वादश राशियां, वासुकि आदि सर्प, यक्ष, वरुण, वैनतेय, मंदार आदि विटप, अमरलोक की रंभादि अप्सराएं, कपिल आदि सिद्धसमूह, वशिष्ठ आदि मुनीश्वर्य, कुबेर प्रमुख यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, विश्वावसु आदि गवैया, ऐरावत आदि अष्ट दिग्गज, उच्चैःश्रवा आदि घोड़े, सर्व-आयुध, हिमगिरि आदि श्रेष्ठ पर्वत, सातों समुद्र, परम पावनी सभी नदियां, नगर एवं राष्ट्र ये सब के सब श्रीयंत्रोत्पन्न हैं। शिवजी कहते हैं हे शिवे! संसार चक्र स्वरूप श्रीचक्र में स्थित बीजाक्षर रूप शक्तियों से दीप्तिमान एवं मूलविद्या के 9 बीजमंत्रों से उत्पन्न, शोभायमान आवरण शक्तियों से चारों ओर घिरी हुई, वेदों के मूल कारण रूप आंेकार की निधि रूप, श्री यंत्र के मध्य त्रिकोण के बिंदु चक्र स्वरूप स्वर्ण सिंहासन में शोभायुक्त होकर विराजमान तुम परब्रह्मात्मिका हो। तात्पर्य यह है कि बिंदु चक्र स्वरूप सिंहासन में श्री ललिता महात्रिपुरसुंदरी सुशोभित होकर विराजमान हैं। पंचदशी मूल विद्याक्षरों से श्रीयंत्र की उत्पŸिा हुई है। पंचदशी मंत्र स्थित ‘‘स’’ सकार से चंद्र, नक्षत्र, ग्रहमंडल एवं राशियां आविर्भूत हुई हैं। जिन लकार आदि बीजाक्षरों से श्री यंत्र के नौ चक्रों की उत्पŸिा हुई है, उन्हीं से यह संसार चक्र बना है। पूजा हेतु श्रीयंत्र, पूजायंत्र फल और प्राण प्रतिष्ठा आदि श्री यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा तीन रूपों में की जाती है- अचर, चर और धारणीय। अचर रूप में प्राण प्रतिष्ठित श्रीयंत्र एक ही स्थान पर सदा स्थापित रहता है, उसे उठाया नहीं जाता। साधक को नित्य वहीं पर उसकी पूजा करनी होती है। जिस घर में उसकी स्थापना होती है, उसमें एक भी दिन के लिये ताला नहीं लग सकता। चर रूप में प्राण प्रतिष्ठित श्रीयंत्र को पवित्रता के साथ उठाया और एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया जा सकता है। और उसी स्थान पर इसकी पूजा की जा सकती है। वैसे घर पर साधक को सामान्य रूप में नित्य श्रीयंत्र की पूजा तो करनी ही होती है। धारण किए जाने वाले श्रीयंत्र का पूजन के समय को छोड़कर सर्वदा धारण करना होता है। पूजा काल में उसे उतारा जाता है और पूजा के पश्चात फिर धारण कर लिया जाता है। श्री चक्रोपासना के लिए स्वर्ण, रजत अथवा ताम्र के श्रीयंत्र का निर्माण किया जा सकता है। पुरातन काल में केवल राजे-महाराजे, मंत्री आदि राजपुरुष स्वर्ण निर्मित यंत्रों का प्रयोग करते थे। श्री यंत्र उपासना का प्रचलन दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है और आज धनी हों या गरीब अथवा मध्यम वर्ग के लोग सभी लक्ष्मी प्राप्ति के लिए, सुख समृद्धि में वृद्धि के लिए किसी न किसी रूप में श्रीयंत्र की पूजा करते हैं। परंतु स्वर्ण धातु के मंहगे होने के कारण हर कोई स्वर्ण निर्मित श्रीयंत्र का उपयोग नहीं कर पाता। अतएव शास्त्रोक्त नियमों का निर्वहण करते हुए वर्तमान सदी में विद्वानों, शोधकर्ताओं पंडितों ने अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर स्वर्ण पालिश युक्त यंत्रों को लाभप्रद माना है। शास्त्रानुसार यंत्र की पूजा का फल तांबे में शतगुण, चांदी में कोटि गुण, स्वर्ण और स्फटिक के यंत्रों में अनंत गुण होता है। श्री यंत्र में देवी देवताओं की शक्तियां होने के कारण इसकी पूजा करने से इन सभी की एक साथ कृपा साधक को प्राप्त हो जाती है, उसके पूर्वजन्म कृत पापों का क्षय हो जाता है और धन समृद्धि का संवर्धन होने लगता है। श्री यंत्राधिष्ठात्री मां भगवती राजराजेश्वरी ललिता महात्रिपुरसंुदरी उसकी सुख समृद्धि, धन, ऐश्वर्य, मान-सम्मान, सौभाग्य आदि की कामनाएं पूरी कर देती हैं। जहां पर विधि विधान के साथ आस्था और निष्ठापूर्वक श्रीयंत्र का पूजन किया जाता है वहां साक्षात् महालक्ष्मी वास करती हैं। यंत्र और मंत्र के मेल से पूजा करने से फल शीघ्र मिलता है।



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