श्री सीता नवमी व्रत पं. ब्रज किशोर शर्मा ब्रजवासी परम पवित्र वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि, पुष्य नक्षत्र, मंगलवार को मध्याह्न काल में शुभ मांगलिक बेला में संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए राजा जनक हल से भूमि जोत रहे थे, उसी समय पृथ्वी से विदेहवंश वैजयंती जानकी जी का द्रव्य प्राकट्य हुआ। भूमि पर हल के चलने से जो रेखा बनती है उसे ‘सीता’ कहते हैं। अतः प्रादुर्भूता भगवती जानकी सीता के नाम से विख्यात हुईं। अतः योग में किया गया व्रत अत्यंत पुण्य प्रदान करने वाला होता है। व्रत के विशेष नियम- किसी भी व्रत की पूर्णता उस व्रत में किए गए आचार-विचार और संयम अर्थात् नियम से होती है। अतः व्रतकर्ता को चाहिए कि वह अष्टमी को ही प्रातः काल शौचादि से निवृŸा हो नदी या सरोवर या इनके अभाव में घर अथवा कुएं पर स्नान कर संध्या-वंदनादि करके देवता व पितरों का विधिवत् तर्पण कर दिन में एक ही बार स्वल्प हविष्यान्न का भोजन कर ब्रह्मचर्यादि नियमों का पालन करता हुआ भगवती सीता के चरणों में मन-बुद्धि को लगा उनके मंगलमय नाम ”श्री सीतायै नमः“ या ”श्रीसीता-रामाय नमः“ का उच्चारण करता रहे। रात्रि में पृथ्वी पर शयन करे। नवमी तिथि को ब्राह्ममुहूर्Ÿा में जागकर श्री जानकी जी का स्मरण करे। नित्य कर्म से निवृŸा हो भूमि पर तोरणादि से अलंकृत सोलह, आठ या चार स्तंभों का संुदर मंडप बनाए। मंडप के मध्य में सुंदर चैकोर वेदिका पर परिकरों सहित भगवती सीता एवं भगवान श्रीराम की स्थापना करनी चाहिए। पूजन हेतु गणेश नवग्रहादि एवं राजा जनक, माता सुनयना, कुल पुरोहित शतानंदजी, हल और माता पृथ्वी की भी प्रतिमाएं स्थापित करनी चाहिए। पूजन हेतु प्रतिमाएं स्वर्ण, रजत, तांबे, पीतल, काष्ठ या मिट्टी से बनी हो सकती हंै। जो भक्त मानसिक पूजा करते हैं, उनकी पूजन सामग्री एवं आराध्य सभी भावमय ही होते हैं। आसन शुद्धि, प्राणायाम, आचमनादि अवश्य करें। विद्वान, ब्राह्मण के सानिध्य में या स्वयं ही श्री सीता नवमी व्रत का विधिवत् संकल्प लेकर सपत्नीक एवं कुटुंबी जनों के साथ स्वस्तिवाचन सहित नियमपूर्वक गणेश, गौरी, वरुणादि देवताओं का पूजन कर स्थापित सभी देवताओं का तथा किशोरी जी का ‘श्री सीतायै नमः’ मंत्र से सामथ्र्यानुसार पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन करें। अष्टदल कमल में श्री जानकीजी की अष्ट दिव्य सखियों का पूजन भी अवश्य करें। पूजनोपरांत, अनन्य भाव से श्री विदेहराजनन्दिनीजी का परम पावन, मंगलमय, कल्याणकारी जन्मोत्सव गीत, वाद्यादि सहित पुरजन-परिजनों के साथ मनाएं। सर्वप्रथम यह मंगलगीत समवेत स्वरसे गाएं- मंगल मिथिलाधाम मंगल मंगल हो। प्रकटीं सिय सुकुमारि आजु सखि मंगल हो।। मंगल बजत निशान गान सुख मंगल हो। विप्र सुमंत्र उचारहिं देव सुख मंगल हो।। मंगल पुरी सोहात द्वार प्रति मंगल हो। मंगल जनक लली प्यारी सियकर मंगल हो।। मंगल सकल समाज, लखि नृप मंगल हो। जय जय करत महान, प्रजा मुद मंगल हो।। इतर अरगजा चंदन बरसत, पुर नभ मंगल हो। देत याचकहिं दान, चाह विधि मंगल हो।। आस ‘बृजेश्वरदास’ सदा तव मंगल हो। चिर जीवे लली हमार निशदिन मंगल हो।। मांगल्यगीतोपरांत देवी जी के पवित्र माहात्म्य की कथा सुननी चाहिए। श्री विदेहवंश वैजयंती जानकी जी की महिमा को मंडित करने वाली एक पावन कथा यहां प्रस्तुत है- श्री सीता नवमी की कथा मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी श्रेष्ठ धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम देवदŸा था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुंदर रूपगर्विता पत्नी थी, उसका नाम शोभना था। ब्राह्मण देवता जीविका के लिए अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फंसकर व्यभिचार में प्रवृŸा हो गई। अब तो पूरे गांव में उसके इस निंदित कर्म की चर्चाएं होने लगीं। परंतु उस दुष्टा ने गांव ही जलवा दिया। दुष्कर्मों में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि मरी तो उसका अगला जन्म चांडाल के घर में हुआ। पति का त्याग करने से वह चांडालिनी बनी, ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ठ हो गया तथा व्यभिचार-कर्म के कारण वह अंधी भी हो गई। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था। इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनो दिन दारुण दुःख प्राप्त करती हुई देश-देशांतर में भटकने लगी। एक बार दैवयोग से वह भटकती हुई कौशलपुरी पहुंच गई। संयोगवश उस दिन वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी, जो समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है। जानकी नवमी के पावन उत्सव पर भूख-प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी- हे सज्जनों! मुझ पर कृपा कर कुछ भोज्य सामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूं- ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनक भवन के सामने बने एक हजार पुष्प मंडित स्तंभों से गुजरती हुई उसमें प्रविष्ट हुई। उसने पुनः पुकार लगाई- भैया! कोई तो मेरी मदद करो- कुछ भोजन दे दो। इतने में एक भक्त ने उससे कहा- देवि! आज तो जानकी नवमी है, भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसीलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल पारणा के समय आना, ठाकुर जी का प्रसाद भरपेट मिलेगा। परंतु वह नहीं मानी। अधिक कहने पर भक्त ने उसे तुलसी एवं जल प्रदान किया। वह पापिनी भूख से मर गई। किंतु इसी बहाने अनजाने में उससे श्री जानकी नवमी का व्रत पूरा हो गया। अब तो परम कृपालिनी दयास्वरूपिणी ने समस्त पापों से उसे मुक्त कर दिया। व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनंदपूर्वक अनंत वर्षों तक रही। तत्पश्चात् वह कामरूप देश के महाराज जयसिंह की महारानी काम कला के नाम से विख्यात हुई। जातिस्मरा उस महान साध्वी ने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाए, जिनमें श्री जानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। श्री जानकी नवमी पर श्री जानकी जी की पूजा, व्रत, उत्सव कीर्तन करने से उन परम कृपामयी, दयामयी श्री सीता जी की कृपा से हमें सभी प्रकार के सुख-सौभाग्य तो प्राप्त होते ही हंै, जीवन के चारों पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष भी पूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं। अतः सभी को चाहिए कि नियम पूर्वक दृढ़ संकल्प होकर इस व्रतोत्सव का लाभ लें। इस सुंदर समय में जानकी स्तोत्र, समस्तोत्रम्, रामचंद्रष्टाकम्, रामप्रेमाष्टकम् एवं रामचरित मानस अािद का पाठ भी अवश्य करें। पूजा के समय एवं संपूर्ण दिवस श्री जानकी जी के बालस्वरूप का इस प्रकार ध्यान करें- वन्दे विदेह तनया पदपुण्डरीकं, कैशोरसौरभ समाहृत योगि चिŸाम्। हन्तुं त्रितापमनिशं मुनि हंस सेव्यं, सन्मान सालिपरिपति पराग पु´्जम्।। हे किशोरी जी! आप समस्त संसार के प्राणियों को अपने नित्य कैशोर सौरभ द्वारा यों ही तापत्रय से मुक्त करने वाली हैं, योगीजनों के चिŸा को सहसा अपहृत करने वाली हैं, आप परमहंस पदप्राप्त मुनियों से संसेव्य हैं, मैं भक्त जनमानस भ्रमरावलि द्वारा पीत पराग वाले श्री विदेह वंश वैजयंती जानकी जी के पाद पद्मों की वंदना करता हूं। नवमी तिथि को ब्राह्ममुहूर्Ÿा में जागकर श्री जानकी जी का स्मरण करे। नित्य कर्म से निवृŸा हो भूमि पर तोरणादि से अलंकृत सोलह, आठ या चार स्तंभों का संुदर मंडप बनाए। मंडप के मध्य में सुंदर चैकोर वेदिका पर परिकरों सहित भगवती सीता एवं भगवान श्रीराम की स्थापना करनी चाहिए।