श्री विद्या उपासना
श्री विद्या उपासना

श्री विद्या उपासना  

व्यूस : 29495 | मई 2008
श्री विद्या उपासना श्री योगेश्वरानंद सभी शंकरपीठों में भगवती त्रिपुरसुंदरी की उपासना श्रीयंत्र में की जाती है, जिसे श्री चक्र भी कहा जाता है। यह श्रीयंत्र अथवा श्रीचक्र भगवान शिव और मां शिवा दोनों का शरीर है, जिसमें ब्रह्मांड और पिंडांड की ऐक्यता है। श्रीयंत्र की उत्पŸिा एवं माहात्म्य श्रीयंत्र अथवा श्रीचक्र स्वयं में अनेकानेक रहस्यों को समेटे हुए है। एक बार जब भगवान ने सभी मंत्रों को दैत्यों द्वारा दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया था, तब महर्षि दŸाात्रेय ने ज्यामितीय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, चाप अर्धवृत्त, चतुष्कोण आदि को आधार बनाकर बीज मंत्रों से इष्ट शक्तियों की पूजा हेतु यंत्रों का आविष्कार किया। इसलिए महर्षि दŸाात्रेय को श्रीविद्या एवं श्रीयंत्र का जनक कहा जाता है। यह विश्व ही श्री विद्या का गृह है। यहां ‘विश्व’ शब्द का तात्पर्य पिंडांड और ब्रह्मांड दोनों से है। इस प्रकार श्रीयंत्र जैसे विश्वमयी है, उसी प्रकार शब्द सृष्टि में मातृकामयी है। त्रिपुरसुंदरी चक्र ब्रह्मांडाकार है। इस यंत्र की रचना दो त्रिकोणों की परस्पर संधि से होती है, जो एक दूसरे से मिले रहते हैं। इससे ब्रह्मांड में पिंड का और पिंडांड में ब्रह्मांड का ज्ञान होता है। यह यंत्र शिव और शक्ति की एकात्मता को भी प्रदर्शित करता है। इस यंत्र की गूढ़ता पर रूस और जर्मनी के शोधकर्ता काफी समय से इस पर शोध कर रहे हैं, परंतु अभी तक वे किसी परिणाम पर नहीं पहुंचे हैं। सही शब्दों में यंत्र-पूजा देव शक्ति को आबद्ध करने का सर्वोŸाम आधार है, जिसमें श्रीयंत्र पूर्णतः सफल है। भगवती त्रिपुरसुंदरी की साधना (श्रीयंत्र साधना) सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ साधना है। अनेक साधकों, गृहस्थों, संन्यासियों ने खुले हृदय से स्वीकार किया है कि यह साधना कलियुग में कामधेनु के समान है, जो सुफलदायी होती है। यह एक ऐसी साधना है, जो साधन को पूर्ण मान-सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाती है। एक स्थान पर स्वयं भगवान आद्य शंकराचार्य ने कहा है कि ‘‘मेरे संपूर्ण साधना-जीवन का सारांश यह है कि संसार की समस्त साधनाओं में त्रिपुर संुदरी साधना स्वयं में पूर्ण है, अलौकिक है, अद्वितीय है और आश्चर्यजनक रूप से सिद्धि प्रदान करने वाली है।’’ श्रीयंत्र की साधना किसी भी आयु, वर्ग अथवा जाति का साधक कर सकता है। स्त्री-वर्ग के विषय में तो स्पष्ट कहा गया है कि- ‘‘यदि कोई साधिका केवल पूर्णमासी की रात्रि को ही इस साधना को संपन्न कर ले तो वह विश्व की विजेता बन सकती है।‘‘ इस साधना को संपन्न करने के अनेक लाभ हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। भगवती त्रिपुर संुदरी के साक्षात दर्शन। जीवन की पूर्णता की प्राप्ति। विवाद में विजय एवं शत्रुओं का शमन। राजा अथवा उच्चाधिकारी का वशीकरण। भौतिक एवं मानसिक सुखों की प्राप्ति तथा बाधाओं से मुक्ति। अखंड सौभाग्य की प्राप्ति। कन्या का शीघ्र विवाह एवं मनोवांछित वर की प्राप्ति। ऋण से मुक्ति एवं भूमि, वाहन की प्राप्ति। ऐश्वर्य, चल-अचल संपŸिा एवं पशु-धन की प्राप्ति। कुंडलिनी जागरण द्वारा आंतरिक शक्ति का जागरण। सुखमय दाम्पत्य और परिवार में सौहार्दपूर्ण वातावरण। श्रीयंत्र की साधना श्रीयंत्र की साधना अत्यंत ही तकनीकी पूर्ण और उच्च कोटि की है। किंतु यह अत्यंत गूढ़ भी है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसकी साधना करना संभव नहीं है। यहां अत्यंत ही सरल विधि प्रस्तुत है जिसके माध्यम से सामान्य साधक भी साधना कर सकते हैं। इसमें जलपात्र, लाल गुलाब के फूल, केसर, स्फटिक श्रीयंत्र (प्राण-प्रतिष्ठित) सुवासित अगरबŸाी, शुद्ध घी का दीपक, पीत, वस्त्र आदि की आवश्यकता होती है। साधना में स्फटिक की माला प्रयोग में लानी चाहिए। मंत्र: साधना में निम्नलिखित दो मंत्रों का उल्लेख किया जाता है। ‘‘श्री ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ¬ महालक्षम्यै नमः।’’ ‘‘¬ पùावती पद्मनेत्रे लक्ष्मीदायिनी सर्व कार्य सिद्धि करि करि ¬ ह्रीं श्रीं पद्मावत्यै नमः।’’ साधना-विधि: यह साधना शुक्ल पक्ष के किसी भी बुधवार से आरंभ की जा सकती है। सर्वप्रथम शुचिता अवस्था में रात्रि नौ बजे के बाद अपने सामने लकड़ी की चैकी रखकर उस पर पीला वस्त्र बिछा लें। उसके ऊपर गुलाब की थोड़ी पंखुड़ियां बिछाकर स्नान कराए गए श्रीयंत्र को उस पर स्थापित कर दें तथा उस पर केसर से तिलक करें। घी का दीपक व अगरबŸाी आदि जला दें ताकि वातावरण सुवासित हो जाए। फिर स्फटिक की माला से 1000 जप प्रतिदिन करें। यह क्रिया इक्यावन दिनों तक करनी है। पहले दिन के अतिरिक्त श्रीयंत्र को इस स्थान से उठाना नहीं चाहिए। इस प्रकार 51 दिनों में मंत्र का इक्यावन हजार जप हो जाएगा। जप पूरा हो जाने पर 9-10 वर्ष की एक कन्या को भोजन, वस्त्र आदि प्रदान करके उसे प्रसन्न करें। इसके उपरांत उस सिद्ध श्रीयंत्र को अपने व्यापरिक स्थल की तिजोरी आदि में अथवा घर में पूजा-स्थल पर स्थापित कर दें और नित्य-प्रति उसका दर्शन करके धूप आदि दें। यह सिद्ध श्रीयंत्र जब तक घर अथवा दुकान में रहेगा, तब तक ऋद्धि-सिद्धि बनी रहेगी और साधक की भाग्योन्नति में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती रहेगी। देवी लक्ष्मी की स्थिरता के लिए यह एक अनुभूत प्रयोग है, जिसका सदैव सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुआ है। श्रीयंत्र के संबंध में आवश्यक सावधानियां- श्रीयंत्र प्राप्त करते समय एवं पूजन के संबंध में साधकों को निम्नलिखित कुछ विशिष्ट बातों का ध्यान रखना चाहिए। श्रीयंत्र पूर्णतः शुद्ध एवं प्रामाणिक होना चाहिए। यदि श्रीयंत्र किसी धातु-पत्र पर बना हो तो वह उत्कीर्ण अथवा धंसी हुई रेखाओं में नहीं, बल्कि उभरी हुई रेखाओं में हो। यदि वह मणि, अथवा शिला का बना हो और मेरु आकार का हो तो उसके कोण सही प्रकार से बने हों और वे खंडित अथवा संख्या में कम या अधिक न हों। उनकी संख्या 49 होनी चाहिए। यंत्र किसी योग्य व्यक्ति द्वारा प्राण-प्रतिष्ठित होना चाहिए। श्रीयंत्र को सिद्ध करने के पहले योग्य गुरु से दीक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए। यदि साधक जप करने की स्थिति में न हो तो श्रीयंत्र के समक्ष केवल प्रार्थना, आरती अथवा स्तोत्र पाठ करें। श्रीयंत्र साधना के समय भक्ति भावना, तथा शुचिता और श्रद्धा बनाए रखें। साधना समर्पित भाव से करनी चाहिए। यंत्र की स्थापना के बाद प्रतिदिन उसका अभिषेक व पूजन आवश्यक है। अभिषेक यदि न भी कर सकें तो पूजन अवश्य करें। जिसने कोटि जन्मों तक तप किया हो, वही इस विद्या की प्राप्ति कर भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति करता है। अतः इसके प्रति सशंकित न हों, न उपहास उडाएं और न ही इसकी शक्ति के परीक्षण के उद्देश्य से साधना करें। श्रीहीन व्यक्ति सर्वथा असमर्थ होता है, अतः श्रीयुक्त एवं समर्थ बनने के लिए श्रीविद्या उपासना आवश्यक है। श्रीयंत्र विभेद: श्रीयंत्र का विन्यास बहुत ही विचित्र है। इसके मध्य में एक बिंदु और बाहर की ओर भूपुर होते है। भूपुर के चारों ओर चार द्वार होते हैं। बिंदु से भूपुर तक दस प्रकार के अवयव होते हैं। पूजन के समय मध्यस्थ बिंदु को भी तीन बिंदु के रूप में माना जाता है। मूल बिंदु को योनि तथा शेष दो बिंदुओं को भगवती त्रिपुर संुदरी के दो कुच माना जाता है। इन्हीं तीनों बिंदुओं के ध्यान को ‘कामकला’ कहा जाता है। श्री यंत्र के मुख्य तीन रूप होते हैं। भूपृष्ठ- जो यंत्र समतल होता है, उसे भूपृष्ठ कहते हैं। यह स्वर्ण, रजत अथवा ताम्रपत्र पर बनाया जाता है। इसे भोजपत्र पर भी बनाया जा सकता है, परंतु इसकी निर्माण प्रक्रिया अत्यंत क्लिष्ट होने के कारण सामान्यतः इसे बना-बनाया ही प्राप्त किया जाता है। कच्छ-पृष्ठ- जो श्रीयंत्र मध्य में कछुए की पीठ के समान उभरा हुआ हो उसे कच्छप-पृष्ठ कहा जाता है। मेरु पृष्ठ- जिस श्रीयंत्र की बनावट सुमेरु पर्वत की आकृति में हो, उसे मेरु पृष्ठ कहा जाता है। स्फटिक मणि से बने यंत्र अधिकांशतः मेरु पृष्ठकार होते हैं। स्फटिक से बने श्रीयंत्र की एक विशिष्टता है कि जिस समय साधक आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण होता है उस समय उसके शरीर से बाहर प्रवाहित होने वाली ऊर्जा को यह स्वयं में समाहित कर लेता है। परंतु इसके लिए यह अत्यंत ही आवश्यक है कि पूजा-स्थल में रखा हुआ श्रीयंत्र पूर्णतः प्राण प्रतिष्ठित और चैतन्य हो। साथ ही उसके कोण आदि निर्धारित संख्या में और समान आकार में हों। श्रीयंत्र वास्तव में श्री अर्थात् लक्ष्मी का निवास स्थान हैं। जहां श्रीयंत्र की स्थापना नियमानुसार होती है वहां लक्ष्मी का वास होता है। श्रीविद्या की पीठ, मंदिर एवं पूजा स्थल यद्यपि यह संपूर्ण विश्व ही भगवती त्रिपुर संदुरी का निवास है फिर भी स्थूल दृष्टि से उनके कुछ प्रमुख स्थानों का विवरण यहां प्रस्तुत है। श्री विंध्यवासिनी क्षेत्र में अष्टभुजा के मंदिर के पास भैरव कुंड नामक स्थान है। यहां एक खंडहर में विशदाकार श्रीयंत्र रखा हुआ है। एक अन्य श्रीयंत्र फर्रुखाबाद जनपद के तिरवा नामक स्थान पर है। वहां एक विशाल मंदिर है, जिसे माता अन्नपूर्णा का मंदिर कहा जाता है। लेकिन वास्तव में वह त्रिपुरा का मंदिर है। यहां एक ऊंचे से चबूतरे पर संगमरमर पत्थर पर बहुत बड़ा श्रीयंत्र बना हुआ है और उसके केंद्र बिंदु पर पाशाकंुश एवं धनुर्बाण से युक्त भगवती की बहुत ही सुंदर चतुर्भुजी प्रतिमा है। इस मंदिर का निर्माण राजा तिरवा ने लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व किसी तांत्रिक महात्मा के निर्देशानुसार कराया था। यह स्थान 51 शक्तिपीठों में से एक है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में मोखी नगर में भगवती का विशाल मंदिर है, जहां बहुत ही संुदर श्रीयंत्र बना हुआ है। इस मंदिर को कामेश्वराश्रम के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार जबलपुर के पास परमपूज्य गुरुदेव जगद् गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने भी सुरम्य वनाच्छादित प्रदेश में परमहंसी गंगा आश्रम की स्थापना की थी जहां मंदिर की ऊंचाई लगभग 218 फुट ऊंची है और उसके गर्भ गृह में भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुरसुंदरी की पांच फुट ऊंची दिव्य एवं मनोहर प्रतिमा है। यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला की अनुपम कृति है, जो मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के झोटेश्वर नामक स्थान पर है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य सुरम्य स्थलों पर भी भगवती त्रिपुरसुंदरी के पीठ स्थापित हैं, जिनमें वाराणसी में केदारघाट पर श्रीविद्या मठ, पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कोन्नगर स्थान पर राजराजेश्वरी सेवा मठ, मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में मोहनगढ़ में राजराजेश्वरी मंदिर, कोलकाता के श्रीरामपुर में श्रीमाता कामकामेश्वरी मंदिर और जनपद मेरठ के सम्राट पैलेस स्थान पर भगवती राजराजेश्वरी मंदिर प्रमुख हैं। श्रीयंत्र विद्या की पात्रता- श्रीयंत्र यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ है। परंतु आजकल प्रायः ‘श्रीचक्र’ ही देखने में आते हैं, जो बीज, शक्ति, मंत्र आदि से रहित होते हैं। बीजाक्षर शक्ति, मंत्र और यंत्र की आत्मा तथा प्राण होते हैं। श्रीचक्र इतना प्रभावशाली होता है कि उसके प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक दर्शनमात्र से ही कुछ समय के उपरांत मनोकामना पूर्ण होने लगती है। इस महायंत्र को धूप, गंध आदि देकर पवित्र भावना से नित्यप्रति षोडशोपचार पूजन कर सकते हैं। इस यंत्रराज की स्वामिनी भगवती त्रिपुरसुंदरी हैं, जो दश महाविद्याओं में तृतीय महाविद्या हैं और षोडशी स्वरूपा हैं। तंत्र अथवा मंत्र की सिद्धि के लिए गुरु से दीक्षा प्राप्त करना आवश्यक है। फिर श्रीविद्या तो एक गुह्य विद्या है, जिसे गुरु से दीक्षा लेकर अभ्यास द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। एक बड़े कवि ने यह भी कहा है कि श्रद्धा से भी सब कुछ संभव है। उनके शब्दों में - ‘‘श्रद्धा मनुष्य जीवन का मेरूदंड है। जिस प्रकार मेरुदंड’’ के बिना मनुष्य अशक्त होता है, उसी प्रकार श्रद्धा रहित मनुष्य का जीवन भी शक्ति और तेज से हीन रहता है।’’ श्रीयंत्र की स्वामिनी भगवती ललिता की उपासना के लिए दीक्षा एक अनिवार्य शर्त है, परंतु यदि कोई योग्य गुरु न मिलें तो श्रीयंत्र की पूजा श्रद्धा और विश्वासपूर्वक जन सामान्य भी कर सकते हैं। इससे सुख-समृद्धि के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग भी स्वतः ही खुलने लगता है। भगवती ललितांबा शक्ति संपन्न वैष्णवी शक्ति हैं, वे ही विश्व की कारण भूता परामाया हैं, भोग और मोक्ष की दाता हैं और संपूर्ण जगत् को मोहित किए हुए हैं। सभी विद्याएं उनके ही स्वरूप हैं, उन्होंने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। इसीलिए उनके विषय में कहा गया है- गिरामाहुर्देवीं द्रुहिण गृहिणी मागमविदो हरेः पत्नीं पùां हरसहचरीमद्रितनयाम्। तुरीया कापि त्वं दूरधिगमनीः सीममहिमा महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषी।। ।।श्रीं।।



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