किसी भी धार्मिक कृत्य, पूजा-पाठ व मंत्र आदि के जप से पूर्व होने वाली सूक्ष्म क्रियाओं संकल्प, विनियोग, न्यास व ध्यान आदि से आम जन सामान्यतः अनभिज्ञ होता है। इसलिए इस आलेख में इन आवश्यक क्रियाओं के महत्व पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है संकल्प संकल्प में हर प्रकार का विवरण होता है जैसे कि किसी बैंक के खाते में होता है यानि आप किस प्रकार का खाता खोलना चाहते हैं (सेविंग, रेकरिंग आदि)। आप इनवेस्टमेंट करना चाहते हैं या टर्म डिपोजिट करना चाहते हैं अर्थात् आप करना क्या चाहते हैं? इसमें टाईम, प्लेस, डेट आदि सभी बातें मेन्षन की जाती हैं। आप जो भी करना चाहते हैं वह आपको स्पेसिफाई करना पड़ेगा। अगर आप स्पेसिफाई नहीं करते तो आपके सभी प्रोजेक्ट्स डोल-ड्रम्स में हैं। जब तक आप स्पेसिफाई नहीं करेंगे आप का कोई भी प्रोजेक्ट नहीं चलेगा। आपको अपने फाॅर्म में सभी विवरण भरना नितांत आवष्यक होगा। इसी प्रकार यदि आप पूजा कार्य के आरम्भ में संकल्प नहीं करेंगे तो आप की पूजा निरर्थक हो जाएगी क्योंकि उसे कोई आधार ही नहीं मिल सकेगा। संकल्प मानसिक न होकर वाचिक होगा तो आपके शब्द ब्रह्माण्ड में नाद-ब्रह्म के केनवस पर रिकाॅर्ड हो जायेंगे जो अमिट होंगे और आपके ऊपर प्रभावी होंगे और फलस्वरूप आपका आवेदन स्वीकार हो जाएगा अर्थात् आपकी पूजा को आधार मिल जाएगा। विनियोग विनियोग का अभिप्राय नामांकित होने की प्रक्रिया से है। विनियोग में मंत्र के ऋषि देवता और छन्द का उल्लेख किया जाता है। ऐसा किये बिना ठीक वैसे ही होता है जैसे बैंक में पैसा जमा करने वाला व्यक्ति अपना नाम एवं विवरण दर्ज न करे। ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त उसका धन सरकारी कोष में चला जाता है। विनियोग के बिना की गई पूजा का फल ठीक इसी प्रकार ब्रह्माण्ड की विराटता में समा जाता है और पूजा करने वाले को इसका कोई फल नहीं मिल पाता। न्यास न्यास द्वारा मंत्र या पाठ के टुकड़ों को शरीर के आन्तरिक और बाह्य अंगों में आरोपित किया जाता है जिससे साधक मंत्र व इसके देवता के साथ एकाकार हो सके और उसमें षिव भाव का उदय हो। जीव और परमात्मा में अभेद स्थापित करने का उपदेष वेद और उपनिषदों में दिया गया है। इसी उद्देष्य की पूर्ति हेतु न्यास किया जाता है। यह न्यास की प्रक्रिया तत्वमसि होने का व्यावहारिक रूप है। न्यास किए जाने पर इष्ट मंत्र के देवता साधक की कवच की तरह सर्वरूपेण रक्षा करते हैं। ऐसा करने से मन्त्र की भी रक्षा होती है और जप माला की पूजा करना भी इसी विधान का अंग है। इस प्रकार न्यास करने से आप देवमय हो जाएंगे। न्यास का मूल अभिप्राय है देवता बनकर देवता की पूजा करना। मंत्र, देवता और साधक में न्यास द्वारा अभेद स्थापित होने की स्थिति बनती है और फलस्वरूप यदि पूजा कार्य में कोई त्रुटि रह जाए तो साधक को इसका दोष नहीं लगेगा। उदाहरणस्वरूप यदि आप राजा की अनुपस्थिति में राजा का दायित्व निभाने को बाध्य हो जाएं तो ऐसी स्थिति में यदि आप अपने मन के अन्दर यह कल्पना करें कि आप अमुक राजा हैं तो कठिनाई के समय आप निष्चित रूप से वास्तविक राजा की तरह ही निर्णय लेने में सक्षम हो सकेंगे और त्रुटि रहने की सम्भावनाएं लगभग समाप्त हो जाती हैं। ध्यान न्यास पूर्ण होने पर मन को सब ओर से हटाना सरल होने लगता है। मन को पूर्णतया एकाग्र स्थिति में लाने के लिए ध्यान का मन्त्र इसलिए सहायक होता है क्योंकि इष्टदेव के रूप की कल्पना पूजा कार्य आरम्भ करने पर ही होने लग जाती है और न्यास पूर्ण होने तक साधक निष्चित रूप से इष्ट देवता के ध्यान में गहराई महसूस करने लगता है। मन्त्र का निरन्तर अभ्यास करने पर उपांषु जप आरम्भ हो जाता है और साधक का मन बिना प्रयास के स्वतः ही अपने इष्ट के साथ तदरूप हो जाता है। इस प्रकार से पूजा करने से धीरे-धीरे मन पर नियन्त्रण होने लगता है क्योंकि संकल्प, विनियोग, न्यास, ध्यान व पूजा उपचारों का प्रपंच आपको एकाग्रता से कार्य करने के लिए बाध्य कर देता है। इन सभी प्रक्रियाओं में ध्यान के इधर उधर हो जाने पर पूरी पूजा का क्रम इधर-उधर हो जाता है इसलिए साधक एकाग्रता बनाए रखने के लिए मजबूर हो जाता है। जब यह मजबूरी आदत बनने लग जाती है तो पूजा कार्य का कुशलता से संपादन करना पूर्णतया सरल होने लगता है। पूजा का वास्तविक उद्देश्य है मन पर काबू पाकर मन को ईश्वरोन्मुख करके उनकी कृपा का पात्र बनना।