जगद्गुरु शंकराचार्य
जगद्गुरु शंकराचार्य

जगद्गुरु शंकराचार्य  

व्यूस : 9172 | नवेम्बर 2013
आधुनिक भारत में भारतीय वेदांत दर्शन के इस परम ज्ञान का प्रचार प्रसार करने में महाबुद्धिमान, प्रकांड विद्वान और अति दुर्लभ उदार मानवतावादी संत अनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी का योगदान अतुलनीय है। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी को इस ब्रह्म ज्ञान को सुलभ कराने वाली श्रीविद्या साधना का श्रेष्ठतम साधक माना जाता है और श्रीविद्या साधना के अनुयायी इनसे इस परम ज्ञान की साधना हेतु गुरु दीक्षा भी प्राप्त करते हैं। श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज करोड़ों सनातन हिंदू धर्मावलंबियों के प्रेरणापुंज और उनकी आस्था के ज्योति स्तंभ हैं। भारतीय सनातन धर्म की शिक्षाओं और दर्शन का सार निम्नांकित श्लोक में निहित है- ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या। जीवो ब्रह्मैव न परः।। ब्रह्म अकेला ही परम सत्य है। यह संसार अवास्तविक अर्थात् माया है और जीव या आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है। Brahma, the absolute, alone is real, this world is unreal (maya) and the Jiva or the individual soul is not different from Brahma. पूज्यपाद शंकराचार्य गुरु जी का जीवन विभिन्न रोचक घटनाक्रमों से भरा है। इनका जन्म एक सात्विक कर्मकांडी ब्राह्मण धनपति उपाध्याय और माता गिरिजा देवी के यहां सिवनी, मध्यप्रदेश में हुआ। इनके बचपन का नाम पोथी राम शायद इसलिए दिया गया था कि एक दिन ये वेद, वेदांग, पुराणों आदि सभी शास्त्रों के प्रकांड विद्वान बनेंगे और आगे चलकर हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के ध्वजधारक बनेंगे और ऐसा हुआ भी। 9 वर्ष की बाल्यावस्था में ही घर छोड़ दिया। चल दिये साधुसंतों की संगत में सभी प्रमुख तीर्थों की आध्यात्मिक यात्रा पर। आज ज्योतिपीठ एवं द्वारका शारदा द्वय पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य अनंत श्री विभूषित गुरुजी श्री स्वरूपानंद सरस्वतीजी महाराज न्यायशास्त्र और तर्कशास्त्र के प्रकांड विद्वान, वैदिक सनातन धर्म के सक्षम प्रवक्ता अकेले ऐसे संत हैं, जिन्होंने 19 वर्ष की बालवय में संन्यासी होते हुए भी 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और स्वतंत्रता सेनानी होने का श्रेय प्राप्त किया। उन्होंने कहा था, जिस देश के लोग ही स्वाधीन और स्वतंत्र न हों, जो विदेशियों और विधर्म के गुलाम हों वहां धर्म कैसे रह सकता है। देश की आजादी के बाद वे धर्म संस्थापना के कार्य में जुट गये। काशी में स्वामी श्री करपात्रीजी महाराज और स्वामी श्री महेश्वरनंदजी महाराज से उन्होंने धर्मशास्त्र की शिक्षा पायी और 1952 में शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंदजी महाराज ने उन्हें दीक्षित कर स्वरूपानंद सरस्वती के नये नाम से दंडी स्वामी बनाया। स्वामी स्वरूपानंदजी ने देखा कि भारत स्वाधीन तो हो गया किंतु भारत की जनता आज भी सभी प्रकार के दैहिक, दैविक और भौतिक संतापों से ग्रस्त है तो रामराज्य परिषद के अध्यक्ष के रूप में, जिसकी स्थापना करपात्री जी ने की थी, उन्होंने समूचे देश का भ्रमण करके हिंदुओं में नयी चेतना का संचार किया और उन्हें अपने अस्तित्व का आभास कराया। 1973 में ज्योतिपीठ के शंकराचार्य स्वामी श्री कृष्णबोधाश्रम के ब्रह्मलीन हो जाने पर 1973 में काशी विद्वत परिषद तथा अनेक संतों की उपस्थिति में स्वामी श्री करपात्री जी महाराज और द्वारका शारदापीठ के शंकराचार्य के हाथों गुरुजी स्वरूपानंदजी महाराज ज्योतिपीठ के शंकराचार्य अभिषिक्त हुए। 1982 में शृंगेरी के शंकराचार्य स्वामी श्री अभिनव विद्यातीर्थ महाराज के हाथों स्वामी स्वरूपानंदजी महाराज द्वारका शारदापीठ के शंकराचार्य अभिषिक्त हुए। महाराजश्री ने सनातन हिंद धर्म के उत्थान, प्राचीन हिंदू मंदिरों के जीर्णोद्धार और विश्व कल्याण के लिए अनेक कार्य हाथ में लिये, जिनमें झारखंड के सिंहभूम जिले में विश्वकल्याण आश्रम प्रमुख है जहां अत्यंत पिछड़े, कुपोषण के शिकार और बीमारियों से ग्रस्त आदिवासियों को निःशुल्क इलाज, भोजन और शिक्षा दी जाती है। आश्रम का 2 करोड़ रुपये की लागत से स्थापित अस्पताल बेजोड़ है। महाराजजी का मानना है कि भौतिक के साथ ही आध्यात्मिक उत्थान के बिना मनुष्य का विकास हो ही नहीं सकता। इसके लिए उन्होंने देशभर में आध्यात्मिक उत्थान मंडलों की स्थापना की है, जिसकी गतिविधियां धर्म संस्थापन के कार्य में लगी हुई हैं जिनमें मंदिरों का निर्माण और रखरखाव, पूजा पद्धतियों का सही ढंग और शिक्षा आदि की जनकल्याणकारी प्रवृत्तियां शामिल हैं। राम जन्मभूमि पुनरूद्धार के बाद अब उन्होंने रामजन्म भूमि स्थल पर ब्रह्म राम के मंदिर निर्माण का आंदोलन शुरू कर दिया है। सेतु समुद्रम नहर योजना की आड़ में तमिलनाडु में रामेश्वर और श्रीलंका के बीच में हिंदुओं के आराध्य सेतुबंध रामेश्वरम तथा मंदिर को उजाड़ने के कुचक्र का विरोध किया और उसे रूकवाया। उन्हीं के सद्प्रयासों से सरकार ने गंगाजी को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है तथा गंगाजी के अविरल प्रवाह को बरकरार रखने के लिए वे संघर्षरत हंै। नकली स्वयंभू शंकराचार्यों के कुचक्र से हिंदू जनता को भ्रमित होने से बचाने के लिए नकली शंकराचार्यों के विरूद्ध आपने आवाज उठायी है। चंूकि मुझे पूज्य गुरुदेव से दीक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है इसलिए मैं उन्हें गुरुदेव कह कर ही संबोधित करूंगी। हाल ही में दिल्ली में उनके दर्शन करने का मौका मिला और उन्होंने चातुर्मास का समय भी यहीं बिताया। गुरुजी के जन्म दिवस के शुभावसर पर फ्यूचर पाॅइंट के समस्त परिवार की ओर से गुरुजी को हार्दिक बधाई और हमारी यही कामना है कि हमें चिरकाल तक उनका आशीर्वाद मिलता रहे और उनका वरदहस्त हमेशा हमारे ऊपर रहे। शंकराचार्य की जन्मकुंडली का ज्योतिषीय विश्लेषण: सर्वप्रथम हम गुरुजी की जन्मकुंडली में विद्यमान विभिन्न योगों की चर्चा करेंगे जिनकी उपस्थिति ने आपको एक महान संत एवं जगद्गुरु बनाया। ध्यान समाधि योग ज्योतिष ग्रंथ सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार दशम भाव का स्वामी यदि बलवान राशि में हो और जिस राशि में वह बैठा हो, उस राशि के स्वामी का नवमेश के साथ किसी प्रकार से संबंध बनता हो तो वह जातक जप, ध्यान, समाधि प्राप्त करता है। गुरु जी की कुंडली में यह योग पूर्णरूप से विद्यमान है । कुंडली में दशमेश शनि अपनी उच्च राशि में स्थित होकर बलवान है तथा जिस राशि में शनि स्थित है उस राशि का अधिपति शुक्र केंद्र में स्थित होकर नवमेश बृहस्पति से दृष्ट है जिसके निष्कर्षतः गुरुजी एक सच्चे महान योगी हैं और अपने गहन तप व साधना के कारण आज दीर्घजीवी योगी की भांति समाज का कल्याण कर रहे हैं। मेधावी योग जन्मकुंडली में यदि चतुर्थेश ग्रह शुभ ग्रह के नवमांश में हो तो मेधावी योग होता है। इनकी कुंडली में चतुर्थेश चंद्रमा बुध के नवमांश में होने से यह योग पूर्ण रूप से घटित हो रहा है और इसी के प्रभाव से इन्हें छोटी अवस्था में ही वेद, पुराण एवं शास्त्रों का अल्प काल में ही ज्ञान प्राप्त हो गया। सम्मान योग यदि जन्मपत्रिका में सुख स्थान में शुभ ग्रह हो व शुभ ग्रह से दृष्ट हो तथा चतुर्थ भाव का कारक ग्रह भी बलवान हो तो विशिष्ट सम्मान योग बनता है। गुरुजी की कुंडली में चतुर्थ स्थान में नैसर्गिक शुभ ग्रह शुक्र स्थित है तथा शुक्र पर शुभ ग्रह बृहस्पति की दृष्टि है। चतुर्थ भाव कारक चंद्रमा उच्च बुध के साथ स्थित होने से बलवान है अर्थात् यह योग पूर्ण रूप से घटित हो रहा है। इस शुभ योग के प्रभाव से स्वामी जी को विद्वान समाज में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त है तथा दो पीठों के पीठाधीश्वर के रूप में आप हिंदू धर्म समाज में विशेष आदरणीय बने हुए हैं। धैर्यवान योग यदि जन्मपत्रिका में तृतीयेश चंद्रमा से युक्त हो तो धैर्यवान योग होता है। गुरुजी की कुंडली में तृतीयेश बुध चंद्रमा के साथ स्थित है। अपने मनोबल और धैर्य से इन्होंने अनेक असंभव कार्यों को संभव करके दिखाया। वाशि योग यदि जन्मकुंडली में सूर्य से बारहवें भाव में चंद्र को छोड़कर अन्य कोई ग्रह विद्यमान हो तो यह योग बनता है। गुरुजी की कुंडली में सूर्य से द्वादश भाव में शुक्र स्थित है इसलिए वाशि योग पूर्ण रूप से घटित हो रहा है। इस योग के शुभ प्रभाव से गुरुजी परोपकार के कार्यों में संलग्न हैं तथा उन्हें समाज में विशेष मान व प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो रही है। सुनफा योग चंद्रमा से द्वितीय भाव में यदि सूर्य को छोड़कर कोई अन्य ग्रह हो तो यह योग बनता है। गुरुजी की कुंडली में चंद्रमा से द्वितीय भाव में शनि ग्रह होने से यह योग बन रहा है। इसी योग के कारण गुरुजी का समाज के सभी वर्गों में आदर है तथा उनके अंदर एक अद्भुत नेतृत्व की क्षमता है। उनके एक इशारे पर हजारों श्रद्धालु भक्तगण उनकी आज्ञा पालन के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। शश योग पूज्य गुरुजी की कुंडली में शनि ग्रह अपनी उच्च राशि तुला में सप्तम केंद्र भाव में स्थित है जिससे बलवान शश नामक पंच महापुरुष योग बन रहा है इसीलिए गुरुजी के जीवन में कठोर तप, संयम, अनुशासन, न्याय प्रियता तथा समाज के प्रति दायित्व जैसे गुण पूर्ण रूप से विद्यमान हैं और गुरुजी स्वतंत्रता संग्राम में आजादी के लिए जेल भी गये तथा समय-समय पर समाज में होने वाले आंदोलनों में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाते रहते हैं। गुरुजी की नवमांश कुंडली में चंद्र, शुक्र वर्गोत्तम नवमांश में स्थित है तथा मंगल व गुरु स्व नवांश में स्थित है। लग्नेश मंगल का लाभ भाव में होने से और आयु कारक ग्रह शनि अपनी उच्च राशि में केंद्र में स्थित होने से गुरुजी को दीर्घायु प्राप्त हो रही है। पंचम भाव में अपनी मूल त्रिकोण राशि में स्थित सूर्य गुरुजी को तेजस्विता प्रदान कर रहे हैं और पूर्व जन्म कृत शुभ कार्यों के संबंध का भी स्पष्ट संकेत दे रहे हैं। वर्तमान समय में गुरुजी की मारकेश शुक्र की महादशा चल रही है जिसके कारण बीच-बीच में स्वास्थ्य संबंधी कष्ट होने के योग भी हैं। ऐसा लगता है कि स्वामी जी का जन्म आध्यात्मिकता और सांसारिकता में संतुलन बनाने के लिए हुआ है। स्वामी जी ने न केवल छोटी आयु से ही त्याग और ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति का मार्ग अपना लिया अपितु स्वतंत्रता सेनानी के रूप में राष्ट्रहित को साधने का प्रयास भी जारी रखा। आधुनिक युग में ये न केवल जगद्गुरु शंकराचार्य के रूप में आध्यात्मिक ज्ञान का मार्ग दिखाते हैं अपितु एक कुशल समाज सुधारक व दबे कुचले वर्ग के लोगों के उत्थान हेतु भी प्रयासरत रहते हैं। यदि स्वराशि के ग्रह के साथ राहु या केतु स्थित हो तो वह ग्रह चार गुना बली हो जाता है। इनकी कुंडली में पंचमेश सूर्य इस योग का निर्माण करके इन्हें अति तीक्ष्ण बुद्धि का व्यक्ति बना रहा है। इनकी कुंडली में सातों ग्रह पूर्ण बली हैं। शश योग, चंद्र कुंडली के भद्र योग, वर्गोत्तमी चंद्रमा व शुक्र तथा स्वनावांशस्थित मंगल व गुरु ने इन्हें अद्वितीय महापुरूष व महान विचारक बनाया। आयु के 90 वर्ष पूरे कर लेने पर भी जिस उत्साह से ये कार्य करते हैं उसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता है। समाज में शांति, पवित्रता, संयम व भाईचारे की स्थापना हेतु स्वामी जी ऐसे ही निरंतर कार्य कतरे रहें और हमारा उत्साहवर्धन करते रहें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हम ईश्वर से इनकी दीर्घायु व अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं।



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