भूत-प्रेत: एक तार्किक विवेचन गोपाल राजू 21 वीं सदी में बौद्धिक वर्ग, विज्ञानवादी, आस्तिक-नास्तिक भूत-प्रेत के अस्तित्व को अंधविश्वास की संज्ञा देने का असफल प्रयास अवश्य करते हैं परंतु संतोषजनक उत्तर देने से वे सदैव बचते हैं। भूत-प्रेत अंधविष्वास है अथवा एक तार्किक एवं विवेचनात्मक तथ्य, आइए, इस ज्वलंत विषय पर डालें एक नजर - कहा जाता है कि किसी भी झूठ को सत्य बनाने के लिए यदि उसको अधिकांष लोगों द्वारा दोहराया जाने लगे तो झूठ भी अन्ततः सत्य प्रतीत होने लगता है। परन्तु हवा, पानी, आग, ताप आदि के अस्तित्व को झुठलाने के लिए करोड़ों-अरबों लोग भी एक साथ झूठा सिद्ध करने का प्रयास करें तो भी वह सत्य को झुठला नहीें पाएंगे। आत्मा के विभिन्न स्वरूपों के बारे में भी यही स्थिति है। आत्मा के तीन स्वरुप माने गए हैं - जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है वह जीवात्मा कहलाती है। जब वासनामय शरीर में जीवात्मा का निवास होता है तब वह प्रेतात्मा कहलाती है। यह आत्मा जब अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेष करता है, उस अवस्था को सूक्ष्मात्मा कहते हैं। वासना के अच्छे और बुरे भाव के कारण अथवा भाव के आधार पर मृतात्माओं को भी अच्छे और बुरे की संज्ञाएं दी गयी हैं। जहां अच्छी मृतात्माओं का वास होता है उसे पितृलोक तथा बुरी आत्मा वाले को प्रेत लोक, वासना लोक आदि कहते हैं। अच्छे-बुरे स्भावानुसार ही मृतात्मा अपनी अतृप्त वासनाओं की पूर्ति के निमित्त अपने अनुरूप कुकर्मी, वासनामय जीवन जीने वाले भौतिक शरीर की तलाष करती है, ताकि उसके माध्यम से गुण-कर्म, स्वभाव के अनुसार अपनी अषान्त, असन्तुष्ट, विक्षुब्ध तथा वासनामयी दुरभिसंधि रच सके तथा अपने अनुकूल तत्वों को ग्रहण कर सके। इसलिए जिस मानसिकता, वृत्ति-प्रवृत्ति, सत्कर्मों आदि का भौतिक शरीर होता है उसी के अनुरुप आत्मा उसमें प्रविष्ट होती है और अपने-अपने तत्व ग्रहण करती है। अधिकांशतः भौतिक शरीर को इसका पता नहीं चल पाता परंतु आज असंख्य उदाहरण मिलते हैं कि पितृलोक की आत्माओं ने भौतिक शरीर का मार्गदर्शन किया, उनका उत्थान किया अथवा दुष्ट प्रवृत्तिनुसार उन्हें परेशान किया। यह थी प्रेतात्मा की आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना। तत्वदर्शन भूत का शाब्दिक अर्थ लगाता है - जिसका कोई वर्तमान न हो, केवल अतीत हो। योग तथा प्राच्य ऋषि परंपरानुसार मानव शरीर पांच तत्वों से निर्मित है तथा इनका प्रभाव ही मानव शरीर पर पड़ता है। शरीर जब मृत्यु को प्राप्त होता है, तो स्थूल शरीर यहां ही पड़ा रह जाता है और अपने पूर्व संचित कर्म अथवा पाप या श्रापवश उसे अधोगति या भूतप्रेत योनि प्राप्त होती है। मृत्यु के बाद मनुष्य की अगली यात्रा वायु तत्व प्रधान अर्थात् सूक्ष्म शरीर से प्रारंभ होती है। इसमें अग्नि, जल, पृथ्वी तत्व का ठोसपन नहीं होता, क्योंकि यदि यह होता तो इसमें रुप, रस, गंध अवश्य रहती। इनका संतुलन बना रहे इसलिए इन तत्वों की प्रधानता वाले तत्वों की आवश्यकता होती है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रेत वायवीय देहधारी होते हैं। अतः पानी, भोजन अथवा मानवोचित क्रियाएं इनमें नहीं होतीं। वायु प्रधान होने से इनमें आकार या कर्मेन्द्रियों की प्रखरता नहीं रहती। वायु व आकाश की प्रमुखता होने पर उनका रुप भी उनके अनुरुप बन जाता है। प्रेत योनि बोलने में असमर्थ है। वह केवल संवेदनशील है। ठोसपन न होने के कारण ही प्रेत को यदि गोली, तलवार, लाठी आदि मारी जाए तो उस पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता। प्रेत में सुख-दुःख अनुभव करने की क्षमता अवश्य होती है क्योंकि उनके बाह्यकरण में वायु तथा आकाश और अंतःकरण में मन, बुद्धि और चित्त संज्ञाशून्य होती है इसलिए वह केवल सुख-दुःख का ही अनुभव कर सकते हैं। वैदिक साहित्य, पुराण-आगम, श्रीमद्भागवत, गीता, महाभारत, मानस साहित्य आदि में असंख्य ऐसे प्रसंग आते हैं कि इस योनि के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। गीता में ‘धंुधुकारी प्रेत’ की कथा सर्वविदित है। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर प्रेत-पिशाचों का उल्लेख मिलता है। एक स्थान पर ऋषि कहते हैं - ‘हे श्मशान घाट के पिशाचादि, यहाॅ से हटो और दूर हो जाओ।’ भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को श्राद्ध-विधि समझाने के प्रकरण में, देव-पूजन से पूर्व गन्धर्व, दानव, राक्षस, प्रेत, पिशाच, किन्नर आदि के पूजन का वर्णन आता है। चरक संहिता में प्रेत बाधा से पीड़ित रोगी के लक्षण और निदान के उपाय विस्तार से मिलते हैं। ज्योतिष साहित्य के मूल ग्रंथों - प्रष्नमार्ग, बृहत्पराषर होरा शास्त्र, फलदीपिका, मानसागरी आदि में ऐसे ज्योतिषीय योग हैं जो प्रेत पीड़ा, पितृदोष आदि बाधाओं का विष्लेषण करते हैं। ऐसा नहीं कि हिन्दू दर्शन, अध्यात्मयोग में ही प्रेतों के अस्तित्व को स्वीकारा गया है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त विश्व में बौद्ध, ताओ, कन्फ्यूसियस, षिन्टों, जरथ्रुस्त (पारसी), इस्लाम, यहूदी तथा ईसाई धर्मों के अनुयाईयों नें भी एक मत से इस योनि को स्वीकारा है। आज संपूर्ण विश्व में इस अलौकिक सत्य को जानने के लिए अनेक शोध कार्य किए गए हैं। वैज्ञानिक जगत में विष्वव्यापी क्रान्ति इस दिषा में तब आई जब क्रिलियाॅन फोटोग्राफी द्वारा आभामंडल का फोटो खीचा गया। कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के कुछ खोजियों ने एक आष्चर्यजनक प्रयोग इस विषय में किया कि प्राणी की मृत्यु के समय उसके शरीर को त्यागने पर वैद्युतिक परमाणुओं का अर्थात् उस आत्मा का भी फोटों उतारा जा सकता है। इस के लिए उन्होंने ‘विलसा क्लाउड चैम्बर’ का प्रयोग किया। यह विषेष चैम्बर या कक्ष एक खोखले सिलिण्डर के आकार का होता है, जिसके भीतर से हवा को सक्षन पम्प द्वारा बाहर निकालकर अन्दर पूर्णरुप से शून्य पैदा किया जाता है। उस सिलिण्डर के अन्दर एक सिरे पर एक विषेष प्रकार का गीला कागज़ चिपका दिया जाता है जिससे इतनी नमी निकलती रहे कि भीतरी भाग में यदि एक भी इलैक्ट्रान या अणु गुजरे तो विषेष फोटो तकनीक द्वारा उसका चित्र उतारा जा सके। इस प्रकार के क्लाउड चैम्बर की बगल में एक छोटी-सी कोठरी बनाई गई और उसके भीतर कुछ मेंढक और चूहे रखे गए। किसी विषेष वैज्ञानिक विधि से उनका प्राणान्त किया गया और उसी क्षण कैमरे से कक्ष के भीतर होने वाले परिवर्तन को चित्रित कर लिया गया। 50 में से 30 प्रयोगों में पाया गया कि जो फोटो खींचे गए उनमें मृत प्राणी के आकार से मिलते-जुलते क्रम में इलैक्ट्रानों से छायात्मक आकृतियाॅ बन गयीं। कालान्तर में असंख्य बार अनुभव में आया कि केवल मनुष्यों और पशुओं की ही छायात्माएं नहीं दीखतीं, वरन् बड़े-बड़े विध्वंसक जहाजों और रेलों आदि की भी भूतात्माएं दिखाई देती हैं। समुद्रों में जो बड़े-बड़े जहाज दुर्घटना ग्रस्त होते हैं उनमें से कुछ अपने पूर्व आकार में समुद्र में चक्कर लगाते देखे गए। कई बार नाविक उन्हें छाया न समझकर वास्तविक जहाज समझ बैठते हैं। फलस्वरुप उस छाया से टकराने से बचने की चेष्टा में स्वयं भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में अनेक प्रामाणिक और विष्वसनीय तथ्य खोजियों को मिले हैं। इधर दुर्घटनाओं में ध्वस्त रेलों की छायात्माओं का भी पता चला है। इन्फ्रारेड फोटोग्राफी से और भी ऐसे तथ्य सामने आए हैं कि जहाॅ कुछ मूर्त नहीं था वह चित्रित हो गया। अन्ततः विष्वव्यापी स्तर पर विचारकों ने माना कि प्रत्येक पदार्थ की एक सूक्ष्म अनुकृति भी होती है जो सदैव उसके साथ अथवा उसके अस्तित्व के बाद भी बनी रहती है। इसीलिए स्थूल संरचना के न रहने पर भी उसकी सत्ता (भूत) यथावत बना रहता है। प्रेतात्माओं के उपद्रव के किस्से प्रचलित हैं। अनेक उदाहरण अथवा प्रमाण हैं कि व्यक्ति, भूमि, भवन, गाॅव, शहर आदि इनके षिकार होते रहते हैं। जनकल्याण के लिए समर्पित संत श्री जगदाचार्य स्वामी अखिलेष जी ने आषीष स्वरुप बताया कि परिवार का कोई सदस्य रात्रि को चैका उठ जाने के बाद चांदी की कटोरी में देवस्थान या किसी अन्य पवित्र निष्चित स्थल पर कपूर तथा लौंग जलाएगा तो वह अनेक आकस्मिक, दैहिक, दैविक एवं भौतिक संकटो से मुक्त रहेगा। प्रेत बाधा दूर करने के लिए पुष्य नक्षत्र में चिरचिटे अथवा धतूरे का पौधा जड़ सहित उखाड़कर यदि इस प्रकार धरती में दबा दिया जाए कि उसका जड़ वाला भाग ऊपर रहे और पूरा पौधा धरती में समा जाए तो उस परिवार में सुख-षान्ति बनी रहती है, वहां प्रेतात्माएं कभी भी डेरा नहीं जमातीं। आज संपूर्ण विश्व में इस अलौकिक सत्य को जानने के लिए अनेक शोध कार्य किए गए हैं। वैज्ञानिक जगत में विष्वव्यापी क्रान्ति इस दिषा में तब आई जब क्रिलियाॅन फोटोग्राफी द्वारा आभामण्डल का फोटो खीचा गया। कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के कुछ खोजियों ने एक आष्चर्यजनक प्रयोग इस विषय में किया कि प्राणी की मृत्यु के समय उसके शरीर को त्यागने पर वैद्युतिक परमाणुओं का अर्थात् उस आत्मा का भी फोटों उतारा जा सकता