ऐतिहासिक शैव तीर्थ श्री कोचेश्वर नाथ सांस्कृतिक विरासत के रूप में मंदिर वह अमूल्य धरोहर है जो किसी देश, समुदाय अथवा ऐतिहासिक काल की विशिष्ट पहचान बनाता है और उसे गौरव प्रदान करता है। वैसे तो सम्पूर्ण मगध प्रदेश में एक से बढ़कर एक ख्यातनामा शिव मंदिर की उपस्थिति दर्ज है पर इनमें मगध की सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक परम्परा के लिए कोंच के कोचेश्वर महादेव मंदिर का अपना अलग स्थान है। जानकारी मिलती है कि यह मंदिर प्राच्यकाल से शिव पूजन केंद्र के रूप में जनमानस के बीच कितने ही सम्प्रदायों खासकर शैव व बौद्ध का ‘आदर्श समन्वय स्थल’ रहा है। यह मंदिर बिहार की राजधानी पटना से 125 कि.मी. दूर तथा गया जिले के मुख्यालय से 31 कि.मीउŸार- पश्चिम कोण पर स्थित है। इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत इसकी निर्माण पद्धति है जो ईंटों से बने प्राचीन भारत के पुराने व सही सलामत मंदिरों में एक मगध का प्रतिनिधित्व करता है। इतिहास के अध्ययन और अनुशीलन से जानकारी मिलती है कि उŸार गुप्तकाल के बाद किसी प्रान्तीय राजा ने इस मंदिर की स्थापना की पर इसका वास्तविक उद्धार आदि शंकराचार्य के आगमन के बाद शुरू हुआ। आदि शंकराचार्य ने यहां ढाई-फीट का विशाल शिवलिंग वैदिक मंत्रोधार के साथ स्थापित किया जिसे आज भी देखा जा सकता है। कुछ संकेत ऐसे भी मिले हैं कि पहले यहां बुद्धमूर्ति थी जिसके पूर्ण विखंडन के बाद नये शिवलिंग की स्थापना की गयी। भगवान बुद्ध के मगधदेशीय स्थलों में गण्य कोंच के बारे में यह स्पष्ट होता है कि यहां तथागत का आगमन भी हुआ था। इस कारण संभव है कि पहले यहां बुद्ध पूजन केंन्द्र रहा होगा। स्थान-स्थान पर उपलब्ध बोद्ध फलक, मनौति स्तूप व विविध मुद्राधारी तथागत के विग्रह से इसकी पुष्टि होती है पर डाॅ. पी.सी. राय चैधरी के मतानुसार इस मंदिर का निर्माण राजा भैरवेन्द्र ने 1420 ई. के आस-पास कराया। ज्ञातव्य है कि देव राजवंशी इसी राजा ने उमगा (औरंगाबाद) में सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था। बाद में लावगढ़ विजय की खुशी में टिकारी राजा के तरफ से भी इस मंदिर का साज-श्रंृगार कराया गया। ऐतिहासिक महŸव के इस मंदिर की प्रसिद्धि सम्पूर्ण देश में तब हुई जब बुकानन हैमिल्टन ने अपनी यात्रा के बाद रिपोर्ट का प्रकाशन करवाया। 1811-1812 में बुकानन ने न सिर्फ कांच वरन् आस-पास के पुरास्थलों का भी दौरा किया और कोंच के कोचेश्वर को ऐतिहासिक देवालय के रूप में रेखाकिंत किया। आगे 1846 में मेजर किट्टो, 1866 में पेपे की रिपोर्ट के बाद बेगलर व अलेक्जेण्डर कनिधंम ने यहां की यात्रा कर इसे भरपूर संभावना वाला ऐतिहासिक स्थल बताया। 1903 में बुच महोदय ने यहां पधारकर कितने ही अनसुलझे तथ्यों को स्पष्ट किया। आजादी के बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के द्वारा इसका अधिग्रहण कर इसे हर संभव सुरक्षा व संरक्षा प्रदान की गयी। इस मंदिर के उद्धार में कोंच सांस्कृतिक चेतना समिति का विशेष योगदान रहा। आगे के समय में पुरातत्व विभाग के तरफ से इसका नवश्रृंगार किया गया है और इसके परिसर में ही चारों तरफ इस क्षेत्र से प्राप्त बेशकीमती पूर्व विग्रहों को रख दिया गया है। 52 मंदिर व 52 तालाब की नगरी कोंच बस स्टेंड से करीब एक किलोमीटर दूरी तय कर कोंचदीह में बने इस मंदिर का दर्शन किया जा सकता है जो छः फीट ऊंचे प्लेटफार्म पर बना 99 फीट ऊंचा है और इसी से जुड़ा 32 फीट का विशाल सभाभवन है जिसमें उमाशंकर, गणेश, कार्तिकेय, बुध, कुबेर, विष्णु, भैरव, सप्तमातृका आदि मिलाकर कुल 25 मूर्ति देखीं जा सकती हैं जिमें दशावतार का फलक पुरा जगत् का नायाब नमूना है। इस मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त तीन तरह की ईंट इस बात का प्रमाण हैं कि इसका कम से कम तीन बार नवउद्धार किया गया। बौद्ध और शिव मंदिर शिखर का मिश्रित रूप लिए यहां का मंदिर सप्त रेखीय प्रकार का है जिसे कई व्यक्ति उड़ीसा शैली के मंदिरों की अनुकृति बताते हैं। ऐसे महाबोधि मंदिर, देव सूर्य मंदिर और उमगा मंदिर की भांति इसका बाह्य शिखर भी अलंकरणयुक्त है। कोंच में इस मंदिर के ठीक सामने ही एक विशाल सरोवर है और बस स्टेंड से यहां तक आने के मार्ग में श्रीविष्णु मंदिर, पीछे के स्थान में विशालगढ़, सहस्र शिव मंदिर, देवी स्थान, ब्रह्मस्थान व अकबरी महादेव आदि के दर्शन से स्पष्ट होता है कि किसी जमाने में यह पूरा का पूरा क्षेत्र सूर्य निर्माण का विशिष्ट केंद्र रहा है। श्रीविष्णु मंदिर परिसर में भी दो ऐसे सूत्र शिल्प हैं जो पुराजगत् के बेमिसालकृति कहे जा सकते हैं। गत वर्ष बिहार विरासत संरक्षण समिति का जत्था जब कोचेश्वर आया तब इसकी पूरी महŸाा पुनः एक बार प्रचारित हुई यह इस मंदिर की विशिष्टता का ही सुप्रभाव है कि यहां प्रख्यात यायावर राहुल जी भी आए हैं। सचमुच मगध के प्राच्य गौरोज्जवल शिव मंदिरों में कोंच के बाबा कोचेश्वर नाथ का सुनाम है जो मगध के नौ नाथों में गण्य है और प्राचीन भारतीय देवालयों में कोचेश्वर मंदिर भी पांक्तेय है।