पुरुष वर्ग टैरो विद्या में क्यों नहीं
पुरुष वर्ग टैरो विद्या में क्यों नहीं

पुरुष वर्ग टैरो विद्या में क्यों नहीं  

व्यूस : 5350 | मार्च 2012
पुरुष वर्ग टैरो विद्या में क्यों नहीं? दीपा डुडेजा टैरो विद्या में आदमी क्यों नहीं दिखाई देते। टैरो रीडर आदमी क्यों नहीं है? यह आकस्मिक सा प्रश्न किया था मेरे एक गुरु ने जिसका तात्कालिक उत्तर भी कुछ ऐसा था- हां, सर, पता नहीं ऐसा क्यों है? और फिर शुरू हुआ एक विचार मंथन कि क्या कारण, क्या वजह है कि कोई पुरुष इस रेखा को क्यों नहीं लांघ रहा? ैवए ज्ंततवज त्मंकपदह इमसवदहे जव ूवउमदघ् इसमें खुश होने की कोई बात नहीं - यह तो एक विद्या है जिसे कोई भी अपना सकता है। टैरो विद्या टैरो कार्डस के द्वारा ज्योतिष, अंक ज्योतिष, आकृतियों और दार्शनिक विद्याओं को जोड़कर भूत, वर्तमान व भविष्य को जानने की प्रक्रिया है। पुरुष वर्ग अब तक इस क्षेत्र में शायद इसलिए जगह नहीं बना पाया क्योंकि- पुरुषों में भावात्मक पहलू: महिलाओं की अपेक्षा कम सशक्त होता है जबकि टैरो में भावनाओं का बहुत बड़ा स्थान है- ऐसी भावनाएं जो सच्ची हों, एक आदमी में जीने की आरजू जगा सकंे- पुरुष इसे समझने में मंगल ग्रह के प्राधान्य की वजह से पीछे हैं। पुरुषों में वार्तालाप का कलात्मक पहलू: महिलाओं की अपेक्षा कम होता है- जबकि टैरो तो वार्तालाप चाहता है- टैरो के कार्डस के साथ -जिन्हें मनुष्य को समझना है- ऐसे पत्ते जिनमें जान नहीं हैं, उनसे वार्तालाप पुरुष कैसे करें? यह अपने आप में एक यक्ष प्रश्न है। वस्तुतः पुरुष वर्ग में अंतर्दृष्टि पदजनपजपवद या ैपगजी ैमदेम महिलाओं की अपेक्षा कम होती है- क्योंकि इस आभास तत्व की विद्यमानता व्यक्ति में भावनाओं, वार्तालाप जैसी चीजों के द्वारा ही सक्रिय होती है- जो पुरुषों में कम पाई जाती है। यानी पुरुषों में मंगल तथा स्त्रियों में शुक्र तत्व प्रधान होता है। ज्योतिष का यह कथन श्डंसम तिवउ श्उंतेश् ंदक मिउंसमे तिवउ श्अमदनेश् टैरों में प्रबलता से चरितार्थ होता है क्योंकि टैरो में तर्क-वितर्क नहीं है- टैरो एक भाव है- शरीर की शक्ति व मन-बुद्धि का तर्क जाल नहीं बल्कि आध्यात्म की शक्ति पर आधारित है टैरो। टैरो में भावों को सुंदर तरीकों से सुंदर वातावरण में व सुंदर विचारों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है और महिलाओं में ये गुण नैसर्गिक रूप में ज्यादा देखने को मिलते हैं। सामान्यतः पुरुषों में ‘धैर्य’ का भाव महिलाओं की अपेक्षा कम होता है। जबकि टैरो रीडर को एक शीशे की भांति काम करना होता है जिसमें व्यक्ति, उसकी सोच, उसकी समझ व उसकी समस्याओं को धैर्य से समझना और हलों को धैर्यपूर्ण तरीके से और कलात्मकता के साथ समझाना पड़ता है। भारत में पुरुष परिवार के सदस्यों के जीविकोपार्जक माने जाते हैं, जो सदैव आगे बढ़ने और अधिकाधिक लोगों को बसपमदज बनाने की होड़ में धैर्य खो बैठते हैं। ये सारी बातें, केवल बातें या वजह बन कर रह सकती है यदि पुरुष यह समझें कि उन्हें केवल अपने कर्मों का रूप बदलना है- जो टैरो में वह आसानी से सीख जाएंगे कि उन्हें अपनी सोच में आध्यात्मिकता लानी है- अपने विचारों को बदलाव की नयी राह पर जाने के लिए। उन्हें कभी भी यह नहीं भूलना चाहिए कि श्त्पकमतूंपजमश् आदि टैरो डेक की खोज करने वाले पुरूष ही हैं और अब ‘ओशो’ द्वारा ओशो जेन कार्डस भी पढ़े जाते हैं। यदि किसी पुरुष को यह विद्या किसी महिला से सीखनी भी पडे़ तो यह याद करके ही सीख लेनी चाहिए कि हर पुरुष की सफलता के पीछे महिला का ही हाथ होता है। जिस तरह महिलाएं टैरो रीडर बनकर सुरक्षित महसूस करती है, ठीक उसी तरह पुरुष भी इन कार्डस को शक्तिशाली मानकर और इन्हें समर्पण के भाव से इज्जत देकर अधिक सफल, सक्षम व सटीक ‘टैरो रीडर’ बन सकते हैं।



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