कौन बनते हैं आध्यात्मिक व्यक्ति? पं. योगेंद्र नाथ शुक्ल प्रत्येक मनुष्य पूर्व जन्म में किए गए कर्म अर्थात अपने प्रारब्ध को लेकर इस भूमंडल पर जन्म लेता है। जन्म के पश्चात् कुछ यातनाओं को भुगतकर सभी इस संसार से चले जाते हैं। कुछ माता-पिता और बंधुओं का सुख प्राप्त करते हैं और कुछ इन सुखों से भी वंचित रह जाते हैं। कुछ अपनी प्रारंभिक विद्या को सफलतापूर्वक प्राप्त कर जीवन को सुदृढ़ बनाकर अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हैं तथा जो कुछ विद्या रूपी गुण को प्राप्त नहीं करते वे मूर्खता रूपी भंवर में पड़कर सहज ही अपनी जीवन की नौका को डुबा लेते हैं। कुछ लोगों को पूर्व जन्म के सत्कर्मों के कारण संतान, सांसारिक सुख, धन, समृद्धि आदि की प्राप्ति होती है तो कुछ लोग पूर्व जन्म में अपने बुरे कर्मों के कारण इन सुखों से वंचित रह जाते हैं। वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनका अध्यात्म से लगाव होता है और वे ईश्वर-प्रेम रूपी पतवार को प्राप्त कर अपनी जीवन नौका को संसार सागर के पार उतार लेते हैं और जीवन मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। कुंडली के भाव 3, 6, 10 तथा 11 को उपचय स्थान कहते हैं। उपचय का अर्थ है खजान, संग्रह एवं संबंध अर्थात यही वह कारण है जो धरा पर मनुष्य को अधिक समय तक जीवित रहने व बार-बार जन्म लेने के लिए प्रेरित करता है। तृतीय भाव उपचय की प्रथम सीढ़ी है। जो प्रेम, साहस तथा स्नेह का विकास करते हुए मानसिक और शारीरिक विकास करने में मनुष्य की सहायता करता है। षष्ठ भाव उपचय की दूसरी सीढ़ी है जहां से वह निरोग रहकर, शत्रुओं को पराजित करते हुए अपने व्यापार का विस्तार करता है। दशम तथा एकादश भाव उपचय की क्रमशः तीसरी और चैथी सीढ़ी हैं जहां से वह सम्मानपूर्वक कार्य करता है और यश के साथ-साथ अपने आय के स्रोत को बढ़ाता है। अतः यदि भाव 3, 6 तथा 11 बली होते हंै तो व्यक्ति में मन में साहस, शत्रुता एवं परोपकार की भावना जन्म लेती है जो आध्यात्मिकता, ईश्वर-प्रेम एवं योग के लिए प्रतिकूल है। अतः इन भावों का निर्बल होना आध्यात्मिकता के लिए आवश्यक है। आध्यात्मिकता का गुणात्मक पक्ष तो पंचम, नवम् एवं दशम भाव में होता है। पंचम भाव ईश्वर-प्रेम, नवम् धार्मिक अनुष्ठान एवं दशम् कार्य का परिचायक है। ईश्वर-प्रेम के अतिरक्त अनुष्ठान एवं कर्म के संयोग के बगैर आध्यात्मिक प्रवृत्ति पनप तो सकती है किंतु फल-फूल नहीं सकती। पंचम एवं नवम में जब शुभ युति होती है तभी अनुष्ठानादि की क्रिया में भक्ति होती है। पंचम स्थान से ही भक्ति की प्रगाढ़ता का विचार होता है। अतः जब नवमेश और पंचमेश में परस्पर संबंध होता है तब व्यक्ति में भक्ति एवं अनुष्ठान की भावना जाग्रत होती है और वह उच्च श्रेणी का साधक बनता है। दशम स्थान कर्म स्थान है अतः यदि पंचम व नवम् के साथ दशम का भी संबंध हो जाए तो फल में उत्कृष्टता आती है। शनि अवश्य ही कठोर पाप ग्रह है परंतु वह इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए मनुष्य को तपाकर उसके विचारों को शुद्ध कर देता है। अतः जब शनि का पंचम्, नवम एवं दशम से संबंध होता है तो वह व्यक्ति को तपस्वी बना देता है। कभी-कभी दीक्षा योग अर्थात लग्न (शरीर) एवं चंद्रमा (मन) का जब शनि से संबंध होता है तो शनि विचारों को शुद्ध करते हुए मन और शरीर पर पूर्ण नियंत्रण रखता है। इससे भी व्यक्ति की अध्यात्म में रुचि बढ़ती है। यदि जन्म के समय चार, पांच, छः या सातों ग्रह एकत्र होकर किसी स्थान पर बैठे हों तो व्यक्ति प्रायः संन्यासी होता है। परंतु यह आवश्यक है कि इन में से कोई एक ग्रह बलवान हो और कोई एक दशमेश। ग्रहों की उक्त स्थिति में यदि सूर्य अत्यधिक बलवान हो तो संन्यास की प्रकृति एक तपस्वी की तरह होती है। चंद्र के बलवान होने पर व्यक्ति तांत्रिक होता है। मंगल के बली होने पर वह गेरु रंग का वस्त्र धारण करने वाला संन्यासी होता है। बृहस्पति के बलवान होने पर दंडी सन्यासी होता है। शुक्र के बली होने पर वह चक्रधारी साधु तथा शनि के बलवान होने पर नागा सन्यासी होता है। उक्त तथ्यों को बौद्ध धर्म के संस्थापक, परम ज्ञानी एवं तपस्वी गौतम बुद्ध जी की यहां प्रस्तुत कुंडली में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। कुंडली में सर्वप्रथम उपचय स्थान पर विचार करंे तो पाएंगे कि तृतीयेश बुध पाप कर्तरी योग से ग्रस्त है। षष्ठेश बृहस्पति उच्चस्थ सूर्य तथा अन्य क्रूर ग्रहों से संबंध के कारण और एकादशेश शुक्र अपनी राशि से व्यय भाव में क्रूर युति के कारण बलहीन है। तृतीय, षष्ठ एवं एकादश भाव निर्बल हंै जो संन्यास, आध्यात्मिक प्रकृति एवं ईश्वर-प्रेम के लिए आवश्यक है। कुंडली में पांच ग्रह सूर्य, बृहस्पति, शुक्र, शनि एवं दशमेश मंगल की युति, दशम भाव में है जो सन्यास का प्रमुख कारण है। ग्रहों की इस युति में नवमेश और पंचमेश की उपस्थिति ने ईश्वर-प्रेम और आराधना में विशेष रुचि उत्पन्न कर जीवन से विरक्त कर दिया। सामान्यतः शनि एक क्रूर ग्रह है और प्रस्तुत कुंडली में दाम्पत्य सुख को क्षीण करने वाला भी है किंतु शनि का यह विशेष गुण है कि नवमेश एवं पंचमेश से विशेष संबंध होने पर विचारों में शुद्धता लाता है। अतः पंचमेश, नवमेश और दशमेश के साथ शनि की उपस्थिति ने विचारों में शुद्धता के साथ-साथ दृढ़ता भी प्रदान की। इन पांच ग्रहों में सर्वाधिक शक्तिशाली ग्रह सूर्य ने संन्यास की प्रकृति को एक तपस्वी के समान बनाया। चंद्र मन का कारक है। मन और मन के भटकने से संन्यास संभव नहीं है अतः यदि चंद्र को केवल शनि ही देखता हो, तो व्यक्ति संन्यास के कुछ ही दिनों बाद अपने सामाजिक जीवन में वापस आ जाता है। किंतु प्रस्तुत कुंडली में चंद्र को शनि के अतिरिक्त अन्य चार ग्रह भी पूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं। फलस्वरूप भगवान बुद्ध ने एक बार दृढ़ निश्चय के साथ सन्यास ग्रहण कर लेने के बाद कभी भी अपने पूर्व जीवन में वापसी का विचार नहीं बनाया और अपनी अथक तपस्या से ज्ञान अर्जित कर संपूर्ण विश्व को एक ऐसा मार्ग बताया जिसके अनुसरण से आज भी लोग लाभान्वित हो रहे हैं।