विद्या प्राप्ति हेतु पूजा सी. ए. सिंह ‘सीपी’ विद्या की प्रचुरता के लिए आवश्यक है कि गति निरंतर बनी रहे। सरस्वती से विद्यारूपी धन मांगने का अभिप्राय यही है कि हमारी गति में कोई बाधा उपस्थित न हो। गति बनी रही, तो अधिभौतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की संपत्तियों का बाहुल्य भी बना रहेगा। गति के अभाव में अंधकार ही अंधकार दिखाई देगा। ‘गायत्री हृदय’ में सरस्वती का माहात्म्य वर्णन करते हुए कहा गया है कि वेद (ज्ञान) की उत्पत्ति सरस्वती से हुई है। आत्मारूपी ब्रह्म से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई, वायु से अग्नि और अग्नि से ओंकार (प्रणव) की उत्पत्ति हुई। प्रणव से व्याहृतियां होती हैं। व्याहृतियों से गायत्री, गायत्री से सावित्री, सावित्री से सरस्वती और सरस्वती से वेदों (ज्ञान) की उत्पत्ति हुई है। वेदों से समस्त लोकों का अविर्भाव होता है। नदियों के जल का पवित्र रहने का कारण गति है। गति पवित्र और स्वच्छ रखती है। गति रुकने पर वह सड़ने लगता है। अतः जो प्राणियों के हृदय को, सरस जल की तरह, पवित्र और स्वच्छ बनाती है, वह सरस्वती है। सरस्वती पवित्रता, गति और स्वच्छता की प्रतीक है। सरस्वती का श्वेत वर्ण मोक्ष और सात्विकता का प्रतीक है। ज्ञान गति और प्रकाश का प्रतिनिधित्व करता है। श्वेत वर्ण पर स्वाभाविक रूप से सभी रंग सुविधापूर्वक चढ़ाये जा सकते हैं। उतरने पर वही शेष रह जाता है, जिसके कारण वसंत पंचमी नाम पड़ा है। श्वेत रंग को ईश्वर की संज्ञा (नाम) कहा गया है। यही प्राणी का अंतिम लक्ष्य है। श्वेत वर्ण अद्वैत के लिए प्रेरित करता है। श्वेत रंग की उत्पत्ति तब होती है, जब सारे रंग क्रियाशील रहते हैं। जब वे मूर्छित रूप में एक स्थान पर पड़े रहते हैं, तो अ प न े - अ प न े स्वाभाविक रूप में ही दिखाई देते हैं। वह एकता से ही श्वेत बनते हैं। संसार का भेद (रंग) अस्वाभाविक है। अभेद स्वाभाविक है। द्वैत में अज्ञानता है, तो अद्वैत में ज्ञान, गति और प्रकाश है। यही सरस्वती के श्वेत वर्ण की प्रेरणा का अभिप्राय है। अलंकारिक रहस्य के कारण भगवती सरस्वती के एक हाथ में वीणा और दूसरे में पुस्तक होती है। वीणा धारण करने का अभिप्राय है कि केवल पुस्तकांे का थोथा ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, वरन् भावना के क्षेत्र में ऐसी झंकार होनी चाहिए, जो मधुर ध्वनि से उसे मुग्ध कर दे। पुस्तक का अर्थ है महापुरुषों ने अपने दीर्घकालीन परख के अनुभवों का संकलन और निचोड़ पुस्तकों के रूप में दे रखा है। जीवन की सफलता के जो सिद्धांत उन्होंने निर्धारित किये हैं, उनका गंभीरतापूर्वक अध्ययन, मनन और चिंतन किया जाए। जो कुछ अध्ययन करें, वह केवल जानकारी तक ही सीमित न रहे, वरन् उसे क्रिया का रूप देने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। पुस्तकों से जो ज्ञान प्राप्त करें, उसे अपनी हृदयरूपी वीणा के तारों से झंकृत करते हुए, श्रद्धा, विश्वास, भक्ति और आचरण के साथ जोड़ दें। सरस्वती का वाहन मोर है, जो विद्या, कला, संस्कृति का प्रतीक है। वह सूक्ष्म शक्ति से संपन्न है, जिसका रहस्य इस प्रकार है: मोर में वर्षा की भविष्यवाणी करने की सूक्ष्म शक्ति विद्यमान है। वह अपने सूक्ष्म नेत्रों से वर्षा के आगमन का अनुभव करता है और ‘पोहौं-पोहौं’ कर के उसकी चेतावनी देता है। वह (मोर) मेघों को देख कर इतना प्रसन्न होता है, जैसे परमात्मा मेघों के रूप में साकार हो गया है। जिस तरह एक साधक को अपनी कठोर साधना के फलस्वरूप अपने इष्टदेव के दर्शन कर अपार आनंद की प्राप्ति होती है, उसी तरह मोर भी मेघों के साथ आत्मसात होना चाहता है और वह नृत्य आरंभ कर देता है। मोर को ज्ञान, विवेक और परोपकार का प्रतिनिधि माना गया है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने अहंकार और दूसरे से बड़ा समझने वाली भावना उत्पन्न करने वाली रत्न मणियों की सहायता से शोभा वृद्धि नहीं की। वह ज्ञान के प्रतीक मोर पंख से ही संतुष्ट रहे। इसका रहस्य यह है कि वह राजा होते हुए भी भौतिकताओं की सीमा से दूर थे। सरस्वती का वाहन कहीं-कहीं हंस माना गया है, जिसका अर्थ है अंधकार से प्रकाश में आना, अर्थात हंस दूध को पी जाता है और पानी को छोड़ देता है। इसका रहस्य है सद्गुणों को धारण करना और अवगुणों को तिरस्कृत कर देना। बुद्धिवर्धन हेतु, प्रातःकाल शौचादि से निवृत्त हो कर, स्नान कर के, स्वच्छ वस्त्र ग्रहण कर के, किसी शांत और पवित्र स्थान में साधना पर बैठें। अपने मस्तक को जल से भिगो लें और भीगे हुए मस्तक पर सूर्य की प्रथम किरणें पड़ने दें। मुख सूर्य की ओर हो। साधना आरंभ करने से पूर्व 3 बार दीर्घ स्वर में प्रणव (¬) का उच्चारण करें। तत्पश्चात गायत्री मंत्र ¬ भू भूर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् का जाप करें। जो मंत्र गुरुप्रदत्त हो, तो उसका ही जप करना चाहिए। जप इस प्रकार से हो कि होठ न हिलें। मंत्र का उच्चारण अंतरंग में होता रहे। नित्य प्रतिदिन कम से कम 1 माला (108) का जप होना ही चाहिए। जप के बाद, कुछ समय के लिए हाथों की हथेलियों को सूर्य की ओर कर, गायत्री मंत्र का उच्चारण करते रहें। बारह बार मंत्र जप कर लेने पर दोनों हाथों की हथेलियों को आपस में रगड़ें और कुछ गर्मी आ जाने पर नेत्र, मस्तक, मुख और गले पर फेरें। इस साधना से बुद्धि निश्चित ही प्रखर और उन्नत होती है। इसके बाद सरस्वती सूक्त का पाठ करने के साथ-साथ हवन भी करना चाहिए। हवन करने से मस्तिष्क स्वस्थ, प्रखर और शक्तिसंपन्न बनता है और बुद्धि की वृद्धि होती है।