शनि भगवान का मंदिर तिरुनल्लूर कराइकल, पांडिचेरी आभा बंसल भारत पावनस्थलों और मंदिरों का देष है। इन पावनस्थलों और मंदिरों की अपनी-अपनी महिमा है। ये भारत की संस्कृति और ईष्वर में निष्ठा और आस्था के प्रतीक हैं। इन्हीं मंदिरों में एक है श्री श्री दर्भारण्येश्वर स्वामी देवस्थानम। तमिलनाडु के समीप पांडिचेरी के कराइकाल से पांच किलोमीटर की दूरी पर तिरुनल्लूर में स्थित यह शनि का प्राचीनतम् मंदिर है। यह एक मात्र ऐसा मंदिर है, जहां शनि की भगवान के रूप में पूजा की जाती है। यह मंदिर 2000 वर्ष पुराना है। मंदिर में स्थापित शनि का श्रीविग्रह अत्यंत सुंदर है। शनि का यह दुर्लभतम विग्रह उनका आशीर्वाद रूप है। इस मंदिर को शनीश्वर भगवान मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। तिरुनल्लूर भगवान शनि का पवित्र स्थल है। यह केंद्र शासित प्रदेश पांडिचेरी के एक मध्यम आकार के उर्वर और साफसुथरे शहर में स्थित है। प्राचीन काल में यह मंदिर जलमार्ग से घिरा था। किंतु बढ़ते समय के साथ-साथ वे जलाशय सूख गए और उन्हें मिट्टी से भर दिया गया। आज मंदिर के चारों ओर सड़कें हैं। भक्तगण इस मंदिर में माता अंबल और भगवान शनि के दर्शन करने आते हैं। देश भर में भगवान तियागेसर (त्यागेश्वर) के सात मंदिर हैं। तिरुनल्लूर उनमें से एक है। तीर्थों में इसका अपना अलग स्थान है। मंदिर के परिसर में दो सुंदर, पवित्र और विशाल रथ हैं। ये रथ अपनी भव्य कलात्मक नक्काशी के कारण प्रसिद्ध हैं। विशेष उत्सवों के अवसरों पर इन रथों में भगवान और भगवती की शोभा यात्रा निकाली जाती है। मंदिर के प्रांगण में कई आकर्षक और नयनाभिराम गोपुर तथा मंडप हैं। इनके अतिरिक्त ब्रह्म, वाणी, अन्ना, अगतियार (अगत्यार), नल आदि पवित्र सरोवर हैं। इनमें नल सरोवर सर्वाधिक प्रमुख है। मान्यता है कि इस सरोवर में स्नान करने से सभी पापों और कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। इस सरोवर के समीप ही नलकूप है। कथा है कि भगवान शिव ने अपने भक्त राजा नल के लिए अपने त्रिशूल का उपयोग कर गंगा को यहां पहुंचाया। भक्तगण इस कूप की पूजा करते हैं, किंतु इस पर स्नान करना वर्जित है। श्रद्धालुजन मंदिर में सीढ़ियों पर तिल के तेल के दीप जलाते हैं। ये सीढ़ियां संगमरमर की बनी हैं और धुलाई-सफाई के कारण हमेशा साफ रहती हैं। मंदिर में रोज छह बार पूजा होती है। शनिवार को विशेष अर्चना का आयोजन किया जाता है। शनि भगवान के दर्शन को आने वाले भक्तगण तिल के तेल के दीप जलाते हैं और प्रार्थना करते हैं। शनि (शनि भगवान) के राशि- परिवर्तन के अवसर पर विशेष पूजा विशिष्ट ढंग से की जाती है। मान्यता है कि इस अवसर पर शनि की पूजा करने से उनके अशुभ प्रभावों में कमी और शुभ प्रभावों में वृद्धि होती है। यही कारण है कि शनि के राशि-परिवर्तन के समय लाखों की संख्या में भक्तगण यहां पूजा अर्चना करने यहां आते हैं। यहां स्थित मुख्य मंदिर भगवान शिव का है जिसमें स्थित शिवलिंग पन्ना रत्न का है। मुख्य मंदिर शिव का है, लेकिन शनि का स्थल अधिक लोकप्रिय हो गया है। इसका मुख्य कारण यह मान्यता है कि शनि की उपासना करने से शनि भगवान प्रसन्न होकर जीवन से सभी कठिनाइयों व तकलीफों को दूर कर देते हैं। यह स्थान दक्षिण भारत में प्रसिद्ध है किंतु दूरस्थ होने के कारण उत्तर भारत के बहुत कम लोग इसे जानते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि समाचार माध्यमों ने अब तक इसका कोई विशेष प्रचार प्रसार नहीं किया है। इस मंदिर की यात्रा उतनी कठिन नहीं है जितनी प्रतीत होती है। अतः शनि भगवान की कृपा व आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हर व्यक्ति यत्न और प्रयत्नपूर्वक यहां जाए तो अवश्य ही उनका आशीर्वाद प्राप्त होगा। शनि नवग्रहों में से एक है और ऐसा माना जाता है कि शनि जीवन में समस्याएं और बाधाएं उत्पन्न करता है। शनि के एक राशि में ढाई वर्ष के गोचर की अवधि में यहां पर शनिपेयार्ची उत्सव मनाया जाता है, जिसमें समस्त भारतवर्ष से लाखों की संख्या में श्रद्धालुजन भाग लेते हैं। तिरुनल्लूर का वास्तविक नाम दर्भारण्य है जिसका शाब्दिक अर्थ है कुश का जंगल। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्म तथा अन्य ऋषियों ने यहां भगवान शिव की आराधना की थी और भगवान ने उन्हें दर्शन देकर तथा वेद पढ़ाकर एक लिंग का रूप ले लिया। ब्रह्मा ने देवशिल्पी से आग्रह कर इस स्थान पर एक मंदिर स्थापित कराया तथा इसका नाम आधिपुरी भी रखा। यह प्रसिद्ध सप्तविडांगर मंदिरों में से एक है। कथा है कि संत तिरुज्ञानसाम्बादार ने मदुरई में शास्त्रार्थ में जैन आचार्यों को परास्त किया। उन्होंने तिरुनल्लूर की आराधना में लिखी कविता के छंदों को अग्नि में डाल दिया लेकिन अग्नि ने उन छंदों को जलाया नहीं। तिरुनल्लूर एक मात्र स्थल है जहां पर शनि की विशेष महिमा है। पुराणों के अनुसार मान्यता है कि राजा नल को यहां शनि के कोप से मुक्ति मिली थी तथा शनि के प्रसन्न होने पर राजा नल ने उनसे यह वरदान प्राप्त किया था कि जो व्यक्ति यहां आकर राजा नल की कहानी सुनेगा और शनि की पूजा करेगा उसे शनि कष्ट नहीं पहुंचाएंगे। शनिभगवान की कथा: ऋषि माचीचि के पुत्र कश्यप और कश्यप के पुत्र सूर्य भगवान हैं। विश्वकर्मा की पुत्री समिग्ना का विवाह सूर्य भगवान से हुआ। वह सूर्य की किरणों की उष्णता को सह नहीं पाईं। इसलिए उन्होंने (समिग्ना) अपनी परछाईं से छायादेवी नाम की एक एक दूसरी स्त्री को उत्पन्न किया। अब छायादेवी सूर्य देव के साथ रहने लगीं। सूर्य भगवान और छाया देवी के दो पुत्र व एक पुत्री हुई। प्रथम पुत्र का नाम सावर्णि शनि मंदिर में होमम (हवन) करने के लिए अग्रिम बुकिंग हेतु देवस्थानम के कार्यकारी पदाधिकारी से फोन नं. (04368) 236530 और ई-मेल:
ेकेणास/दपबण्पद पर संपर्क किया जा सकता है। मनु तथा द्वितीय का शनि भगवान है। उनकी तीसरी संतान का नाम पात्रा है। शनि भगवान के कोप से आमातैर पर सभी लोग घबराते हैं। इन्हें सर्वाधिक पापी ग्रह की संज्ञा दी जाती है। लेकिन वास्तव में श्री श्री शनि भगवान उतने क्रूर नहीं हैं। वस्तुतः शनि एक उदार ग्रह हैं और उन लोगों पर अपनी विशेष कृपा रखते हैं जो उनकी आराधना करते हैं। शनि भगवान का रंग काला है। वह काले वस्त्र धारण करते हैं। वह चाकू और धनुष धारण करते हैं।उनका वाहन कौआ है। कैसे जाएं कहां ठहरें: यह मंदिर मद्रास से लगभग 300 किमी. की दूरी पर है जहां बस या टैक्सी के द्वारा जाया जा सकता है। मंदिर के आसपास ठहरने के लिए होटल हैं। इनके अतिरिक्त विश्रामगृह भी हैं जहां प्रति व्यक्ति 10 रुपये के शुल्क पर ठहरने की व्यवस्था है।