मृत्यु उपरांत सांस्कारिक क्रियाएं प्रश्नः घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत क्या-क्या सांस्कारिक क्रियाएं की जानी चाहिए तथा किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए? की जाने वाली क्रियाओं के पीछे छिपे तथ्य, कारण व प्रभाव क्या है? तेरहवीं कितने दिन बाद होनी चाहिए? मृत्यु पश्चात् संस्कार जब भी घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तब हिंदू मान्यता के अनुसार मुख्यतः चार प्रकार के संस्कार कर्म कराए जाते हैं - मृत्यु के तुरत बाद, चिता जलाते समय, तेरहवीं के समय व बरसी (मृत्यु के एक वर्ष बाद) के समय। हिंदू धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात व्यक्ति स्वर्ग चला जाता है अथवा अपना शरीर त्याग कर दूसरे शरीर (योनि) में प्रवेश कर जाता है। मृत्यु समय संस्कार मृत व्यक्ति के शरीर को जमीन पर लिटा दिया जाता है व सिर की तरफ एक दीपक जला दिया जाता है तथा नौ घड़ों में पानी व एक घड़े में रेत रखी जाती है। संस्कार हेतु बडे़ या छोटे पुत्र को (पिता हेतु बड़ा व माता हेतु छोटा) क्रिया पर बिठाया जाता है। मृतक का कोई पुत्र न हो, तो पुत्री, दामाद या फिर पत्नी भी क्रिया में बैठ सकती है। मृतक को उसके रिश्तेदार व सगे संबंधी सिर पर शीशम का तेल लगाकर नौ घड़ांे के पानी से नहलाते हैं। फिर सफेद वस्त्र पहनाकर चंदन तिलक लगाते हैं। पत्नी थोडे़ से पके चावल को मृतक के मुंह में लगाती है। फिर मंगल सूत्र उसकी छाती पर डाल देती है। तत्पश्चात् उसे कफन पहनाकर फूल इत्यादि से अर्थी बनाई जाती है। तीन कटोरियों में जौ का आटा रखा जाता है। इन कटोरियों में से एक मृतक के सिर के पास, दूसरा रास्ते में उसकी छाती पर तथा तीसरा श्मशान में पेट पर रखा जाता है। साथ में जलता हुआ दीया भी रखा जाता है। मुख्य व्यक्ति (उसे कर्ता भी कहा जाता है) अर्थी को श्मशान में रखने के बाद उसके तीन चक्कर लगाता है व पानी का घड़ा (जो कंधे पर रखा होता है) तोड़ दिया जाता है। घड़े का तोड़ना शरीर से प्राण के जाने का सूचक है। कफन हटाकर केवल पुरुष मृतक शरीर को चिता में रखते हैं। पुत्र (कर्ता) चिता के तीन चक्कर लगाकर चिता की लकड़ी पर घी डालते हुए लंबे डंडे से अग्नि देता है। इस दौरान ब्राह्मण मंत्रों का उच्चारण करता रहता है। आधी चिता जलने के पश्चात् पुत्र मृतक के सिर को तीन प्रहार कर फोड़ता है। इस क्रिया को कपाल क्रिया कहा जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि पिता ने पुत्र को जन्म देकर जो ब्रह्मचर्य भंग किया था उसके ऋण से पुत्र ने उन्हें मुक्त कर दिया। घर लौटकर सभी स्नान कर शुद्ध होते हैं। जहां मृतक को अंत समय रखा गया था वहां दीपक जलाकर उसकी तस्वीर रखकर शोक मनाया जाता है। दूसरे व तीसरे दिन श्मशान से अस्थियां लाकर पवित्र नदियों में विसर्जित की जाती हैं। दसवें दिन घर की शुद्धि की जाती है। परिवार के पुरुष सदस्य सिर मुंडवा लेते हैं। फिर दीपक बुझाकर हवन आदि कर गरुड़ पुराण का पाठ कराया जाता है। इन दसों दिन घर वाले किसी भी सांसारिक कार्यक्रम में, मंदिर में व खुशी के माहौल में हिस्सा नहीं लेते व भोजन भी सात्विक ग्रहण करते हैं। मान्यता है कि मृतक की आत्मा बारह दिनों का सफर तय कर विभिन्न योनियों को पार करती हुई अपने गंतव्य (प्रभुधाम) तक पहुंचती है। इसीलिए 13वीं करने का विधान बना है। परंतु कहीं-कहीं समयाभाव व अन्य कारणों से 13वीं तीसरे या 12वें दिन भी की जाती है जिसमें मृतक के पसंदीदा खाद्य पदार्थ बनाकर ब्रह्म भोज आयोजित कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर मृतक की आत्मा की शांति की प्रार्थना की जाती है व गरीबों को मृतक के वस्त्र आदि दान किए जाते हैं। हर माह पिंड दान करते हुए मृतक को चावल पानी का अर्पण किया जाता है। साल भर बाद बरसी मनाई जाती है, जिसमें ब्रह्म भोज कराया जाता है व मृतक का श्राद्ध किया जाता है ताकि मृतक पितृ बनकर सदैव उस परिवार की सहायता करते रहें। इन सभी क्रियाओं को करवाने व करने का मुख्य उद्देश्य मृतक की आत्मा को शांति पहुंचाना व उसे अपने लिए किए गए गलत कर्मों हेतु माफ करना है क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा कर्म करता है उसका प्रभाव परिवार के सभी व्यक्तियों पर होता है। इनसे हर परिवार को जीवन चक्र का ज्ञान व कर्मों के फलों का आभास कराया जाता है। वर्षभर तक किसी भी मांगलिक का आयोजन, त्योहार आदि नहीं करने चाहिए ताकि दिवंगत आत्मा को कोई कष्ट नहीं पहुंचे। दाहकर्ता के लिए पालनीय नियम 1. प्रथम दिन खरीदकर अथवा किसी निकट संबंधी से भोज्य सामग्री प्राप्त करके कुटुंब सहित भोजन करना चाहिए। ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिए। भूमि पर शयन करना चाहिए। किसी का स्पर्श नहीं करना चाहिए। सूर्यास्त से पूर्व एक समय भोजन बनाकर करना चाहिए। भोजन नमक रहित करना चाहिए। भोजन मिट्टी के पात्र अथवा पत्तल में करना चाहिए। पहले प्रेत के निमित्त भोजन घर से बाहर रखकर तब स्वयं भोजन करना चाहिए। किसी को न तो प्रणाम करें, न ही आशीर्वाद दें। देवताओं की पूजा न करें। मृत्यु के उपरांत होने वाली सर्वप्रथम क्रियाएं सर्वप्रथम यथासंभव मृतात्मा को गोमूत्र, गोबर तथा तीर्थ के जल से, कुश व गंगाजल से स्नान करा दें अथवा गीले वस्त्र से बदन पोंछकर शुद्ध कर दें। समयाभाव हो तो कुश के जल से धार दें। नई धोती या धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहना दें। तुलसी की जड़ की मिट्टी और इसके काष्ठ का चंदन घिसकर संपूर्ण शरीर में लगा दें। गोबर से लिपी भूमि पर जौ और काले तिल बिखेरकर कुशों को दक्षिणाग्र बिछाकर मरणासन्न को उŸार या पूर्व की ओर लिटा दें। घी का दीपक प्रज्वलित कर दें। ‘‘सर्पिदिपं प्रज्वालयेत’’ (गरुड़ पु. 32-88) भगवान के नाम का निरंतर उद्घोष करें। संभव हो तो जीवात्मा की अंत्येष्टि गंगा तट पर ही करें। मरणासन्न व्यक्ति को आकाशतल में, ऊपर के तल पर अथवा खाट आदि पर नहीं सुलाना चाहिए। अंतिम समय में पोलरहित नीचे की भूमि पर ही सुलाना चाहिए। मृतात्मा के हितैषियों को भूलकर भी रोना नहीं चाहिए क्योंकि इस अवसर पर रोना प्राणी को घोर यंत्रणा पहंुचाता है। रोने से कफ और आंसू निकलते हैं इन्हें उस मृतप्राणी को विवश होकर पीना पड़ता है, क्योंकि मरने के बाद उसकी स्वतंत्रता छिन जाती है। श्लेष्माश्रु बाधर्वेर्मुक्तं प्रेतो भुड्.क्ते यतोवशः। अतो न रोदितत्यं हि क्रिया कार्याः स्वशक्तितः।। (याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रा.1/11, ग. पु., प्रेतखण्ड 14/88) मृतात्मा के मुख में गंगाजल व तुलसीदल देना चाहिए। मुख में शालिग्राम का जल भी डालना चाहिए। मृतात्मा के कान, नाक आदि 7 छिद्रों में सोने के टुकड़े रखने चाहिए। इससे मृतात्मा को अन्य भटकती प्रेतात्माएं यातना नहीं देतीं। सोना न हो तो घृत की दो-दो बूंदें डालें। अंतिम समय में दस महादान, अष्ट महादान तथा पंचधेनु दान करना चाहिए। ये सब उपलब्ध न हों तो अपनी के शक्ति अनुसार निष्क्रिय द्रव्य का उन वस्तुओं के निमिŸा संकल्प कर ब्राह्मण को दे दें। पंचधेनु मृतात्मा को अनेकानेक यातनाओं से भयमुक्त करती हैं। पंचधेनु निम्न हैं- ऋणधेनु: मृतात्मा ने किसी का उधार लिया हो और चुकाया न हो, उससे मुक्ति हेतु। पापापनोऽधेनु: सभी पापों के प्रायश्चितार्थ । उत्क्रांति धेनु: चार महापापों के निवारणार्थ। वैतरणी धेनु: वैतरणी नदी को पार करने हेतु। मोक्ष धेनु: सभी दोषों के निवारणार्थ व मोक्षार्थ। श्मशान ले जाते समय शव को शूद्र, सूतिका, रजस्वला के स्पर्श से बचाना चाहिए। (धर्म सिंधु- उŸारार्द्ध) यदि भूल से स्पर्श हो जाए तो कुश और जल से शुद्धि करनी चाहिए। श्राद्ध में दर्भ (कुश) का प्रयोग करने से अधूरा श्राद्ध भी पूर्ण माना जाता है और जीवात्मा की सद्गति निश्चत होती है, क्योंकि दर्भ व तिल भगवान के शरीर से उत्पन्न हुए हैं। ‘‘विष्णुर्देहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्विलास्तथा।। (गरुड़ पुराण, श्राद्ध प्रकाश) श्राद्ध में गोपी चंदन व गोरोचन की विशेष महिमा है। श्राद्ध में मात्र श्वेत पुष्पों का ही प्रयोग करना चाहिए, लाल पुष्पों का नहीं। ‘‘पुष्पाणी वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च’।। (ब्रह्माण्ड पुराण, श्राद्ध प्रकाश) श्राद्ध में कृष्ण तिल का प्रयोग करना चाहिए, क्यांेकि ये भगवान नृसिंह के पसीने से उत्पन्न हुए हैं जिससे प्रह्लाद के पिता को भी मुक्ति मिली थी। दर्भ नृसिंह भगवान की रुहों से उत्पन्न हुए थे। देव कार्य में यज्ञोपवीत सव्य (दायीं) हो, पितृ कार्य में अपसव्य (बायीं) हो और ऋषि-मुनियों के तर्पणादि में गले में माला की तरह हो। श्राद्ध में गंगाजल व तुलसीदल का बार-बार प्रयोग करें। श्राद्ध में मुंडन करने के बाद ही स्नान कर पिंड दान करें। जौ के आटे, तिल, मधु और घृत से बने पिंड का ही दान करना चाहिए। दस दिन के भीतर गंगा में अस्थियां प्रवाहित करने से मृतक को वही फल प्राप्त होता है जो गंगा तट पर मरने से प्राप्त होता है। जब तक अस्थियां गंगा जी में रहती हैं तब तक मृतात्मा देवलोक में ही वास करती है। तुलसीकाष्ठ से अग्निदाह करने से मृतक की पुनरावृत्ति नहीं होती। तुलसीकाष्ठ दग्धस्य न तस्य पुनरावृŸिाः। (स्कन्द पुराण, पुजाप्र) कर्ता को स्वयं कर्पूर अथवा घी की बŸाी से अग्नि तैयार करनी चाहिए, किसी अन्य से अग्नि नहीं लेनी चाहिए। दाह के समय सर्वप्रथम सिर की ओर अग्नि देनी चाहिए। शिरः स्थाने प्रदापयेत्। (वराह पुराण) शवदाह से पूर्व शव का सिरहाना उŸार अथवा पूर्व की ओर करने का विधान है। वतो नीत्वा श्मशानेषे स्थापयेदुŸारामुरवम्। (गरुड़ पुराण) कुंभ आदि राशि के 5 नक्षत्रों में मरण हुआ हो तो उसे पंचक मरण कहते हैं। नक्षत्रान्तरे मृतस्य पंचके दाहप्राप्तो। पुत्तलविधिः।। यदि मृत्यु पंचक के पूर्व हुइ हो और दाह पंचक में होना हो, तो पुतलों का विधान करें - ऐसा करने से शांति की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत कहीं मृत्यु पंचक में हुई हो और दाह पंचक के बाद हुआ हो तो शांति कर्म करें। यदि मृत्यु भी पंचक मंे हुई हो और दाह भी पंचक में हो तो पुतल दाह तथा शांति दोनों कर्म करें। दाहकर्ता तथा श्राद्ध कर्ता को भूमि शयन और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। भोजन नमक रहित और पŸाल पर सूर्योदय से पूर्व (एक समय) करना चाहिए। प्रेत के कल्याण के लिए तिल के तेल का अखंड दीपक 10 दिन तक दक्षिणाभिमुख जलाना चाहिए। मृत्यु के दिन से 10 दिन तक किसी योग्य ब्राह्मण से गरुड़ पुराण सुनना चाहिए। ब्राह्मण भोजन का विशेष महत्व है- यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकक्षः। कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः।। अर्थात ब्राह्मण के मुख से देवता द्रव्य को और पितर कव्य कव्य को खाते हैं। (मनु स्मृति) श्राद्ध कर्म में साधन संपन्न व्यक्ति को विŸाशाठ्य (कंजूसी) नहीं करनी चाहिए। ‘‘विŸाशाठ्यं न समाचरेत्’’।। पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है। यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के लिए विभिन्न विधान दिए गए ह।ंै स्मृि त सगं ह्र तथा श्राद्धकल्पलता के अनुसार श्राद्ध का अधिकार, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (पुत्री का पुत्र), पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भानजा, सपिंड अथवा ओदक को क्रमिक रूप से है। परिवार अथवा कुटुंब में कोई न शेष बचा हो तो मृतक के साथी अथवा उस देश के राजा को भी मृतक के धन से श्राद्ध करने का अधिकार है। (मार्कण्डेय पुराण) श्राद्ध में लोहे का पात्र देखकर पितृगण तुरंत लौट जाते हैं अतः लोहे का उपयोग वर्जित है। श्राद्ध में 7 बातें वर्जित हैं - तैलमर्दन, उपवास, स्त्री प्रसंग, औषध प्रयोग, परान्न भोजन। श्राद्धकर्ता तीन बातें जरूरी हैं - पवित्रता, अक्रोध और अचापल्य (जल्दबाजी न करना)। सामान्यतः श्राद्ध घर में, गौशाला में, देवालय में अथवा गंगा, यमुना, नर्मदा या किसी अन्य पवित्र नदी के तट पर करने का सर्वाधिक महत्व है। मृतात्मा की सद्गति के लिए पिंड के आठ अंग इस प्रकार है- अन्न, तिल, जल, दुग्ध, घी, मधु, धूप, दीप। मरणाशौच के संबंध मंे शास्त्रों में उल्लेख है कि ब्राह्मण को दस दिन का, क्षत्रिय को बारह दिन का, वैश्य को पंद्रह दिन का और शूद्र को एक महीने का अशौच लगता है। परंतु वहीं यह भी कहा गया है कि चारांे वर्णों की शुद्धि 10 दिन में हो जाती है। इसके अनंतर अस्पृश्यता का दोष नहीं रहता। अनादि प्रयुक्त पूर्ण शुद्धि 12 वें दिन अपिंडीकरण के बाद ही होती है। देवार्चना आदि इसके अनंतर ही होते हैं। प्रथम पिंडदान जिन द्रव्यों से किया हो उन्हीं द्रव्यों के अन्य पिंडदान से श्राद्ध पूर्ण करें। अर्थी बांस की बनानी चाहिए और उसे मूंज की डोरी से बंधा होना चाहिए। अर्थी पर बिछाने के लिए कुशासन का प्रयोग करें। शव को ढकने के लिए रामनामी चादर अथवा सफेद चादर ही लें। शव को बांधने के लिए मूंज की रस्सी और कच्चा सूत ही प्रयोग में लें। सौभाग्यवती के लिए मौली का प्रयोग करें और ढकने के लिए सिंदूरी चूनर मेंहदी, चूड़ियां आदि लें। श्राद्ध की सभी क्रियाएं गोत्र तथा नाम के उच्चारण व जनेऊ के क्रम से ही होनी चाहिए। एकादशाह से ही समन्त्रोक्त कर्म करने का विधान है। दान लेने व देने के बाद ‘स्वस्ति’ बोलें, अन्यथा लेना देना सब निष्फल हो जाता है। अदान´्च निष्फलं च यथा बिना।। (श्रीमद्वेवी भाग. 9/2/100 पिंडदानों से पूर्व दर्भ का चट बनाकर उन्हीं नामों से आवाहन कर पूजन किया जाता है। मृतात्मा की समस्त इच्छाओं की पूर्ति के निमिŸा वृषोत्सर्ग अवश्य करें लेकिन यदि पति तथा पुत्र वाली सौभाग्यवती स्त्री पति से पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो उसके निमिŸा वृषोत्सर्ग न करें, बल्कि दूध देने वाली गाय का दान करना चाहिए। पति पुत्रवती नारी मर्तुग्रे मृता यदि। वृषोत्सर्गं न कुर्वंति गां तु दद्यात् पयस्विनीम् श्राद्ध में नीवी बंधन विशेष रूप से करें, इससे श्राद्ध की पे्रतों से रक्षा होती है। श्राद्ध में दर्भ की विटी धारण करना आवश्यक है। पितरों को अर्पित किए जाने वाले गंध, धूप तथा पवित्री, तिल आदि पदार्थ अपसव्य तथा अप्रदक्षिण (वामावर्त) क्रम से देने चाहिए। (ग. पु. 99/12-13) मलिन षोडशी मृत्यु स्थान से लेकर अस्थि संचयन तक छह पिंड तथा दशगात्र के 10 पिंडों को मिलाकर ‘मलिन षाडशी’ कहलाता है। तिल और घी को जौ के आटे में मिलाकर छः पिंड बनाएं। समस्त पिंड दक्षिणाभिमुख कर रखें। प्रथम पिंड: मृतस्थान में शव के नाम से पिंडदान से युम्याधिष्ठित देवता संतुष्ट होते हैं। मृतस्थाने शवो नाम तेन नाम्ना प्रदीयते। द्वितीय पिंड: द्वारदेश में पिंडदान से गृह वास्त्वाधिष्ठित देवता प्रसन्न होते हैं। द्वारदेशे भवेत् पन्थस्तेन नाम्ना प्रदीयते। तृतीय पिंड: चैराहे पर पिंडदान से मृतक के शरीर पर कोई उपद्रव नहीं होता। ‘चत्वारे खेचरो नाम तमृदिृश्य प्रदीयते’। चतुर्थ पिंड: विश्राम स्थान निमित्त श्मशान से पूर्व रखें। ‘‘विश्रामे भूतसंज्ञोइयं।। पंचम पिंड: चिता भूमि के संस्कार निमिŸा दें। काष्ट चयन रूपी इस पिंडदान से राक्षस, पिशाच आदि मृतक के शरीर को अपवित्र नहीं करते। तस्य होतव्य देहस्य नैवायोग्यत्वकारक:।। षष्ठ पिंड: अस्थिसंचय के निमिŸा पिंडदान से दाहजन्य पीड़ा शांत हो जाती है। ‘‘चिंतायां साधकं नाम वदन्त्येके खगेश्वरः।। फिर ‘‘क्रव्याद अग्नये नमः’’ बोलकर अग्नि की पूजा करें। फिर चिता की एक अथवा तीन परिक्रमा कर सिर की ओर आग प्रज्वलित करें। जब शव का आधा भाग जल जाए, तब काल क्रिया करें। शव के आधे या पूरे जल जाने पर उसके मस्तक का भेदन करें जिसे कपाल क्रिया कहते हैं। गृहस्थी की बांस से और यतियों की श्रीफल से करें। दाहकर्ता शव की 7 प्रदक्षिणा कर 7 समिधाएं एक-एक कर ‘क्रव्यादाय नमस्तुभ्यं’ कहकर चिता में डालें। इसके पश्चात् शवदाह संस्कार में आए लोग घर जाएं। ध्यान रहे, घर वापस जाते समय पीछे मुड़कर नहीं देखना है। घर पहुंचने पर नीम की पŸिायां चबाकर और बाहर रखे पत्थर पर पहला पैर रखकर ही घर में प्रवेश करें। प्रेत के कल्याण के लिए दस दिन तक दक्षिणाभिमुख तिल के तेल का अखंड दीपक घर में जलाना चाहिए। ‘‘कुर्यात प्रदीपं तैलेन’’ (देवयाज्ञिक का) षड्पिंडदान की सभी उŸारक्रियाएं अपसव्य और दक्षिणाभिमुख होकर ही करनी चाहिए। लोकव्यवहार के अनुसार कहीं-कहीं मटकी में जल भरकर अग्निदाह का भी विधान है। अग्निशांत होने पर स्नान कर गाय का दूध डालकर हड्डियों को अभिसिंचित कर दें। मौन होकर पलाश की दो लकड़ियों से कोयला आदि हटाकर पहले सिर की हड्डियों को, अंत में पैर की हड्डियों को चुन कर संग्रहित कर पंचगव्य से सींचकर स्वर्ण, मधु और घी डाल दें। फिर सुंगधित जल से सिंचित कर मटकी में बांधकर 10 दिन के भीतर किसी तीर्थ में प्रवाहित करें। दशाह कृत्य गरुड़ पुराण के अनुसार मृत्योपरांत यम मार्ग में यात्रा के लिए अतिवाहिक शरीर की प्राप्ति होती है। इस अतिवाहिक शरीर के 10 अंगों का निर्माण दशगात्र के 10 पिंडों से होता है। जब तक दशगात्र के 10 पिंडदान नहीं होते, तब तक बिना शरीर प्राप्त किए वह आत्मा वायुरूप में स्थित रहती है। इसलिए दशगात्र के 10 पिंडदान अवश्य करने चाहिए। इन्हीं पिंडों से अलग अलग अंग बनते हैं। वैसे तो दस दिनों तक प्रतिदिन एक एक पिंड रखने का विधान है, लेकिन समयाभाव की स्थिति में 10 वें दिन ही 10 पिंडदान करने की शास्त्राज्ञा है। शालिग्राम, दीप, सूर्य और तीर्थ को नमस्कारपूर्वक संकल्पसहित पिंडदान करें। पिंड पिंड से बनने संख्या वाले अवयव प्रथम शीरादिडवयव निमिŸा द्वितीय कर्ण, नेत्र, मुख, नासिका तृतीय गीवा, स्कंध, भुजा, वक्ष चतुर्थ नाभि, लिंग, योनि, गुदा पंचम जानु, जंघा, पैर षष्ठ सर्व मर्म स्थान, पाद, उंगली सप्तम सर्व नाड़ियां अष्टम दंत, रोम नवम वीर्य, रज दशम सम्पूर्णाऽवयव, क्षुधा, तृष्णा पिंडों के ऊपर जल, चंदन, सुतर, जौ, तिल, शंख आदि से पूजन कर संकल्पसहित श्राद्ध को पूर्ण करें। संकल्प: कागवास गौग्रास श्वानवास पिपिलिका। तथ्य, कारण व प्रभाव: इस श्राद्ध से मृतात्मा को नूतन देह प्राप्त होती है और वह असद्गति से सद्गति की यात्रा पर आरूढ़ हो जाती है। दशगात्र के पिंडदान की समाप्ति के बाद मुंडन कराने का विधान है। सभी बंधु बांधवों सहित मुंडन अवश्य कराना चाहिए। तर्पण की महिमा श्राद्ध में जब तक सभी पूर्वजों का तर्पण न हो तब तक प्रेतात्मा की सद्गति नहीं होती है। अतः 10, 11, 12, 13 आदि की क्रियाओं में शास्त्रों के अनुसार तर्पण करें। नदी के तट पर जनेऊ देव, ऋषि, पितृ के अनुसार सव्य और अपसव्य में कुश हाथ में लेकर हाथ के बीच, उंगली व अगूंठे से संपूर्ण तर्पण करें नदी तट के अभाव में ताम्र पात्र में जल, जौ, तिल, पंचामृत, चंदन, तुलसी, गंगाजल आदि लेकर तर्पण करें। तर्पण गोत्र एवं पितृ का नाम लेकर ही निम्न क्रम से करें - पिता दादा परदादा माताÛ दादी परदादी सौतेली मां नाना, परनाना, वृद्ध परनाना, नानी, परनानी, वृद्ध परनानी, चचेरा भाई, चाचा, चाची, स्त्री, पुत्र, पुत्री, मामा, मामी, ममेरा भाई, अपना भाई, भाभी, भतीजा, फूफा, बूआ, भांजा, श्वसुर, सास, सद्गुरु, गुरु, पत्नी, शिष्य, सरंक्षक, मित्र, सेवक आदि। ये सभी तर्पण पितृ तर्पण में आते हैं। सभी नामों से पूर्व मृतात्मा का तर्पण करें। नोट- जो पितृ जिस रूप में जहां-जहां विचरण करते हैं वहां-वहां काल की प्रेरणा से उन्हें उन्हीं के अनुरूप भोग सामग्री प्राप्त हो जाती है। जैसे यदि वे गाय बने तो उन्हें उŸाम घास प्राप्त होती है। (गरुड़ पुराण प्रे. ख.) नारायण बली प्रेतोनोपतिष्ठित तत्सर्वमन्तरिक्षे विनश्यति। नारायणबलः कार्यो लोकगर्हा मिया खग।। नारायणबली के बिना मृतात्मा के निमित्त किया गया श्राद्ध उसे प्राप्त न होकर अंतरिक्ष में नष्ट हो जाता है। अतः नारायणबली पूर्व श्राद्ध करने का विधान आवश्यकता पूर्वक करना ही श्रेष्ठ है। एकादशाह श्राद्ध 11वें दिन शालिग्राम पूजन कर सत्येश का उनकी अष्ट पटरानियों सहित पूजन करें। सत्येश पूजन श्राद्ध कर्ता के सभी पापों के प्रायश्चित के लिए किया जाता है। तत्पश्चात् हेमाद्री श्रवण करें- हमने जन्म से लेकर अभी तक जो कर्म किये हैं उन्हें पुण्य और पाप के रूप में पृथक-पृथक अनुभव करना जिसमें भगवान ब्रह्मा की उत्पŸिा से लेकर वर्णों के धर्मों तक का वर्णन है। चार महापाप: ब्रह्म हत्या, सुरापान, स्वर्ण चोरी, परस्त्री गमन। दशविधि स्नान: गोमूत्र, गोमय, गोरज, मृŸिाका, भस्म, कुश जल, पंचामृत, घी, सर्वौषधि, सुवर्ण तीर्थों के जल इन सभी वस्तुओं से स्नान करें। पांच ब्राह्मणों से पंचसूक्तों का पाठ करवाएं। भगवान के सभी नामों का उच्चारण करते हुए विष्णु तर्पण करें। प्रायश्चित होम: मृतात्मा की अग्निदाह आदि सभी क्रियाओं में होने वाली त्रुटियों के निवारण के निमित्त प्रायश्चित होम का विधान है। शास्त्रोक्त प्रमाण से हवन कर स्नान करें। पंच देवता की स्थापना व पूजन: ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, तत्पुरुष इन देवताओं का पूजन करें। मध्यमषोडशी के 16 पिंड दान प्रथम विष्णु द्वितीय शिव तृतीय सपरिवार यम चतुर्थ सोमराज पंचम हव्यवाहन षष्ठ कव्यवाह सप्तम काल अष्टम रुद्र नवम पुरुष दशम प्रेत एकादश विष्णु प्रथम ब्रह्मा द्वितीय विष्णु तृतीय महेश चतुर्थ यम पंचम तत्पुरुष नोट- ये सभी पिंडदान सव्य जनेऊ से किए जाते हैं। दान पदार्थ: स्वर्ण, वस्त्र, चांदी, गुड, घी, नमक, लोहा, तिल, अनाज, भैंस, पंखा, जमीन, गाय, सोने से शृंगारित बेल। वृषोत्सर्ग वृषोत्सर्ग के बिना श्राद्ध संपन्न नहीं होता है। ईशान कोण में रुद्र की स्थापना करें, जिसमें रुद्रादि देवताओं का आवाहन हो। स्थापना जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना, सांवा आदि सप्त धान्य पर करें। प्रेतमातृका की स्थापना करें। फिर वृषोत्सर्ग पूर्वक अग्नि आदि देवों का ह्वन करें। यदि बछड़ा या बछिया उपलब्ध हो तो शिव पार्वती का आवाहन कर पाद्य, अघ्र्यादि से पूजन करें। फिर वृषभ व गाय दान का संकल्प करें। विवाह के शृंगार का दान करें। एकादशाह को होने वाला वृषोत्सग नित्यकर्म है। वृषोत्सर्ग कर वृष को किसी अरण्य, गौशाला, तीर्थ, एकांत स्थान अथवा निर्जन वन में छोड़ दें। शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ भी कराएं। वृषोत्सर्ग प्रेतात्मा की अधूरी इच्छाएं पूरी हों, इसलिए करते हैं। आद्यश्राद्ध: आद्यश्राद्ध के दान पदार्थ छतरी, कमंडल, थाली, कटोरी, गिलास, चम्मच, कलश शय्यादान। 14 प्रकार के दान: शय्या, गौ, घर, आसन, दासी, अश्व, रथ, हाथी, भैंस, भूमि, तिल, स्वर्ण, तांबूल, आयुध। तिल व घी का पात्र। स्त्री के मृत्यु पर निम्नलिखित पदार्थों का दान करना चाहिए। अनाज, पानी मटका, चप्पल, कमंडल, छत्री, कपड़ा, लकड़ी, लोहे की छड़, दीया, तल, पान, चंदन, पुष्प, साड़ी। निम्नलिखित वस्तुओं का दान एक वर्ष तक नित्य करना चाहिए। अन्न कुंभ दीप ऋणधेनु। धनाभाव में निष्क्रिय द्रव्य का दान भी कर सकते हैं। षोडशमासिक श्राद्ध शव की विशुद्धि के लिए आद्य श्राद्ध के निमिŸा उड़द का एक पिंडदान अपसव्य होकर अवश्य करें। आद्य श्राद्ध से संपूर्ण श्राद्ध मृतात्मा को ही प्राप्त होता है। दूसरे श्राद्ध से अन्य प्रेतात्मा यह क्रिया नहीं ले सकतीं। अपसव्य होकर गोत्र नाम बोलकर करें। प्रथम उनमासिक श्राद्ध निमिŸाम द्वितीय द्विपाक्षिक मासिक ‘‘ तृतीय त्रिपाक्षिक मासिक ‘’ चतुर्थ तृतीय मासिक ‘‘ पंचम चतुर्थ मासिक ‘‘ षष्ठ पंचम मासिक ‘‘ सप्तम षणमासिक ‘‘ अष्टम उनषणमासिक ‘‘ नवम सप्तम मासिक ‘‘ दशम अष्टम मासिक ‘‘ एकादश नवम मासिक ‘‘ द्वादश दशम मासिक ‘‘ त्रयोदश एकादश मासिक ‘‘ चतुर्दश द्वादश मासिक ‘‘ पंचदश उनाब्दिक मासिक ‘‘ षोडशमासिक में प्रथम आद्य श्राद्ध का पिंड भी इसी में शामिल करते हैं। दान संकल्प कर निम्नलिखित पदार्थों का दान करें। वीजणा (पंखा), लकड़ी, छतरी, चावल, आईना, मुकुट, दही, पान, अगरचंदन, केसर, कपूर, स्वर्ण, घी, घड़ा (घी से भरा), कस्तूरी आदि। यदि दान देने में समर्थ न हों तो तुलसी का पान रख यथाशक्ति द्रव्य ब्राह्मण को दे दें। इससे कर्म पूर्ण होता है। यह अधिक मास हो तो 16 पिंड रखे जाते हैं अन्यथा 15 पिंड रखने का विधान है। यह श्राद्ध हर महीने एक-एक पिंड रख कर करना पड़ता है लेकिन 16 महीनों का पिंडदान एक साथ एकादशाह के निमिŸा रखकर किया जाता है। इससे मृतात्मा की आगे की यात्रा को सुगम होती है। सपिंडीकरण श्राद्ध सपिंडीकरण श्राद्ध के द्वारा प्रेत श्राद्ध का मेलन करने से पितृपंक्ति की प्राप्ति होती है। सपिंडीकरण श्राद्ध में पिता, पितामह तथा प्रपितामह की अर्थियों का संयोजन करना आवश्यक है। इस श्राद्ध में विष्णु पूजन कर काल काम आदि देवों का चट पूजन कर पितरों का चट पूजन पान पर करें। प्रेत के प्रपितामह का अर्धपात्र हाथ में उठाकर उसमें स्थित तिल, पुष्प, पवित्रक, जल आदि प्रेतपितामह के अर्धपात्र में छोड़ दें। ये कर्म शास्त्रोक्त विधानानुसार करें। सपिंडीकरण श्राद्ध में सर्वप्रथम गोबर से लिपी हुई भूमि पर सबसे पहले नारियल के आकार का पिंड प्रेत का नाम बोलकर रखें। फिर गोल पिंड क्रमशः पिता, दादा व परदादा के निमित्त रखें। (यदि सीधे तो सास का वंश लें) भगवन्नाम लेकर स्वर्ण या रजत के तार से बड़े पिंड का छेदन करें। फिर क्रमशः पिता, दादा और परदादा में संयोजन कर सभी पिंडों का पूजन करें। एक पिंड काल-काम के निमिŸा साक्षी भी रखें। तेरहवें का श्राद्ध द्वादशाह का श्राद्ध करने से प्रेत को पितृयोनि प्राप्त होती है। लेकिन त्रयोदशाह का श्राद्ध करने से पूर्वकृत श्राद्धों की सभी त्रुटियों का निवारण हो जाता है और सभी क्रियाएं पूर्णता को प्राप्त होकर भगवान नारायण को प्राप्त होती हंै। तेरहवें का श्राद्ध अति आवश्यक है। यह श्राद्ध 13वें दिन ही करना चाहिए। लोकव्यवहार में यही श्राद्ध वर्णों के हिसाब से अलग-अलग दिनों को किया जाता है। लेकिन गरुड़ पुराण के अनुसार तेरहवीं तेरहवें दिन ही करना चाहिए। इस श्राद्ध में अनंतादि चतुर्दश देवों का कुश चट में आवाहन पूजन करें। फिर ललितादि 13 देवियों का पूजन ताम्र कलश में जल के अंदर करें। सुतर से कलश को बांध दें। फिर कलश के चारों ओर कुंकुम के तेरह तिलक करें। इन सभी क्रियाओं के उपरांत अपसव्य होकर चट के ऊपर पितृ का आवहनादि कर पूजन करें। लोकाचार के अनुसार पगड़ी संस्कार करें।