पाणिग्रहण संस्कार मुहूर्त विश्वनाथ प्रसाद ‘सोनी’ मानव-सृष्टि में पुरुष और स्त्री, दोनों अलग-अलग अंश हैं। कैवल्य प्राप्ति अर्थात एकत्व में पुरुष स्वतंत्र हैं परंतु स्त्री हमेशा पुरुष पाने की अपेक्षा रखती है। वह पति में तन्मय होकर, प्रकृति को, सृष्टि को चलायमान देखने के लिए, अग्रसर होती है। इसीलिए पाणिग्रहण संस्कार को गृहस्थ आश्रम में धर्म-पालन हेतु प्रमुख स्थान प्राप्त है। सुखमय दाम्पत्य के निमित्त ही मुहूर्त की शुभता का विचार किया जाता है। स्मृति शास्त्र में पुरुष का धर्म यज्ञ और नारी का धर्म तप माना गया है। ग्रह नक्षत्रों के गोचर और उनके बलाबल को जीवन का आधार माना गया है अर्थात ग्रहों और नक्षत्रों के गोचर और बलाबल पर जीवन का सुखमय या दुखमय होना निर्भर करता है। विवाह काल में तीन बलों को कारक कहा गया है। पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्माजी का विवाह इसी नक्षत्र में हुआ तथा ब्रह्मा-ब्रह्माण पूज्य नहीं हुए और ब्रह्मा जी, शिव-विवाह पर पार्वती पर मुग्ध हुए। विवाह मुहूर्त में तारा बल अर्थात शुक्र और बृहस्पति की स्थिति पर विशेष जोर दिया जाता है। विवाह-सगाई के अवसर पर इनका पुष्ट होना सुखी वैवाहिक जीवन का आधार माना जाता है। वर-वधू का कुंडली मिलान एक अलग प्रक्रिया है लेकिन यहां मुहूर्त पर विचार करने में जो साधारण बातें हैं, उनका विवेचन प्रस्तुत है। विवाह मुहूर्त विश्लेषण में कुंडली दोष के अतिरिक्त इन दस प्रमुख दोषों पर विचार करना आवश्यक है। लŸाा पात युति वेदा यामित्र वाण एकार्गल उपग्रह क्रांतिसाम्य दग्धा तिथि। वर-वधू की कंुडलियों के अनुरूप विद्वान ज्योतिषी इन पर विचार करते हैं और शास्त्रानुसार अल्प दोषांे के उपाय भी बताते हैं। कुछ ऐसे मुहूर्तों का विधान भी किया गया है, जिनमें विवाहादि मांगलिक कार्य किए जा सकते हैं। अक्षय तृतीया, देव प्रबोधिनी एकादशी, आषाढ़ शुक्ल पक्ष नवमी तथा चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी (राम नवमी) आदि ऐसे ही मुहूर्त हैं। इन मुहूर्तों में तारा अर्थात् शुक्र और गुरु के उदय तथा अस्त पर विचार करना भी आवश्यक नहीं है। अगर वर का सूर्यबल क्षीण हो, तो सूर्य की पूजा करनी चाहिए। वर की कुंडली में सूर्य प्रथम, द्वितीय, पंचम, सप्तम या नवम् हो तो विशेष अनुष्ठान कर इस दोष का निवारण किया जा सकता है। इसी प्रकार कन्या की राशि से गुरु ऊपर वर्णित स्थानों पर हो तो कन्या को बृहस्पति की पूजा आराधना करनी चाहिए। वर और कन्या दोनों के लिए चंद्र बल की स्थिति में सिर्फ चैथे और आठवें भाव में स्वीकारा नहीं गया है। विवाह हेतु गोधूलि बेला भी एक शुभ मुहूर्त है। वर व कन्या का लग्न मिलान उपयुक्त न हो, विवाह मुहूर्त भी उपयुक्त नहीं मिल पा रहे हों तथा वर और कन्या पूर्णरूप से विवाह योग्य हों, तो गोधूलि बेला में विवाह किया जा सकता है। चंूकि इस गोधूलि काल की अवधि क्षीण होती है अतः पूरी सतर्कता रखी जाती है और विधि विधान का भी पूरा ध्यान रखा जाता है। मुहूर्तों के अलावा कुछ अन्य धर्म एवं विज्ञान सम्मत विधान विद्वानों ने विवाह के लिए बताए हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। वर-कन्या का स्ववर्ण, स्वजाति का होना। ग्रह और नक्षत्र मिलान हेतु कुंडली विवेचन में प्रमुख वर्ण, वश्य, तारा योनि, ग्रहमैत्री, गण, भृकुट, नाड़ी इन आठ तत्वों पर विचार आवश्यक है। वर और कन्या का गोत्र एक नहीं होना चाहिए। कन्या के पाणिग्रहण संस्कार के बाद सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए मनुस्मृति में एक श्लोक है- वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः। पति सेवा गुरौ वासो गृहार्थोड.ग्निपरि क्रिया। विवाहोपरांत स्त्रियों को पति को गुरु, पति के घर को गुरुकुल तथा गृहकार्य को अग्निहोत्र के समान मानना चाहिए। पति को यज्ञ, दान, तप, तीर्थाटन, देव पूजन आदि पत्नी के साथ करना चाहिए। पति और पत्नी दोनों को एक दूसरे की भावना का सम्मान करना और परस्पर एक दूसरे का अंग समझना चाहिए। यही वैवाहिक जीवन सुखमय करने का आधार है। आगामी वर्ष 2010 में विवाह मुहूर्त बहुत कम हैं। अतः इस वर्ष इसके अभाव में प्रमुख चार तिथियों का उल्लेख आवश्यक है- अक्षय तृतीया या अरवातीज आषाढ़ शुक्ल पक्ष नवमी, जिसे सूनम भी कहा जाता है। चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी अर्थात राम नवमी देव प्रबोधिनी एकादशी जो कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी को होती है। पंचांग एवं ज्योतिषियों के परामर्श के बिना भी प्रायः हर वर्ष असंख्य विवाह इन दिनों होते हैं। इन्हें ज्योतिषीय शब्दों में अबूझ सावे कहा जाता है। सभी वर्णों तथा जातियों में तारा (शुक्र-गुरु), त्रिबल (सूर्य, गुरु, चंद्र) एवं मुहूर्तों पर विचार नहीं किया जाता है। सामूहिक एवं परंपरागत विवाहों को इन दिनों दोष रहित माना जाता है।