कात्यायनी देवी व्रत पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज ‘ब्रजवासी’ कात्यायनी देवी का व्रत मार्गशीर्ष मास कृष्णपक्ष से मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तक करने का विधान है। यह व्रत ब्रज की कुमारियों ने परात्पर परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए किया था। शास्त्रों में उल्लेख है कि इस मानव शरीर का उद्देश्य मात्र प्रभु का सान्निध्य प्राप्त करना है। इसके लिए अनेक मार्ग निर्दिष्ट हैं, जैसे भजन, कीर्तन, साधना, उपासना, सत्यभाषण, दान, दया, संयम, व्रतोपवास, अनुष्ठान इत्यादि। यदि मनुष्य एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा भक्तिपूर्वक प्रयत्न करे, तो इसी जन्म में जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। आवश्यकता है मन की चंचलता तथा बहिमुर्खता को दूर कर उसे अंतर्मुखी मार्ग में लाने की, मन के प्रवाह को प्रतिकूल परिस्थितियों एवं दिशा से हटाकर अनुकूल परिस्थितियों एवं दिशा में मोड़ने की। ब्रज की गोप बालाएं तन-मन-धन से स्वयं को नंद नंदन सांवले सलोने सरकार श्री कृष्ण पर न्यौछावर कर चुकी थीं। अब जीवन में इच्छा थी तो केवल एक बांके बिहारी यशोदा नंदन के चरणों का कृपाप्रसाद पाने की। सोते-जागते, खाते-पीते, चलते-फिरते, उठते-बैठते अर्थात जीवन की प्रत्येक गति में श्रीकृष्ण ही बस गए थे। आवश्यकता थी तो केवल उन्हें रिझाकर उनके कमलरूपी श्रीचरणों में आश्रय प्राप्त करने की। इन्हीं व्याकुलता के क्षणों में किसी ब्रजगोपी ने अपनी दादी-नानी के मुख से सुन लिया कि कात्यायनी व्रत के अनुष्ठान से मनोवांछित वर प्राप्त होता है। बस, फिर क्या था? ब्रज की सभी कुमारियों ने नंदबाबा के लाड़ले कामदेव की छवि को धूमिल करने वाले एवं सूर्य की आभा से भी अधिक देदीप्यमान गोविंद माधव को प्राप्त करने के लिए मन-बुद्धि-चिŸा में तीव्र उत्कंठा को समाए हुए सामूहिक रूप से कात्यायनी व्रत करने का संकल्प एक साथ ले डाला। ब्रज बालाओं ने अपने प्राणप्रियतम को प्राप्त करने के लिए माता कात्यायनी के पूजन का व्रत विशुद्ध भाव से प्रारंभ कर दिया। श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा सुनाते हुए श्रीशुकदेवजी कहते हैं- हेमन्ते प्रथमेमासि नंदव्रजकुमारिकाः। चेरुर्हविष्यं भु´्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम्।। ‘’परीक्षित! अब हेमंत ऋतु आई। उसके पहले ही महीने में अर्थात मार्गशीर्ष में नंदबाबा के ब्रज की कुमारियां कात्यायनी देवी की पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न्ा ही खाती थीं। राजन! वे कुमारी कन्याएं पूर्व दिशा का क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजल में स्नान कर लेतीं और तट पर ही देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगंधित चंदन, फूलों के हार, भांति-भांति के नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंट की सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदि से उनकी पूजा करतीं। साथ ही ‘कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः। इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रः कुमारिकाः।।’ इस मंत्र का जप करती हुईं वे कुमारियां देवी की आराधना करतीं। इस प्रकार उन कुमारियों ने, जिनका मन श्रीकृष्ण पर निछावर हो चुका था, इस संकल्प के साथ एक महीने तक भद्रकाली की भलीभांति पूजा की कि ‘नंदनंदन श्यामसुंदर ही हमारे पति हों’। वे प्रतिदिन उषाकाल में ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखी को पुकार लेतीं और परस्पर हाथ में हाथ डालकर ऊंचे स्वर से भगवान श्रीकृष्ण की लीला तथा नामों का गान करती हुई यमुनाजल में स्नान करने के लिए जातीं। एक दिन सब कुमारियों ने प्रतिदिन की भांति यमुनाजी के तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिए और भगवान श्रीकृष्ण के गुणों का गान करती हुई बड़े आनंद से जल-क्रीड़ा करने लगीं। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शंकर आदि योगीश्वरों के भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियों की अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालों के साथ उन कुमारियों की साधना सफल करने के लिए यमुना तट पर गए। उन्होंने अकेले ही उन गोपियों के सारे वस्त्र उड़ा लिए और बड़ी फुर्ती से कदंब के एक वृक्ष पर चढ़ गए। साथी ग्वालबाल ठठा-ठठाकर हंसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हंसते हुए गोपियों से हंसी की बात कहने लगे। ‘अरी कुमारियो! इच्छा हो, तो तुम यहां आकर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुम लोगों से सच-सच कहता हूं। हंसी बिलकुल नहीं करता। तुम लोग व्रत करते-करते दुबली हो गई हो। ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुंदरियो! तुम्हारी इच्छा हो, तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ आओ। मुझे इसमें कोई आपŸिा नहीं है।’ भगवान की यह हंसी मसखरी देखकर गोपियों का हृदय प्रेम से सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक दूसरी की ओर देखने और मुसकराने लगीं। जल से बाहर नहीं निकलीं। जब भगवान ने हंसी-हंसी में यह बात कही, तब उनके विनोद से कुमारियों का चिŸा और भी उनकी ओर खिंच गया। वे ठंडे पानी में कंठ तक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर कांप रहा था। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- ‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम ऐसी अनीति मत करो। हम जानती हैं कि तुम नंदबाबा के लाड़ले लाला हो। हमारे प्यारे हो। सारे ब्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं। देखो, हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो। श्यामसुदंर ते दास्यः करवाम तवोदितम्। देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवामहे।। प्यारे श्यामसुंदर! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करने के लिए तैयार हैं। तुम तो धर्म का मर्म भलीभांति जानते हो। हमंे कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नंदबाबा से कह देंगी।’ भवत्ये यदि मे दास्यो मयोक्त वा करिष्यथ। अत्रास्गत्य स्ववासांसि प्रतीच्छंतु शुचिस्मिताः।। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘कुमारियो! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेम से भरी है। देखो, जब तुम अपने को मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञा का पालन करना चाहती हो तो यहां आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो।’ ‘परीक्षित्! वे कुमारियां ठंड से ठिठुर रही थीं, कांप रही थीं। भगवान की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथों से गुप्त अंगों को छिपाकर यमुनाजी से बाहर निकलीं। उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी। उनके इस शुद्ध भाव से भगवान बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्हें अपने पास आई देखकर उन्होंने गोपियों के वस्त्र अपने कंधे पर रख लिए और बड़ी प्रसन्नता से मुसकराते हुए बोले- ‘अरी गोपियो! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है, इसमें संदेह नहीं। परंतु इस अवस्था में वस्त्रहीन होकर तुमने जल में स्नान किया है, इससे तो जल के अधिष्ठाता देवता वरुण का तथा यमुना जी का अपराध हुआ है। अतः अब इस दोष की शांति के लिए तुम अपने हाथ जोड़कर सिर से लगाओ और उन्हंे झुककर प्रणाम करो, तदनंतर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ।’ भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उन ब्रजकुमारियों ने ऐसा ही समझा कि वास्तव में वस्त्रहीन होकर स्नान करने से हमारे व्रत में त्रुटि आ गई। अतः उसकी निर्विघ्न पूर्ति के लिए उन्होंने समस्त कर्मों के साक्षी श्रीकृष्ण को नमस्कार किया, क्यांेकि उन्हें नमस्कार करने से ही सारी त्रुटियों और अपराधों का मार्जन हो जाता है। जब यशोदानंदन भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि सब-की-सब कुमारियां मेरी आज्ञा के अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके हृदय में करुणा उमड़ आई और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिए। प्रिय परीक्षित! श्रीकृष्ण ने कुमारियों से छलभरी बातें कीं, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हंसी की और उन्हें कठपुतलियों के समान नचाया; यहां तक कि उनके वस्त्र तक हर लिए। फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुईं, उनकी इन चेष्टाओं को दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतम के संग से वे और भी प्रसन्न हुईं। परीक्षित! गोपियों ने अपने-अपने वस्त्र पहन लिए। परंतु श्रीकृष्ण ने उनके चिŸा को इस प्रकार अपने वश में कर रखा था कि वे वहां से एक पग भी न चल सकीं। अपने प्रियतम के समागम के लिए सजकर वे उन्हीं की ओर लजीले चितवन से निहारती रहीं। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उन कुमारियों ने उनके चरण कमलों के स्पर्श की कामना से ही व्रत धारण किया है और उनके जीवन का यही एक मात्र संकल्प है। तब गोपियों के प्रेम के अधीन होकर ऊखल तक में बंध जाने वाले भगवान ने उनसे कहा-‘मेरी परम पे्रयसी कुमारियो! मैं तुम्हारा यह संकल्प जानता हूं कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। तुम्हारी इस अभिलाषा का अनुमोदन करता हूं, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा। तुम मेरी पूजा कर सकोगी। जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है, उनकी कामनाएं उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं; ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबले हुए बीज फिर अंकुर के रूप में उगने के योग्य नहीं रह जाते। इसलिए कुमारियो! अब तुम अपने-अपने घर लौटे जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गई है, तुम आने वाली शरद ऋतु की रात्रियों में मेरे साथ विहार करोगी। सुंदरियो! इसी उद्देश्य से तुम लोगों ने यह व्रत और कात्यायनी देवी की पूजा की थी।’ श्रीशुकदेव जी कहते हैं- ‘परीक्षित! भगवान की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियां उनके चरण कमलों का स्मरण-ध्यान करती हुई जाने की इच्छा न होने पर भी बड़े कष्ट से ब्रज गईं। अब उनकी सारी कामनाएं पूर्ण हो चुकी थीं।’ गोपिकाओं के कात्यायनी व्रत की इस कथा के द्वारा साधना विषयक कुछ ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत किया गया है, जिन्हें हृदयंगम करके कोई भी व्रतकर्ता साधक मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है। वे ध्यातव्य सूत्र निम्नानुसार हैं। Û शास्त्रोक्त व्रतांे के विधिवत अनुष्ठान से अतिदुर्लभ वस्तुएं भी सुलभ बन जाती हैं। इतना ही नहीं, भगवान् की कृपा भी सहज ही प्राप्त हो जाती है। Û व्रत के अनुष्ठान काल में संकल्प की दृढ़ता, नियम-पालन की कठोरता, पूर्ण श्रद्धा और अनन्यभाव अत्यंत आवश्यक शर्त है। Û सच्ची लगन से उपासना करने पर भगवान भक्तों के समीप स्वयं ही चले आते हैं। Û जो जिस संकल्प से व्रत करता है, उसे वैसे ही फल की प्राप्ति होती है। अतः यथासंभव निष्काम भाव से भगवत्प्रीत्यर्थ व्रतचर्या में दीक्षित होना ही उŸाम पक्ष है। Û व्रतकर्ता जब भगवान का आश्रय ग्रहण कर लेता है, तब अज्ञानतावश व्रत में उससे होने वाली त्रुटियों का परिमार्जन भगवान स्वयं करा देते हैं। Û भगवान को शील, संकोच, लज्जा आदि किसी प्रकार का आवरण स्वीकार्य नहीं। इसलिए वे व्रतकर्ता के लिए तब तक सुलभ नहीं होते, जब तक वह अपनी स्वाभाविक दशा में आत्मसर्पण नहीं कर देता। सच है, अपने अहं के आवरण को त्यागकर ही कोई भक्त भाग्यवती गोपियों के सदृश भगवान का अनुग्रह प्राप्त कर सकता है।