अशुभ एवं असफलतादायक मुहूर्तांे को भी जानिए इनमें शुभ कार्य न करें। बृहस्पति संहिता के अनुसार दिग्दाह, महावृक्ष के पतन, वर्षा, उल्का पतन, महापात, वज्र गिरने पर, बिना बादल के बिजली चमकने पर या गिरने पर भूकंप होने पर, गांव या शहर के पास सियारों आदि के रोने पर कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए। जिस स्थान पर बिना धूम के या धूम के साथ केतु का उदय हो तथा सूर्य या चंद्र का ग्रहण लगे, वहां सात दिन तक शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। ऋषि वसिष्ठ के अनुसार ‘मास दग्धासु तिथिषु कृतं यन्मंगलादिकम्। तत्सर्व नाशमायाति ग्रीष्मे कुसरितो यथा।’ अर्थात मास दग्ध तिथियों में जो मांगलिक कर्म किए जाते हैं उनका ऐसे विनाश होता है जैसे गर्मी में बरसाती नदियां सूख जाती हैं। ज्ञान मंजरी ग्रंथ के अनुसार पौष एवं चैत्र माह में द्वितीया, ज्येष्ठ और फाल्गुन में चतुर्थी, वैशाख तथा सावन में षष्ठी, क्वार और आषाढ़ में अष्टमी, अग्रहायण और भाद्रपद में दशमी और माघ तथा कार्तिक में द्वादशी दग्धा तिथियां होती हैं। ये सभी तिथियां वज्र्य हैं। ज्योतिष चिंतामणि के अनुसार पक्षरंध्रतिथियों में भी शुभ कार्य नहीं करने चाहिए। दोनों पक्षों की सम तिथियां, द्वितीया एवं दशमी को छोड़कर, पक्षरंध्र होती हैं। नवमी को छोड़कर शेष विषम तिथियां श्रेष्ठ होती हैं। शून्य नक्षत्रों में आरंभ शुभ कार्य भी सफल नहीं होता है। श्री राम दैवज्ञ ने मुहूर्त चिंतामणि ग्रंथ में बताया है कि चैत्र में रोहिणी, अश्विनी, वैशाख में चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठ में उत्तराषाढ़ा, पुष्य, आषाढ़ में पूर्वा फाल्गुनी, धनिष्ठा, सावन में उत्तराषाढ़ा और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, क्वार में पूर्वा भाद्रपद, कार्तिक में कृत्तिका, मघा, अग्रहायण में चित्रा, विशाखा, पौष में आद्र्रा, अश्विनी, माघ में श्रवण, मूल और फाल्गुन में भरणी तथा ज्येष्ठा नक्षत्र शून्य नक्षत्र होते हैं। जिन तिथियों में ग्रहों की उत्पत्ति हुई है, उनका भी शुभ कार्यों में त्याग करना चाहिए। सप्तमी को सूर्य, चैदस को चंद्र, दशमी को मंगल, द्वादशी को बुध, एकादशी को गुरु, नवमी को शुक्र, अष्टमी को शनि, पूर्णिमा को राहु तथा अमावस्या को केतु की उत्पत्ति हुई थी। अपनी जन्म तिथि को भी शुभ कार्य आरंभ नहीं करना चाहिए। क्रचक एवं संवर्त योग जिस दिन तिथि व वार संख्या का योग तेरह हो उस दिन क्रचक कुयोग होता है। सप्तमी में रविवार तथा परिवा में बुधवार को संवर्त नामक अशुभ योग बनता है। हुताशन नामक अशुभ योग अग्नि योगे कृतं सर्वं कुले विश्वं विनाशनम्। यथाग्नौ पतितास्तौयविन्दवो महतीत्मयी।। हुताशन योग में कार्य करने पर कुल में सब का विनाश होता है। षष्ठी तिथि से द्वादशी तक सोमवारादि से युक्त होने पर दोनों पक्षों में ये सात अर्थात् सोमवार को षष्ठी, मंगल को सप्तमी, बुध को अष्टमी, गुरु को नवमी, शुक्र को दशमी, शनि को एकादशी और रवि को द्वादशी होने पर सात हुताशन कुयोग होते हैं। विष योग षष्ठी को रविवार, सप्तमी को सोमवार, अष्टमी को मंगलवार, नवमी को बुधवार, एकादशी को गुरुवार, द्वादशी को शुक्रवार और त्रयोदशी को शनिवार होने पर विष योग होता है। इनका त्याग करना चाहिए। मृत्यु योग आचार्य त्रिविक्रम के अनुसार मंगलवार को नंदा तिथि (1, 6, 11), शुक्रवार को भद्रा (2, 7, 12), बुधवार को जमा (3, 8, 13) गुरुवार को रिक्ता (4, 9, 14) तथा शनिवार को पूर्णा तिथि (5, 10, 15) होने पर मृत्यु योग होता है। इनका भी त्याग करना चाहिए। नक्षत्र लुंछि योग यदि प्रतिपदा के दिन पूर्वाषाढा़, पंचमी को कृत्तिका, अष्टमी को पूर्वा भाद्रपद, दशमी को रोहिणी, द्वादशी को अश्लेषा और मघा तथा तेरस को चित्रा नक्षत्र होने पर नक्षत्र लुंछि नामक अशुभ योग होता है। यह देवताओं का भी संहार करने वाला योग है। अतः यह सर्वथा त्याज्य है। निम्नलिखित निंद्य योग शुभ कार्यों में वर्जित हैं। द्वादशी तिथि को अश्लेषा, प्रतिपदा को उत्तराषाढ़ा, द्वितीया को अनुराधा, पंचमी को मघा, तृतीया को तीनों उत्तरा, एकादशी को रोहिणी, तेरस को स्वाति और चित्रा, सप्तमी को मूल, नवमी को कृत्तिका, अष्टमी को पूर्वा भाद्रपद और षष्ठी तिथि को रोहिणी नक्षत्र होने पर निंद्य योग होता है। पापी ग्रहों के जन्म नक्षत्रों में शुभ कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए। बृहस्पति के अनुसार सूर्य का विशाखा, चंद्र का कृत्तिका, मंगल का श्रवण, बुध का धनिष्ठा, गुरु का उत्तराफाल्गुनी, शुक्र का पुष्य, शनि का रेवती और राहु का जन्म नक्षत्र अश्विनी है। यमघंटक एवं यमद्रष्ट योग में आरंभ किया गया कार्य सफल नहीं होता। रविवार को मघा, सोमवार को आद्र्रा, मंगल को विशाखा, बुधवार को मूल, गुरु को स्वाति, शुक्रवार को रोहिणी और शनिवार को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र होने पर यमघंटक नामक कुयोग होता है। रविवार को मघा, ज्येष्ठा, सोमवार को मूल, विशाखा, मंगल को भरणी, कृत्तिका, बुधवार को अश्विनी, उत्तरा फाल्गुनी, गुरु को मृगशिरा, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, शुक्र को स्वाति और शनिवार को हस्त तथा चित्रा नक्षत्र होने पर यमदंष्ट्र योग होता है। महा विनाशकारी योग रविवार को मघा, सोम को विशाखा, मंगल को आद्र्रा, बुध को मूल, गुरु को शतभिषा, शुक्र को रोहिणी, शनिवार को पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा होने पर महाविनाशकारी योग माना गया है। आनंदादि योग प्रायः सभी पंचांगों में दिए होते हैं। ये कुल 28 होते हैं। इनमें कुछ योग अत्यंत अशुभ होते हैं। यथा काल दंड एवं वज्र में मृत्युतुल्य कष्ट, मुद्गर तथा लुंबक में धन क्षय, उत्पात में क्लेश, मृत्यु में मरण, काण में काल भय, मूसल में हानि, गद में भय, राक्षस में कष्ट आदि कुफल होते हैं। इन योगों में शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। हलाहल योग एषु योगेषु कत्र्तव्यः शत्रूच्चाटन मारणम्। विवाहादिषु निश्चितं निधनं प्रदम।। ये योग शत्रु का उच्चाटन, मारण आदि अभिचार कर्म के लिए तो उपयुक्त हैं लेकिन विवाह आदि शुभ कार्यों के लिए वर्जित हैं। रविवार को कृत्तिका नक्षत्र और पंचमी तिथि, सोम को चित्रा एवं द्वितीया, मंगल को रोहिणी और पूर्णिमा, बुध को भरणी और सप्तमी, गुरु को अनुराधा एवं तेरस, शुक्र को श्रवण एवं षष्ठी तथा शनि को रेवती नक्षत्र एवं अष्टमी तिथि का संयोग होने से हलाहल महा अशुभ योग होता है। ज्वालामुखी योग अपने नाम के अनुरूप ये अशुभ योग हैं। इनमें शुभ कार्य भूलकर भी नहीं करने चाहिए। इनके बारे में कहा गया है- पड़वा मूल पंचमी भरणी अष्टमी कृतिका नवीं रोहिणी, दशमी अश्लेषा तू तो वांच, ज्वालामुखी नखत ये पांच। परिणाम जनमे तो जीवे नहीं, कृषि निष्फल जाय। कुआ पोखर जोखने तुरते नीर पराय।। संग्राम चढ़े जीते नहीं बसे तो ऊजर होय। नारी पहने चूड़ियां पुरुष विहूनो होय।। इन अशुभ मुहूर्तों के परिहार हेतु उपाय भी निर्धारित हैं। यदि आवश्यक हो, तो ये उपाय अपना कर अशुभ मुहूर्तों में कार्य संपन्न किया जा सकता है।