रत्न धारण करने के लिये निर्णय का आधार क्या होना चाहिये, ज्योतिष या हस्तरेखा शास्त्र? यहां आधार कोई भी क्यों न हो, लेकिन यह हमें अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी ग्रह का रत्न धारण करने का उद्देश्य है उस ग्रह के बल को बढ़ाना। इसके विपरीत किसी ग्रह से संबंधित पदार्थ का दान करना या जल प्रवाह करने का तात्पर्य होता है उस ग्रह के दुष्प्रभाव को कम करना। अर्थात हमें किसी भी कुंडली में उसके अनुकूल ग्रहों को ढंूढ़ना होगा तथा प्रतिकूल ग्रहों को भी देखना होगा जो कि जातक को अशुभ फल दे सकते हैं। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि कभी भी कुंडली या हस्तरेखा के आधार पर किसी भी प्रतिकूल ग्रह का रत्न धारण नहीं करना चाहिए। यह ठीक उसी तरह होगा कि जैसे हमारा लाभ सिर्फ और सिर्फ उन्हीं व्यक्तियों द्वारा होता है जो हमारे शुभचिंतक होते हैं या मित्र होते हैं। कभी भी हमारे शत्रु हमको लाभ नहीं दे सकते। अगर हम उनको बल देंगे या उनको अपने घर में आमंत्रित करेंगे तो वह हमेशा हमें नुकसान पहुंचाने का ही प्रयास करेंगे, और मौका मिलते ही हम पर प्रहार करने का प्रयास करेंगे न कि हमें लाभ देने का प्रयास करेंगे। बहुत से विद्वान ज्योतिषियों का मानना है कि जो ग्रह हमारे अनुकूल हैं, उनके रत्न धारण करके बली बनाने का कोई लाभ नहीं है, हमें उन ग्रहों का रत्न धारण करके बली करना चाहिए जो हमारे प्रतिकूल हैं। अर्थात नकारात्मक या अशुभ फल देने वाले ग्रहों का रत्न धारण करके उन्हें बली करना चाहिये। लेकिन यह परिकल्पना बिल्कुल गलत है। अतः ऐसे ग्रहों के रत्नों को कभी भी धारण नहीं करना चाहिए अन्यथा वे रत्न हमको नुकसान ही पहुंचायेंगे न कि लाभ। अतः कभी भी अशुभ भावों के स्वामी व अकारक ग्रहों के रत्न धारण नहीं करने चाहिए। हमें हमेशा शुभ फलदायक व शुभ भावों के स्वामी का ही रत्न धारण करना चाहिए। अशुभ व शुभ ग्रह का निर्धारण करने के लिये हमें ग्रह की स्थिति से ज्यादा उसके स्वामित्व पर ध्यान देना चाहिये, यह अधिक महत्वपूर्ण है। किसी भी ग्रह के लिये चार तथ्यों को आधार मानकर विश्लेषण किया जाता है। ग्रह शुभ फलदायक है या अशुभ फलदायक। इसके अलावा यह देखना पड़ता है कि ग्रह बली है या निर्बल। यदि कोई ग्रह शुभ फलदायक है और बली है, और ऐसे ग्रह की दशा चलती है तो जातक शुभ फल ही प्राप्त करेगा। ऐसी स्थिति में तो जातक कुंडली दिखाने ही नहीं आता है, जबकि शुभ फलदायक ग्रह हो और निर्बल स्थिति में हो और उस ग्रह की दशा चल रही हो तो जातक को शुभ फल तो प्राप्त होते हैं परंतु उतने शुभ फल प्राप्त नहीं हो पाते हैं जितना वह प्रयास कर रहा होता है या जितना वह अपेक्षा करता है अर्थात ऐसी स्थिति में उसको रत्न धारण करने की आवश्यकता महसूस होती है। उदाहरण के लिये यदि कोई लग्नेश छठे भाव में स्थित हो गया तो उसका बल निश्चित रूप से कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में लग्नेश की दशा चलने के बाद भी पूर्ण शुभ फल प्राप्त नहीं हो पायेंगे। इसके विपरीत लग्नेश हो और कुंडली में केंद्र में स्थित हो या उच्च का स्थित हो जाये तो ऐसे ग्रह की दशा में जातक को भरपूर शुभ फल प्राप्त हो रहे होते हैं, ऐसी स्थिति में जातक कुंडली दिखाने ही नहीं आता है। इसके विपरीत कोई ग्रह 6, 8, 12वें भाव का स्वामी हो और उच्च का हो या केंद्र में स्थित हो जाये और ऐसे ग्रह की दशा चले तो जातक को भरपूर प्रतिकूल परिणाम मिल रहे होते हैं तो ऐसी स्थिति में अमुक ग्रह का रत्न बिल्कुल नहीं धारण करना चाहिए कि ग्रह उच्च का है या केंद्र में स्थित है तो शुभ फल ही देगा, बल्कि इसका फल हमें इस प्रकार देखना चाहिए कि ग्रह अशुभ भाव का स्वामी है तो प्रतिकूल फल ही देगा और क्योंकि बलवान स्थिति में है तो भरपूर प्रतिकूल प्रभाव देगा, ऐसी स्थिति में रत्न धारण न कराकर हमें ऐसे ग्रह का दान व जल प्रवाह ही कराना चाहिए। इस प्रकार कोई अशुभ भाव का स्वामी है माना 6, 8, 12 वें भाव का स्वामी है और अस्त हो गया है या नीच का हो गया है या अशुभ भाव में स्थित होने के कारण या शत्रु राशि में स्थित होने के कारण या बली शत्रु ग्रह के साथ स्थित होकर अपने बल को कमजोर कर रहा है, तो अच्छा है। ऐसा अशुभ फलकारक ग्रह कमजोर है, जिससे कि वह पूर्ण अशुभ फल देने में असमर्थ हो जायेगा ऐसी स्थिति में भी हम उसका रत्न धारण नहीं करवायेंगे, बल्कि ऐसे ग्रह का जल प्रवाह या संबंधित पदार्थों का जल प्रवाह करवायेंगे। कभी-कभी ग्रह एक शुभ और एक अशुभ का स्वामी हो जाता है, ऐसे में संशय की स्थिति पैदा हो जाती है कि ग्रह को हम शुभ फलदायक माने या अशुभ फलदायक मानें। ऐसे में ग्रह के शुभ या अशुभ का विचार हम ग्रह की मूल त्रिकोण राशि के आधार पर करेंगे। जिस भाव में ग्रह की मूल त्रिकोण राशि होगी ग्रह 75 प्रतिशत उस भाव का फलदायक माना जायेगा और 25 प्रतिशत उसके अन्य भाव की राशि का फल देगा। ऐसी स्थिति में रत्न आवश्यकतानुसार धारण करते हैं तथा जब कार्य में सफलता प्राप्त हो जाये या संपन्न हो जाये तो ऐसे ग्रह के रत्न को उतार देना चाहिए। कभी किसी भी कारणवश यदि ग्रह के शुभ या अशुभ फलदायी का निर्धारण नहीं हो पा रहा हो तो उस ग्रह से संबंधित ग्रह का मंत्र जाप या व्रत या उपासना बतानी चाहिये, क्योंकि मंत्र जाप, उपासना, व्रत आदि ग्रह के अशुभ प्रभाव को कम करता है और शुभ प्रभाव को बढ़ाता है। ऐसी स्थिति में रत्न के बजाय रुद्राक्ष धारण करना भी उसका उपाय बताया जा सकता है। रत्न धारण से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के समाधान निम्नलिखित हैं: प्रश्न 1ः रत्न कितने वजन का धारण करें? उत्तर: सामान्यतः नियम यह है कि जातक के 10 किलो के वजन पर 1 रत्ती का रत्न धारण किया जाना चाहिए। यदि इसी को आधार मानें तो वर्तमान में व्यक्ति का औसत वजन 70 से 90 किलो के बीच होता है ऐसी स्थिति में 7 से 9 रत्ती का रत्न धारण किया जाना चाहिये। यदि नीलम या पुखराज जैसे बहुमूल्य रत्न आप जातक को बतायें तो अधिक वजन के रत्न कीमती होने के कारण या तो वह धारण ही नहीं करेगा या संशयपूर्ण स्थिति में रहेगा। अतः सामान्य तौर पर 21 वर्ष की आयु से कम के जातक को उसे 5 रत्ती तक का रत्न बताना चाहिए तथा 21 से अधिक आयु के जातक को सवा पंाच से साढ़े 6 रत्ती का रत्न धारण करवाना चाहिए। प्रश्न: 3: वजन में सवाया रत्न ही धारण करना चाहिये, पौना नहीं? उत्तर: यह धारणा बिल्कुल गलत है क्योंकि कोई भी रत्न यदि आपके लिये लाभकारी है, तो हमेशा आपको लाभ ही देगा, नुकसान नहीं। अगर नुकसान देगा तो वह गलत रत्न निर्णय के कारण दे सकता है न कि पौना वजन के कारण। वैसे भी रत्न का वजन मिलीग्राम में होता है, जिसको रत्ती में परिवर्तित किया जाता है। रत्ती कोई 180 मिलीग्राम को मानता है तो कोई 200 मिलीग्राम को, कुछ लोग 120 या 160 मिलीग्राम की रत्ती भी मान लेते हैं। उदाहरण के लिये माना कोई रत्न 950 मिलीग्राम है तो अगर 180 मिलीग्राम की रत्ती मानें तो यह सवा पांच रत्ती के लगभग होगा जो कि शुभ होगा और यदि 200 मिलीग्राम की रत्ती मानें तो यही रत्न पौने पांच रत्ती का हो जायेगा जो कि अशुभ हो जायेगा। इसलिए पौने और सवाये वजन के बारे में धारणा गलत ही है। प्रश्न 4: लग्न-राशि या चंद्र-राशि किस आधार पर रत्न निर्णय करें? उत्तर: रत्न निर्धारण के लिये लग्न राशि का आधार ही सही है क्योंकि इसी के आधार पर शुभ फलदायी और अशुभ फलदायी ग्रहों का निश्चय किया जा सकता है।