श्री राम द्वारा स्थापित ज्योर्तिलिंग रामेश्वरम मंदिर डा. भगवान सहाय श्रीवास्तव, इलाहाबाद रामेश्वरम भगवान शंकर के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। जब भगवान श्री राम सीताजी की खोज में सुग्रीव की सेना के साथ यहां आए थे और लंका पर आक्रमण करने के लिए उन्हें समुद्र पार करना था तब उन्होंने समुद्र से मार्ग चाहा, परंतु समुद्र ने उनका आग्रह ठुकरा दिया था। इस पर भगवान राम क्रुद्ध हुए और उन्होंने अग्निबाण से समुद्र को सुखा देना चाहा। तभी समुद्र ने ब्राह्मण रूप में प्रकट होकर उनसे ऐसा न करने का अनुरोध किया और उन्हें एक पुल बनवाने का सुझाव दिया। भगवान राम ने विश्वकर्मा के महान शिल्पी पुत्रों नल और नील को बुलाया। नल और नील ने अपनी शिल्प विद्या के प्रबल प्रताप से लकड़ी पत्थर को पानी पर तैरा-तैरा कर सौ योजन लंबा और दस योजन चैड़ा पुल तैयार कर दिया। श्रीराम ने लंका पर आक्रमण से पहले यहां शंकर भगवान की आराधना कर मंदिर की स्थापना की। तब प्रसन्न होकर शिव जी स्वयं पधारे और बोले, ‘‘हे रामचंद्र जी। आप के कर कमलों द्वारा स्थापित शिवलिंग के जो दर्शन करेगा, वह पापों से मुक्त होकर कैलाश पर वास करेगा। जब श्री राम के हाथों रावण का वध हो गया, तब अगस्त्य समेत सभी ऋषियों ने श्री राम से रावण वध का प्रायश्चित करने को कहा क्योंकि रावण ब्राह्मण था और ऋषि पुलत्स्य का नाती था। प्रायश्चित स्वरूप राम को शिव जी का एक ज्योतिर्लिंग स्थापित करना था। श्रीराम ने भरत और हनुमान को कैलाश जाकर शंकर भगवान से ही उनकी उपयुक्त प्रतिमा भेंट स्वरूप लाने को कहा। हनुमान कैलाश पहंुचे, लेकिन अभीष्ट मूर्ति नहीं मिली। तब उन्होंने वहीं तप करना शुरू कर दिया। इधर हनुमान जी के आने में लगातार होते विलंब से ऋषियों ने मूर्ति स्थापना का शुभ मुहूर्त गंवाना ठीक नहीं समझा। इसलिए भगवान ने ज्येष्ठ शुक्ला दशमी, बुधवार को, जब चंद्र हस्त नक्षत्र में और सूर्य वृष राशि में था, सीता माता द्वारा निर्मित, बालू के शिवलिंग की स्थाना की। यही मंदिर रामेश्वरम के नाम से जगत प्रसिद्ध हुआ। जब हनुमान जी भी एक शिवलिंग लेकर कैलाश से लौटे तो राम के प्रतीक्षा न करने पर उन्हें खेद हुआ। भक्त के भाव को भांपते हुए श्रीराम ने रामेश्वरम की बगल में ही हनुमान जी द्वारा लाए गए शिवलिंग की स्थापना की। साथ ही यह घोषणा भी की कि रामेश्वरम की पूजा करने से पूर्व भक्त हनुमान द्वारा लाए गए शिवलिंग की पूजा अर्चना की जानी चाहिए। आज दोनों लिंगों की विधिवत आराधना होती है। काले पत्थर से बने शिवलिंग को रामेश्वरम या रामनाथ नाम से पुकारा जाता है। श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग का मंदिर 1000 फुट लंबा, 650 फुट चैड़ा और 125 फुट ऊंचा है। विशाल मंदिर की वास्तुकला अद्भुत है। श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग पर गंगोत्री से लाकर गंगाजल चढ़ाने का बड़ा माहात्म्य है। रामेश्वरम मंदिर द्वीप के पूर्वी तट पर है। इसका भवन लंबा चैड़ा और छतें ऊंची-ऊंची हैं। छतों पर रंगीन चित्रकारी अत्यंत आकर्षक है। मंदिर द्रविड़ शैली और दक्षिण भारतीय वास्तु कला का बेजोड़ नमूना है। मंदिर के मुख्य द्वार पर सौ फुट ऊंचा गोपुरम है। उŸार, दक्षिण और पूर्व में तीन गोपुरम हैं। भीतरी प्रकोष्ठ में भगवान रामेश्वरम विराजमान हैं। साथ हैं उनकी शक्ति पार्वती समीप ही गरुड़ स्तंभ है, जिस पर सोने के पŸार चढ़े हैं। रामेश्वरम लिंग के गर्भगृह के पीछे माधव तीर्थ, सेतु साधना का मंदिर, गवाक्ष और नल-नील तीर्थ हैं। मूल मंदिर के सामने नंदी मंडप है। नंदी की जीभ बाहर लटकी है। मंडप के दक्षिण में शिव तीर्थ और उŸार में नवग्रहों की मूर्तियां हैं। स्वर्ण पत्तरों से सजेधजे कई ध्वज स्तंभ, चांदी के रथ और रामनाथपुरम के राजाओं की प्रतिमाएं भी हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई तीर्थ हैं जैसे माधव चक्र, अमृत, शिव, सर्व, कोटि आदि। भीगे वस्त्रों में, मिट्टी लेपकर, भक्तगण इन सभी 24 तीर्थों में क्रम से स्नान करते हैं। चक्र तीर्थ और शंख तीर्थ के मध्य रामेश्वरम के निज मंदिर की ओर जाने वाला मार्ग है। मंदिर प्रांगण मंे नंदी है। इसकी ऊंचाई 18 फुट और लंबाई 22 फुट है । नंदी से दक्षिण में शिवतीर्थ नामक छोटा सा सरोवर है। रामेश्वरम मंदिर के उŸार पश्चिम में लगभग तीन किलोमीटर दूर है गंधमादन पर्वत। रेत के ऊंचे-ऊंचे टीले हैं। जिन पर जाने के लिए सीढ़ियां हैं। सामने सागर की ऊंची उठती लहरें पर्वत की चोटियों को छूने की कोशिश करती रहती हैं। पीछे रामेश्वरम द्वीप दिखाई देता है। पर्वत पर अवस्थित मंदिर को राम झरोखा कहते हैं, और यहीं अंकित हैं राम के चरण चिह्न। सीता की खोज में लंका रवाना होने के लिए श्री हनुमान ने यहीं से ऊंची उड़ान भरी थी। श्री राम के चरण चिह्नों के करीब हनुमान की लाल रंग की दिव्य प्रतिमा है। पूर्व पश्चिम की ओर धनुष कोटि है। यहां पर प्रभु राम ने धनुष की टंकार से समुद्र को भयभीत किया था। कहते हैं, पुल बांधने का कार्य निर्विघ्न समाप्त हो, इसके लिए राम ने पूजा की थी। और पुरोहित का कार्य रावण ने किया था। आज यहां पुल नहीं है। लंका से विजय करके जब राम लौटे तो विभीषण ने शंका जताई कि पुल से तो कोई भी राजा लंका पर आक्रमण कर सकेगा। तब राम ने धनुष पर शरसंधान कर पुल को उड़ा दिया शायद इसी लिए इसका नाम धनुष कोटि भी है। धनुष कोटि का अपना धार्मिक महत्व है। महाभारत युद्ध के अठारहवें दिन रात्रि में अश्वत्थामा ने शिव जी की घोर तपस्या कर वरदान में एक करिश्माई तलवार पाई और पांडवों के डेरे में घुसकर धृष्टद्युम्न और पांचों पाण्डव पुत्रों का निद्रा में वध कर दिया। सोते क्षत्रियों के वध के घोर पाप से अश्वत्थामा पीड़ित हुआ और वेदव्यास की शरण में गया। व्यास जी के आदेशानुसार अश्वत्थामा ने धनुष कोटि में तीस दिनों तक स्नान किया जिसके परिणामस्वरूप समस्त पापों से मुक्त होकर शांति पाई। कहा जाता है कि धनुष कोटि जाकर समुद्र स्नान के बाद ही रामेश्वरम के दर्शन करने चाहिए। स्नान का विधान लक्ष्मण तीर्थ में भी है। यहां मीठे जल के 22 कूप हैं। यह तीर्थ रामेश्वरम मंदिर से 2 किलोमीटर पश्चिम है। यहां लक्ष्मणेश्वर शिवमंदिर है। यहां से लौटते समय सीता तीर्थ कुंड आता है। कुछ आगे जाकर रामतीर्थ नामक बड़ा सरोवर है। किनारे पर श्रीराम मंदिर है। रामेश्वरम के करीब 3 किलोमीटर पूर्व स्थित तंगचिमडम गांव में विल्लरपि तीर्थ है। यहां समुद्र के खारे पानी के बीच मीठे जल का कुंड है। किंवदंती है कि एक बार सीता जी को प्यास लगने पर भगवान श्री राम ने बाण की नोक से इस कुंड को उभारा था। चार दिशाओं के धामों में रामेश्वरम दक्षिण का धाम है। द्वीप पर स्थित रामेश्वर मंदिर में भक्ति व कला का अनूठा संगम देखा जा सकता है। रामेश्वरम तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से करीब 600 किलोमीटर दूर है। चेन्नई के रामनाथपुरम जिले में भारतीय सीमा के अंतिम छोर पर रामेश्वर द्वीप है। यहीं बंगाल की खाड़ी अरब महासागर से मिलती है। लगभग 25 किलोमीटर लंबी और 2.16 किलोमीटर चैड़े इस द्वीप को पुराणों में गंधमादन पर्वत के नाम से अभिहित किया गया है। श्री राम ने इस द्वीप को बसाया इसीलिए इसका नाम है रामेश्वरम रखा गया।