प्रेतकल्प :गरुड़ पुराण
प्रेतकल्प :गरुड़ पुराण

प्रेतकल्प :गरुड़ पुराण  

व्यूस : 27658 | सितम्बर 2012
प्रेतकल्प अर्थात धर्मकांड गरुड़ पुराण रेखा कल्पदेव छोटे नन्हें-मुन्ने से लेकर मौत की तरफ बढ़ रहे बड़े-बूढ़े सभी भूतों के बारे में सुनते तो हैं परंतु जानते नहीं और भूत-प्रेत के रहस्य से हमेशा आतंकित रहते हैं। लेकिन गुरुड़ पुराण ने उस सारे भय को दूर करते हुए प्रेत योनी से संबंधित रहस्यों को जीवित मनुष्यों के कर्म-फल के साथ जोड़कर संपूर्ण अदृश्य जगत का जो वैज्ञानिक आधार तैयार किया है उस सबकी विस्तृत जानकारी पाऐंगे आप इस लेख में। गरुड़ पुराण में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी धुंधुकारी के प्रेत बन जाने का वर्णन आता है। भूत-प्रेत की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं मनुष्य है। अनेक देशों की लोकप्रिय संस्कृतियों में भूत-प्रेतों का मुख्य स्थान है। सभी देशों की संस्कृतियों में भूत-प्रेतों से संबंधित लोककथाएं तथा लिखित सामग्री पाई जाती हैं। हिंदू धर्म में ‘‘प्रेत योनि’’, इस्लाम में ‘‘जिन्नात’’ आदि का वर्णन भूत-प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिंदू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व आत्मा अथवा भूत-प्रेत के रूप में होता है। भूत प्रेत का पौराणिक आधार गरुड़ पुराण में विभिन्न नरकों में जीव के पड़ने का वृत्तान्त हैं। मरने के बाद इसमें मनुष्य की क्या गति होती है, उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है, प्रेत-योनि से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है, श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा नरकों के दारूण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन है। कर्मफल अवस्था: गरुड़ पुराण’ धर्म, शुद्ध और सत्य आचरण पर बल देता है, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, कत्र्तव्य-अकर्तव्य तथा इनके शुभ-अशुभ फलों पर विचार करता है। वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त कर देता है। पहली अवस्था: समस्त अच्छे-बुरे कर्मों का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है। दूसरी अवस्था: मृत्यु के उपरांत मनुष्य विभिन्न चैरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्मानुसार जन्म लेता है। तीसरी अवस्था: कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक में जाता है। हिंदू धर्म शास्त्रों में इन तीन प्रकार की अवस्थाओं का खुलकर विवेचन हुआ है। जिस प्रकार चैरासी लाख योनियां हैं, उसी प्रकार असंख्य नरक भी हैं जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। ‘गरुड़ पुराण’ ने इसी स्वर्ग-नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इसी कारण भयभीत व्यक्ति अधिक दान-पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है। भूत योनी किसे प्राप्त होती हैं ‘प्रेत कल्प’ में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और संबंधियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताड़ित करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है। जो व्यक्ति दूसरों की संपत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राह्मण अथवा मंदिर की संपत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का विक्रय करता है; माता, बहन, पुत्र, पुत्री, स्त्री, पुत्रवधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है। उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीते-जी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषि हानि, संतान मृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है। अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है, जो धर्म का आचरण और नियमों का पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे ‘अकाल मृत्यु’ में धकेल देते हैं। ‘गरुड़ पुराण’ में प्रेत योनि और नरक में पड़ने से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक उपाय दान-दक्षिणा, पिंडदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं। सर्वाधिक प्रसिद्ध इस प्रेत कल्प के अतिरिक्त इस पुराण में ‘आत्मज्ञान’ के महत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसके लिए अपने मन और इंद्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकांड पर सर्वाधिक बल देने के उपरांत ‘गरुड़ पुराण’ में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकांड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है। आत्मज्ञान सूक्ष्म विवेचन इस पृथ्वी पर चार प्रकार की आत्माएं पाई जाती है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अच्छाई और बुराई के भाव से परे होते हैं। ऐसी आत्माओं को पुनः जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। वे इस जन्म-मृत्यु के बंधन से परे हो जाते हैं। इन्हें असली संत और असली महात्मा कहते हैं। उनके लिए अच्छाई और बुराई कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिए सब बराबर हैं। उनको सबसे प्रेम होता है, किसी के प्रति घृणा नहीं होती है। इसी तरह कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अच्छाई और बुराई के प्रति समतुल्य होते हैं यानी दोनों को समान भाव से देखते हैं, वे भी इस जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं जो साधारण प्रकार के होते हैं, जिनमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी होती है। दोनों का मिश्रण होता है- उनका व्यक्तित्व। ऐसे साधारण प्रकार के लोग अपनी मृत्यु होने के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ को उपलब्ध हो जाते हैं, किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेते हैं। ‘‘आत्माएं भी गर्भ प्राप्ति की प्रतीक्षा करती हैं’’ चैथे प्रकार के लोग असाधारण प्रकार के लोग हैं, जो या तो बहुत अच्छे लोग होते हैं या बहुत बुरे लोग होते हैं। अच्छाई में भी पराकाष्ठा और बुराई में भी पराकाष्ठा। ऐसे लोगों को दूसरा गर्भ प्राप्त करना कठिन हो जाता है। उनकी आत्माएं भटकती रहती हैं। प्रतीक्षा करती रहती हैं कि उनके अनुरूप कोई गर्भ मिले तभी वह उसमें प्रवेश करें। जो अच्छाई की दिशा में उत्कर्ष पर होते हैं, वे प्रतीक्षा करते हैं कि उनके अनुरूप ही योनी मिले। जो बुराई की पराकाष्ठा पर होते हैं वे भी प्रतीक्षा करते हैं। जिन्हें बुरी आत्मा कहते हैं, ये अतियों पर होती हैं और मृत्यु के बाद उन्हंे गर्भ प्राप्त करने में कभी-कभी बहुत ज्यादा समय लग जाता है। ये आत्माएं जो अगले गर्भ की प्रतीक्षा करती रहती हैं ये ही मनुष्य के शरीर में भूत-प्रेत का रूप लेकर प्रवेश करती हैं और उन्हें तरह-तरह की पीड़ाओं से ग्रसित करती हैं। जिसकी आत्मा जितनी ही अधिक संकल्पवान होती है, जिसका मनोबल ऊंचा रहता है, जितना ही आत्म-सम्मान का भाव जिस व्यक्ति की आत्मा में अपने प्रति प्रगाढ़ होता है, उस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर उतना ही विकसित होता है, भरा रहता है। शरीर में आपका सूक्ष्म शरीर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यही संचालित करता है। जब आत्मा का मनोबल व संकल्प शक्तिशाली होता है, खुश होते हैं, आनंद में होते हैं, अपने प्रति आत्मसम्मान से भरे रहते हैं। तब सूक्ष्म शरीर विकसित होता है, फैलता है और शरीर में पूरी तरह व्याप्त रहता है। यह सबसे बड़ा गुण है सूक्ष्म शरीर का। यही स्वरूप उस ब्रह्मा का भी है। ब्रह्मा का अर्थ होता है - विस्तार होना। जो निरंतर बढ़ता हुआ हो। इस ब्रह्मांड को ब्रह्मा से इसलिए जोड़ा गया कि यह ब्रह्मांड नित्य प्रति विस्तृत होता जा रहा है, निरंतर फैलता जा रहा है। आज के वैज्ञानिकों का भी मानना है, यह ब्रह्मांड निरंतर विस्तृत होता जा रहा है। जब संकल्प प्रगाढ़ होता है, मनोबल ऊंचा होता है, जब आत्मसम्मान के भाव से भरे रहते हैं, तो सूक्ष्म शरीर भी विस्तीर्ण होता है, बढ़ता है और शरीर को भी व्याप्त किये रहता है। ऐसे किसी भी व्यक्ति के पास जायें, तो उससे प्रभावित होते हैं। संत, महात्मा और महापुरुषों के पास आप जाते हैं, तो उनके जैसा ही सोचने लगते हैं और उनके जैसे ही होने लगते हैं क्योंकि उनके भीतर का सूक्ष्म शरीर उनके मनोबल और संकल्पशक्ति के कारण इतना विस्तीर्ण होता जाता है कि उनके शरीर के बाहर भी उसका विस्तार परिलक्षित होने लगता है। वही उस व्यक्ति की आभा होती है, वही उस व्यक्ति का प्रकाशपुंज होता है। वह आभा, और वह प्रकाश पुंज जो भीतर से फैलता हुआ बाहर को आप्लावित करता है, आपके भीतर आता है तो आप भी वैसा ही सोचने लगते हैं। हमारे भीतर संकल्प की इतनी अद्भुत व प्रचंड शक्ति है कि उसको विस्तीर्ण करने का, उसको दृढ़ करने का प्रयोग करें तो अद्भुत अनुभव होंगे। दुराचारी व्यक्ति का संकल्प भी बहुत अधिक होता है। वह अपने प्रति अपराध भाव से नहीं भरता है। वह चोरी कर रहा है, डकैती कर रहा है, दुराचार कर रहा है। उसके प्रति अपराध भाव नहीं होता हैं जब किसी का आत्मबोध, आत्मसंकल्प प्रगाढ़ होता है तो सूक्ष्म शरीर आपके शरीर को व्याप्त किये रहता है, शरीर में फैलता रहता है। फिर किसी दूसरी आत्मा को जगह नहीं मिलती है कि वह आपके शरीर में प्रवेश कर जायें। आपका सूक्ष्म शरीर विस्तीर्ण है, उसमें भूत का स्कोप ही नहीं है। ऐसा अवसर ही नहीं मिलता कि प्रेत आत्मा या कोई दूसरी बुरी आत्मा शरीर में प्रवेश कर जाये, लेकिन अगर आत्मा संकल्पहीन है, अपने प्रति भी अपराध भाव से भरे हुए हैं, हीनता-दीनता के भाव से भरे हैं, क्षण-प्रतिक्षण आप आत्मग्लानि से जल रहे हैं, किसी न किसी प्रकार के भय से भरे हैं, तो भीतर जो सूक्ष्म शरीर है, जो प्राण शरीर है वह सिकुडता जाता है, तो शरीर में खाली जगह बन जाती है और उस खाली जगह का बनना बाहर की आत्माओं को, बुरी आत्माओं को अपने शरीर में प्रवेश करने का आमंत्रण देने के समान है। जब सूक्ष्म शरीर दीनता से, हीनता के भाव से, आत्मग्लानि के भाव से सिकुड़ता है तब ये ब्रह्मांड में घूमती हुई आत्माएं शरीर में प्रवेश करने लगती हैं। कुंडली में प्रेतयोनी प्राप्ति कारण विचार कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं। कुंडली में बनने वाले कुछ भूत प्रेत बाधा योग इस प्रकार है: कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रह स्थित हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर भूत-प्रेत, पिशाच या गंदी आत्माओं का प्रकोप शीध्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती हैं। यदि किसी की कुंडली में शनि, राहु, केतु या मंगल में से कोई भी ग्रह सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी भूत-प्रेत बाधा या पिशाच या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते हैं। यदि किसी की कुंडली में शनि-मंगल-राहु की युति हो तो उसे भी ऊपरी बाधा, प्रेत, पिशाच या भूत बाधा तंग करती है। उक्त योगों में, दशा-अंतर्दशा में भी ये ग्रह आते हों और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान है। इस कष्ट से मुक्ति के लिए तांत्रिक, ओझा, मौलवी या इस विषय के जानकार ही सहायता करते हैं। कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र-राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव से मुक्त न हो। भूत-प्रेत अक्सर उन लोगों को अपना शिकार बना लेते हैं जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रहों वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है। ज्योतिष के अनुसार वे लोग भूतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में चंद्रमा और राहु के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चंद्रमा होता है तब पिशाच योग बन जाता है। यह योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है। वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और पिशाच योग के बराबर अशुभ फल देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को महत्वपूर्ण माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। पिशाच योग राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है। पिशाच योग जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है वह प्रेत बाधा का शिकार आसानी से हो जाता है। इनमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं। इनके मन में निराशात्मक विचारों का आगमन होता रहता है। कभी-कभी स्वयं ही अपना नुकसान कर बैठते हैं। लग्न, चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई ऊपरी शक्तियां उसका विनाश करने में लगी हुई हैं। और किसी भी इलाज से उसको कभी फायदा नहीं होता। जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी ऊपरी बाधा का प्रभाव जल्द होने की संभावनाएं बनती हैं।



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