प्रेम ही जीवन है.
प्रेम ही जीवन है.

प्रेम ही जीवन है.  

व्यूस : 8625 | जून 2009
प्रेम ही जीवन है निःस्वार्थ प्रेम व्यक्ति के जीवन को सही दिशा देता है, उसके व्यक्तित्व को निखारता है। कहते हैं, प्रेम बिना जग सूना। भक्त शिरोमणि हनुमान का प्रभु श्रीराम के प्रति प्रेम इसका उदाहरण है। हनुमान का यह प्रसंग मानव मात्र के लिए प्रेरणादायी है। देवी उर्मिला से जाने की आज्ञा पाकर हनुमान जब भवन से बाहर निकले और ऊपर की ओर उड़े। एक क्षण में वे पवन देव के 49 वें स्वरूप में पहुंच गये। वहां पहले स्थापित किए हुए संजीवनी पर्वत को फिर उन्होंने हाथ में धारण किया और आगे बढ़े। अयोध्या नगरी का दर्षन करने की दृष्टि से वे बहुत नीचे उड़ रहे थे। प्रेमातिरेक के कारण उनकी गति भी अनचाहे ही बहुत मंद हो गयी थी। हनुमान जी इतने नीचे हो गये कि कौशल राज्य के विशिष्ट वैज्ञानिकों द्वारा अयोध्या में स्थापित नभ छायाग्राही-यंत्र के पटल पर पर्वत सहित उनकी छाया स्पष्ट झलकने लगी। यह देखकर कर्मचारीगण तथा शत्रुघ्न जी भौंचक रह गए और इसकी सूचना जाकर भरत जी को दी। भरत जी उन सबकी बात सुन अपनी कुटी में गए तथा प्रभु स्वरूप पादुकाओं को प्रणाम कर अपना धनुष उठाया और अपने प्रभु को पुनः प्रणाम कर बाहर निकले। उधर भरत जी का कुटी के भीतर जाना हनुमान जी को अच्छा नहीं लगा था। वे उन्हें कुछ और समय तक स्नेहपूर्वक देखना चाहते थे। किंतु जब भरत जी कुटी के बाहर आये, तब परिस्थिति एकदम भिन्न हो गयी। हनुमान जी ने देखा कि भरत जी धनुष पर बाण रखकर उन्हीं की ओर लक्ष्य साध रहे हैं। उनकी समझ में कारण तो कुछ नहीं आया, किंतु उन्होंने निश्चय किया कि मैं श्री भरत जी के लक्ष्य को व्यर्थ सिद्ध नहीं करूंगा और उनके प्रहार को सहर्ष सहन करूंगा। उन्होंने विचार किया कि चाहंू तो भरत जी के बाण को तिनके की तरह तोड़कर फेंक सकता हूं, किंतु जब ब्रह्मा जी का मान रखने के लिए मेघनाद द्वारा छोड़े ब्रह्मबाण को मैंने नहीं तोड़ा, तब ये तो मेरे प्रभु श्रीराम के लघु भ्राता हैं। मैं इनके बाण से नीचे गिरूंगा और अचेत होने के नाटक भी करूंगा। जैसी प्रभु की इच्छा। किंतु इस लीला में संजीवनी पर्वत को उलझाना ठीक नहीं। अतः उन्होंने तनिक सा बल लगाकर पर्वत को ऊपर उछाल दिया, जो संकल्प मात्र से पवन देव के 49वें स्वरूप में जाकर स्थित हो गया। इधर हनुमान जी ने पर्वत को ऊपर उछाला और उधर भरत जी का बाण सनसनाता हुआ इनकी ओर चला। पास आने पर हनुमान जी ने बाण को दोनों हथेलियों के बीच में लेकर मस्तक से लगा लिया। इस प्रकार उन्होंने भरत जी को भक्ति-सहित सांकेतिक प्रणाम किया। फिर उन्हें स्मरण हुआ कि अभी तो बहुत सी लीला करनी है। तत्काल उन्होंने बाण को अपनी दायीं जंघा के भीतर थोड़ा प्रवेश करा दिया और नख से खुरच कर दो-चार बूंद रक्त भी निकाल लिया। इतना करके वे कुटी के पास धड़ाम से गिर पड़े और अचेत हो गये। बहुत प्रयत्न करने पर जब वानर की मूच्र्छा दूर नहीं हुई, तब भरत जी को बड़ी ग्लानि हुई। वे सोचने लगे कि लोग मुझे श्रीराम का भक्त समझते हैं और कदाचित मेरे मन में भी कुछ ऐसा ही भाव है, किंतु कोई राम-भक्त किसी भी प्राणी को तनिक भी पीड़ा पहंुचाने की कल्पना भी नहीं करेगा, एक राम-भक्त को बाण मारना तो बहुत दूर की बात है। ठीक है, आज मैं अपनी राम-भक्त को दांव पर लगा दूंगा। फिर वे सबको सुनाते हुए बोले, ‘‘यदि मन-वचन-कर्म से श्रीराम के प्रति मेरा निष्कपट प्रेम है और यदि श्रीराम मेरे अनुकूल हैं, तो इस वानर की पीड़ा और मूच्र्छा दूर हो जाये।’’1 गोस्वामी तुलसीदास जी ने भरत जी के इस भाव को चैपाई छन्द में इस प्रकार व्यक्त किया है- (रा.च.मा. लंकाकाण्ड) अब हनुमान जी ने विचार किया कि मेरे प्रभु की कृपा तथा उनके परम भक्त भरत जी की राम-भक्ति की प्रतिष्ठा जब दांव पर लग गयी, तब मुझे यह नाटक समाप्त कर देना चाहिए। अतः ‘जय श्रीराम’ कहकर उन्होंने नेत्र खोल दिये और उठकर बैठ गये। तब वे चारों तथा भरत जी विशेष आनंदित हुए। उन्होंने हाथ जोड़कर हनुमान जी से कहा, ‘’कपिवर! मैं आपका अपराधी हूं। मैंने बाण मारकर आपको नीचे गिरा लिया। इसके लिए आप जो भी दंड देंगे, वह मुझे स्वीकार होगा।‘’ हनुमान जी भरत जी के जुड़े हुए हाथों को अलग करते हुए बोले, ‘‘ऐसा न कहें प्रभो! आप मेरे अपराधी नहीं, मेरे स्वामी हैं। मैं प्रभु श्रीराम का एक तुच्छ दास हूं और आप उनके परम प्रिय लघु भ्राता हैं। इसीलिए आप भी मेरे स्वामी हैं। आवश्यक होने पर यदि स्वामी अपने सेवक को किंचित् ताड़ना दें, तो वह अपराध नहीं कहलाता।’’ ऐसा कहकर वे भरत जी के चरणों की ओर झुके। किंतु भरत जी ने बीच में ही बलात् उनका हाथ पकड़कर उन्हें बाहु-पाश में आबद्धकर लिया। हनुमान जी ने भी अलग होने का प्रयास नहीं किया, क्योंकि उन्हें वही आनंद मिल रहा था, जो आनंद उन्हें एक समय श्रीराम के आलिंगन में बद्ध होकर मिला था। कुछ क्षण बीतने पर भरत जी ने आदर पूर्वक हनुमान जी से कहा ‘‘आप अपना पूर्ण परिचय देने की कृपा करें और यह भी बताएं कि प्रभु श्रीराम से आपकी भेंट कब, कैसे और कहां हुई?’’ हनुमान जी ने किष्किंधा से लेकर लंका तक के सारे प्रसंग ‘संक्षेप में, सुना दिये। भरत जी तो सब कुछ भूल गये और रोने लगे। महामंत्री आदि भी दुख से विहाल हो उठे। तभी अयोध्या की ओर से एक रथ आता दिखाई पड़ा। शत्रुघ्न कुछ अचंभित होकर उस ओर चले। इधर भरत जी रोते-रोते दुःख और ग्लानि के कारण विलाप करने लगे, ‘‘हाय, मैं कितना बड़ा पापी हूं कि वहां कौशल राज्य की राजरानी का अपहरण हो गया, प्रभु श्रीराम लंका पर आक्रमण करना पड़ा, मेरा प्यारा भाई लक्ष्मण रण भूमि में अचेत पड़ा है और उसे जीवित करने के लिए संजीवनी ले जाने वाले को मैंने बाण मार कर नीचे गिरा लिया। कुछ सहायता तो कर नहीं सका, उल्टे बाधक बन गया। भैया के वनवास का मूल कारण मैं ही हूं। न वे वन जाते, न यह महान संकट उन पर पड़ता। मैं उनके किसी काम नहीं आया। फिर मैं संसार में पैदा ही क्यों हुआ?’’1 हनुमान जी ने अत्यंत प्रेम से भरत जी को धैर्य बंधाते हुए निवेदन किया, ‘‘प्रभो! आप अधीर न हों और ग्लानि का भाव सर्वथा त्याग दें। आप निश्चित रूप से समझ लें कि प्रभु श्रीराम को आपसे अधिक प्रिय कोई भी नहीं है। प्रायः आपका स्मरण करते-करते उनके नेत्र सजल हो जाते हैं। रही संकट की बात, सो आप स्वयं जानते हैं कि वे संसार का संकट? मैं तो समझता हूं कि यह सब कुछ उनक लीला है।’’ गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार- अहह दैव मैं कत जग जाएउं। प्रभु के एकहु काज न आयउं।। (रा.च.मा. लंकाकाण्ड) हनुमान जी की बातों से भरत जी का मन कुछ हल्का हुआ। अब उनका ध्यान अपने कर्तव्य की ओर गया। उन्होंने सेनापति की ओर देखकर आदेश दिया, ‘‘आप हमारी चतुरंगिणी सेना को अति शीघ्र सुसज्जित कीजिए।’’ फिर उन्होंने सुमंत्रजी से कहा, ‘‘मान्य महामंत्री जी! आप हमारे सभी मित्र राजाओं के पास द्रुतगामी दूतों को भेज कर हमारा संदेश कहलाएं कि सभी अपनी सेना के साथ शीघ्र से शीघ्र अयोध्या आ जाएं। उनके आते ही हम लंका की ओर प्रस्थान कर देंगे। उस अभिमानी-दुष्ट रावण को हम बता देंगे कि कौशलेंद्र श्रीराम अकेले नहीं हैं, उनके पीछे त्रिलोकी को भी जीत सकने वाली एक अजेय शक्ति है।’’ हनुमान जी ने विनीत भाव से कहा, ‘‘आप का कहना नितांत सत्य है। मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि आप अकेले ही उस अधम राक्षस का वध कर सकते हैं। फिर भी ससैन्य आपको वहां जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अनेक कारण हैं। पहला यह कि यदि आप अपनी सारी सेना और सभी मित्र राजाओं के साथ लंका चले गये और बाद में किसी शत्रु राजा ने अयोध्या पर आक्रमण कर दिया, तब प्रजा की रक्षा कौन करेगा? प्रभु श्रीराम ने अपने राज्य का प्रबंध-भारत आपको सौंपा है। उनका राज्य नष्ट-भ्रष्ट हुआ, तो आप उन्हें क्या उŸार देंगे? आप सच मानिए, वहां प्रभु के सेवकों में कुछ ऐसे वानर-भालू हैं, जो एक ठोकर से पूरी लंका को उखाड़कर दूर फेंक सकते हैं, किंतु प्रभु की आज्ञा पाए बिना ऐसा नहीं कर रहे हैं। ‘‘दूसरा कारण यह कि आपके वहां जाने का अर्थ होगा कि परम तेजस्वी श्रीराम की अपार शक्ति का आपको ज्ञान नहीं है और यदि ज्ञान है, तो विश्वास नहीं है, तभी तो सहायता के लिए जा रहे हैं। ‘‘तीसरा कारण, निस्संदेह प्रभु श्रीराम रावण को मारकर परम पूजनीय, रघुकुल की राजलक्ष्मी, जगज्जननी सीताजी को प्राप्त करेंगे। तीनों लोकों में श्रीराम की कीर्ति-पताका फहरेगी। देव, मुनि और नर-नारी उनके यश का गान करेंगे। सेना सहित आपके वहां जाने से कुछ लोग कह सकते हैं कि यदि भरत जी सहायता के लिए जाते, तो राम की विजय न होती। तब आपकी कीर्ति फैलेगी। अब आप बताइए कि आप प्रभु श्रीराम कीर्ति चाहते हैं या अपनी?’’ यह सुनते ही भरत जी एकदम व्याकुल हो गये और रोते हुए बोले, ‘‘नहीं-नहीं, ऐसा न कहिए हनुमान जी। मुझे कीर्ति नहीं चाहिए, स्वप्न में भी नहीं। भैया राम की अतुलित शक्ति का मुझे पूरा ज्ञान है और विश्वास भी है। आपकी सब बातें यथार्थ है। मेरा विचार ठीक नहीं था। मैं नहीं जाऊंगा। किंतु आपको मेरी एक बात माननी होगी। ‘‘हनुमान जी ने पूछा, ‘‘कौनसी?’’ भरत जी ने कहा, ‘‘आपने संजीवनी पर्वत जहां स्थापित किया है, वहां से उसे ले आइए। फिर पर्वत-सहित मेरे बाण पर आप बैठ जाइए। मैं क्षण मात्र में आपको श्रीराम के पास पहुंचा दूंगा’’1 हनुमान जी बोले, ‘‘मैं अच्छी तरह जानता हूं कि आप ऐसा कर सकते हैं, किंतु इसकी आवश्यकता नहीं है। आप विश्वास कीजिए, श्रीराम की कृपा और आपके आशीर्वाद से मैं आपके बाण की गति से ही लंका पहंुच जाऊंगा। मैं पवन पुत्र हूं। मेरी गति को अवरुद्ध करने की शक्ति किसी में नहीं है।’’ भरत जी ने कुछ संकुचि होकर कहा, ‘‘राम-भक्त-शिरोमणि! आपकी बात से मैं निरुŸार हो जाता हूं। आप शक्ति और ज्ञान के पुंज हैं। आपके तर्क अकाट्य होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार- चढु मम सायक सेल समेता। पाठवौं तोहि हं कृपानिकेता।। (रा.च.मा. लंकाकाण्ड) हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘ऐसा न कहें भगवन्! मैं तो एक डाल से दूसरी डाल पर छलांग लगाने वाला शाखा मृग हूं। मुझमें जो भी गुण हैं, सब दयालु हैं प्रभु श्रीराम जी द्वारा प्रदŸा हैं।’’ अन्य ग्रहों के साथ अपने गुरुदेव सूर्य नारायण को देखकर हनुमान जी स्थिर हो गये और उन्हें प्रणाम किया। सूर्य देव मुस्कराते हुए बोले, ‘‘आज हम आपका प्रणाम स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हम सब आपका पूजन-अभिनंदन करने के उद्देश्य से यहां आए हैं।’’ ‘‘ऐसा न करें भगवन! मैं आपका शिष्य हूं। आप मेरे शिक्षा-गुरु हैं।’’ गुरु तो वशिष्ठ जी भी श्रीराम के हैं, किंतु एकांत में वे श्रीराम की चरण-वंदना करके उनकी भक्ति का वरदान मांगते हैं और बाहर सबके देखते हुए श्रीराम के प्रणाम करने पर उन्हें आशीर्वाद देते हैं। यहां एकांत ही है। ये सब ग्रह मेरे अंग-तुल्य हैं, पराये नहीं हैं।’’ सर्वविदित मूल 1 ग्रह तथा अतिरिक्त 3 ग्रह (हर्षल, नेप्च्यून और प्लूटो) मिलकर कुल 12 ग्रह होते हैं। ‘‘आपका कहना यथार्थ है गुरुवर, किंतु इस समय तो मैं अत्यंत आवश्यक कार्य से लंका जा रहा हूं। समय बीत गया, तो वहां महान अनर्थ हो जाएगा।’’ इस पर इन्द्र देव बोल पड़े, ‘‘हे मारुत! आप अपने मूल स्वरूप को छिपाकर हमें बहलाने का प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु हम जानते हैं कि आप रुद्रावतार होने कालातीत हैं, महाकाल हैं। बेचारे काल (समय) में इतनी सामथ्र्य कहां, जो बीतकर महाकाल के कार्य में बाधा बहुंचा सके।’’ मंगल ग्रह ने भी कहने का साहस किया, ‘‘शिव के सगुण रूप पवन नंदन! लंका की दूरी भी आपके लिए क्या? आप विराट रूप हैं। वेदों में वर्णित विराट पुरुष आप ही हैं। आप चाहें तो अपना एक पग यहां रखते हुए दूसरा पग लंका में रख सकते हैं। स्मरण कीजिए, आपने दो पग में तीनों लोक नाप लिये थे। बेचारे बलि दैत्य को आपका तीसरा पग अपने मस्तक पर रखना पड़ा था फिर लंका जल्दी पहंुचने की बात एक बहाना ही है।’’1 चंद्र देव आगे बोले, ‘‘हे वायुनंदन! आप तो रघुनंदन भगवान श्रीराम के परम भक्त तथा सदा उनके सन्निकट रहने वाले हैं, अतः उनकी सभी बातों से परिचित है। उनके जन्म के समय की अद्भुत घटना का स्मरण कीजिए। श्रीराम जन्म के समय की अद्भुत घटना का स्मरण कीजिए। श्रीराम-जन्म का समाचार नगर में फैलते ही अयोध्या की सारी प्रजा उमंग से झूम उठी। केवल राजप्रासाद में ही नहीं, वरन् घर-घर में उत्सव मनाए जाने लगे। जन- समूह रूपी सागर में आनंद की तरंगें हिलोरें मारने लगी। मध्य दिवस की पावन बेला थी। भगवान भास्कर ने अपना आधा मार्ग ही पूरा किया था कि अवधवासियों का उत्साह तथा आनंद देखकर वे थकित हो गये, उनसे आगे बढ़ा ही नहीं गया। घड़ी-दो-घड़ी नहीं, पूरा एक महीना बीत गया और सूर्यदेव अपने रथ पर बैठे हुए मंत्र मुग्ध की भांति श्रीराम-जन्मोत्सव देखते रहे। एक मास का समय बीतने पर उन्हें चेत हुआ और आगे बढ़े। अयोध्या की जनता भी इस रहस्य को नहीं जान सकी कि एक दिन एक मास के बराबर हो गया। वही सूर्यदेव आपसे कुछ समय रुकने की प्रार्थना कर रहे हैं और आप समय के अभाव की बात कर रहे हैं।’’1 बुध ग्रह की भी कुछ बोलने की इच्छा हुई। उन्होंने कहा, ‘‘महाभाग हनुमान जी! आपने हम सब पर जो उपकार किया है, उसके लिए हम सभी आपके ऋणी रहेंगे।’’ हनुमान जी ने सहज भाव से पूछा, ‘‘मैंने कौनसा उपकार किया है आप पर? इसका उŸार दिया शुक्र ग्रह ने, ‘‘उपकार करके भूल जाना महापुरुष का लक्षण है। शिव और विष्णु अभिन्न हैं। श्री शिवजी का कथन- अर्थात् मेरे हृदय में विष्णु हैं और विष्णु के हृदय में मैं हूं। जो इन दोनों में अंतर नहीं समझता, वही मुझे विशेष प्रिय है। (शिव पुराण, रुद्र संहिता, सृष्टि खंड, अध्याय 8, श्लोक 56) गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है- अर्थात् तीस दिनों का एक दिन हो गया, किंतु इस रहस्य को कोई जान नहीं सका। रथ समेत सूर्य नारायण स्थिर हो गये, तब उनके रहते रात्रि कैसे हो सकती है। किंतु जिस पर उपकार किया गया हो, वह भूल जाए, तो उसे कृतघ्न कहा जाता है। हम कृतघ्न नहीं, कृतज्ञ होना चाहते हैं। अधर्मी, अहंकारी और क्रूर रावण ने अपने तांत्रिक बल से हम सबको बंदी बना लिया था। उसकी आज्ञा के बिना हम हिलडुल भी नहीं सकते थे। उसे तंत्र-शास्त्र के अपने ज्ञान पर बड़ा गर्व था। उस गर्व को आपने अपने तांत्रिक प्रयोग से चूर्ण कर दिया। शबरी भीलनी के बेरों की गुठलियों से उत्पन्न वृक्षा की 84$33=117 पŸिायों को तोड़कर आपने पर्वत की संजीवनियों का सिंचन किया। बस, इसी तांत्रिक प्रयोग से रावण का तंत्र बंधन कट गया और हम सब उस दुष्ट के चंगुल से मुक्त हो गये। क्या आपका यह उपकार क्रूर है?’’ वृहस्पति ग्रह बोले, ‘‘आपका पूजन-वंदन करके हम अपनी कृतज्ञता प्रकट करना चाहते हैं।’’ हनुमान जी किस-किस को उŸार देते। विनम्रता से उन्होंने मस्तक झुका लिया। सूर्यदेव समझ गये कि हनुमान जी ने अपना पूजन कराना स्वीकार कर लिया है। फिर क्या था, संकल्प करते ही पूजन की दिव्य सामग्रियों से भरा थाल उनके हाथ में आ गया। सभी ने मिलकर रुद्रावतार विराट पुरुष की विधिवत् पूजा की, उनके ऊपर दिव्य-सुंगधित पुष्पों की वर्षा की, उन्हें सादर प्रणाम किया और श्रद्धा-सहित उनकी परिक्रमा की। पूजन के बाद ग्रह शनि देव ने एक घोषणा की, ‘‘हे आंजनेय! हमारी कृतज्ञता का दूसरा रूप यह है कि जिस व्यक्ति के प्रति किसी एक ग्रह अथवा अनेक ग्रहों की प्रतिकूलता हो और यदि वह व्यक्ति आपके माध्यम से हमारा पूजन करेगा, तो सारी प्रतिकूलता पूर्ण अनुकूलता में बदल जाएगी। हम यह वचन देते हैं और सदैव इसका पालन करेंगे।‘‘ अन्य ग्रहों ने भी इस घोषणा को सहर्ष स्वीकार किया। अंत में सूर्य देव ने कहा, ‘‘हे सर्व समर्थ पवन पुत्र! अब मैं आपको वह विद्या प्रदान करूंगा, जिसके द्वारा किसी भी वस्तु को सोना बनाया जा सकता है। मैं जानता हूं कि आपको स्वर्ण की कोई आवश्यकता नहीं है। आ तो स्वयं ‘स्वर्ण शैलाभ देहं’ हैं। किंतु इससे आपके अर्थार्थी भक्त लाभान्वित होंगे। मेरी किरणों में प्रत्येक वस्तु को स्वर्ण बना देने की क्षमता है, किंतु इसके लिए यह ज्ञान अथवा विधि जानना आवश्यक है कि किस वस्तु में किस कोण से मेरी किरणें पड़ने पर वह वस्तु स्वर्ण में परिवर्तित हो जाती है। वह विधि मैं आपको अर्पित कर रहा हूं। आपका जो भी भक्त अपनी उपासना से आपको प्रसन्न कर लेगा, वह भी इस विधि को जान जाएगा।’’ तब सबसे आदर पूर्वक विदा मांगकर हनुमान जी लंका की ओर उड़ चले।



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