उत्कृष्ट वास्तु का प्रतीक : महामाया मंगलागौरी मंदिर
उत्कृष्ट वास्तु का प्रतीक : महामाया मंगलागौरी मंदिर

उत्कृष्ट वास्तु का प्रतीक : महामाया मंगलागौरी मंदिर  

व्यूस : 10528 | जून 2009
उत्कृष्ट वास्तु का प्रतीक महामाया मंगलागौरी मंदिर डाॅ. राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’ आदि अनादि काल से धर्मसम्मत रहे भारत भूमि में कितने ही मंदिर, मस्जिद चर्च व गुरुद्वारा शोभित है यह सटीक बताना कोई आसान थोड़े ही है पर इनका समृद्ध संसार यंत्र-तंत्र सर्वत्र दृष्टिगत होता है। देश के प्रचीनतम् सभ्यता-संस्कृ ति के स्वर्णीय गवाह इन मंदिर को किसी-किसी तीर्थ स्थल में वास्तु-शास्त्र के अनुरूप बनाया गया है इसमें तीर्थ नगरी गया की मंगलागौरी का विशिष्ट स्थान है। मगध प्रदेश का हृदय केंद्र गया नगर के दक्षिण क्षेत्र में गया-बोध गया जाने वाले पुराने मार्ग पर विराजमान भष्मदूत पर्वत शिखर पर शोभायमान मां की मंदिर की यह वास्तु शास्त्रीय प्रभाव है कि कोई भी भक्त जो यहां पहली बार आता है यहीं का होकर जाता है। मंगलागौरी मंदिर जमीन तल से तकरीबन 110 फीट ऊंचाई पर अव्यस्थित है जो दो तल विभाज्य पूर्वाभिमुख है। मंगलागौरी के उŸार में जनार्दन देव (अविमुक्तेश्वर नाथ) तथा पुण्डरीकाक्ष मंदिर जैसे वैष्णव तीर्थ हैं तो मंदिर के दक्षिण-पश्चिम कोण पर पुरातन मोक्ष तरु अक्षयवट की स्थिति है। माॅ के मंदिर के चातुर्विक शिवशंकर के पूजन स्थान समृद्ध हैं जिनमें पूर्वी ढलान पर स्थापित ‘श्री मार्कण्डेय’ महादेव मंदिर के अलावे पर्वतीय शिखर पर स्थापित ‘मात्मेश्वर महादेव’ व ‘मंगलेश्वर महादेव’ के साथ-साथ दूसरे तरफ स्थापित ‘वृद्धपरपिता महेश्वर मंदिर,’ ‘कोटेश्वर महादेव’ व ‘वटेश्वर महादेव’ का सिद्ध स्थल है। यह मंदिर प्रत्येक कोण पर उसके इष्ट देवता के पूजन स्ल के साथ शोभित है जो वास्तु नियम के सर्वथा अनुकूल है। मां के मंदिर के आठो कोणों पर देवी-देवताओं के स्थान मातृपीठ को प्रारंभ काल से ही प्रभावकारी बना रहा है। मंदिर के पहले मार्ग में ही श्री भैरव नाथ का विशाल मंदिर विराजमान है। मंदिर की पश्चिम व नैत्य दिशाएं पहाड़ियों से घिरी हैं तथा ईशान कोण में एक प्राकृ तिक तालाव है। मंदिर तक जाने के लिए मुख्य मार्ग पर बना सिंह द्वार भी वास्तु नियम के अनुरूप है जिसमें चैड़ाई के दुगुणा रूप में ऊंचा शिखर है जो अति शुभ है। इसमें वड़ाकार पहियों पर वास्तुशास्त्रीय अंकन इसकी महŸाा को और बढ़ा रहा है। फेंगशुई का एक सामान्य सिद्धांत है कि यदि पहाड़ के मध्य में कोई भवन बना हो जिसके पीछे पहाड़ी की ऊंचाई और आगे के तरफ ढलान हो साथ ही ढलान के बाद जल स्त्रोत जैसे कि कुंड, तालाब, नदी इत्यादि हो तो उस भवन की प्रसिद्धि सदियों तक बनी रहती है। गया की मंगलागौरी मंदिर क्षेत्र इस नियम पर एकदम सटीक स्थापित होता है जो ब्रह्मयोनि पर्वत के ढलान भाग में विराजमान भष्मइत पहाड़ी पर अवस्थित है जिसके आगे गया के पवित्र पुनीत सप्तकुड़ों में एक वैतरणी और आगे अंतः सलिला फल्गु बहती है। आज भले ही मंगलागौरी मंदिर परिसर में दो-दो शिव मंदिर विद्यमान हैं पर पुराकाल में (मुगलकाल तक) यहां एक ही शिव मंदिर की उपस्थिति भी जिसमें स्थापित शिवलिंग का अरघा (आधारीय तल) अष्ट कोणीय है और फेंगशुई में अष्टकोणीय आकृति के देव स्थल को अत्यधिक शुभ माना जाता है। भारतवर्ष के कुछ अन्य देव स्थल यथा तिरुपति का बालाजी मंदिर, नाथ द्वारा का श्रीनाथ देव मंदिर, उज्जेन का महाकालेश्वर देवालय, कोर्णाक (उड़ीसा) का सूर्य मंदिर, वाराणसी का काशी, विश्वनाथ मंदिर, विद्यालय का माॅ विन्ध्यवासिनी मंदिर, जम्मू का श्री वैष्णो देवी, कामाख्या का माॅ कामाख्या मंदिर आदि की भांति गया की मंगलागौरी माॅ का धाम वास्तु शास्त्र के नियमों पर निर्मित होने के कारण दूर-देश तक प्रख्यात है। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि मगध के पुरातन देवी तीर्थों में सर्व प्रसिद्ध गया का यह तीर्थ वास्तुशास्त्र के नियमों पर ही मूल रूप से निर्मित है। यही कारण है कि स्थापना काल से लेकर आज तक यह पूरे प्रदेश के मंदिर का मेरु शिखर बना हुआ है।



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