वैदिक दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है। इसका कभी भी नाश नहीं होता। केवल कर्मों के अनादिप्रवाह के कारण आत्मा अनेकानेक योनियां बदलती रहती है। अनादिकालीन कर्मप्रवाह के कारण आत्मा का सूक्ष्मशरीर (लिंग शरीर), कार्मण शरीर एवं स्थूल (भौतिक) शरीर के साथ संबंध रहता है। जब एक समय में आत्मा भौतिक शरीर का त्याग करती है तब वह सूक्ष्म शरीर1 में रहती है और कार्मण-शरीर की सहायता से कर्मानुबंध के अनुसार पुनः नया भौतिक शरीर प्राप्त कर जन्म लेती है। इस प्रकार जन्म एवं मृत्यु का अनवरत चक्र चलता रहता है।
कर्म करने के बाद कर्ता को अनिवार्य रूप से मिलने वाला उसका परिणाम (फल) कर्मानुबंध कहलाता है। यही कर्मानुबंध कृतकर्मों के शुभाशुभत्व के अनुसार आत्मा को इष्टानिष्ट योनियों में ले जाता है। आत्मा की स्वतंत्रता या वशीत्व कर्म करने मात्र में है। वह जैसा चाहे अच्छा या बुरा कर्म करे किंतु कर्म करने के बाद वह उसके अपरिहार्य फल से अनुबंधित हो जाती है। तात्पर्य यह है कि आत्मा कर्म करने या न करने में पूर्वरूपेण स्वतंत्र है। किंतु कर्म करने के बाद उसके अपरिहार्य फल को भोगने में वह स्वतंत्र नहीं अपितु परतंत्र है क्योंकि किये गये कर्मों का फल भोगे बिना उनका क्षय नहीं होता।
2 जन्मांतरों में किये गये कर्मों के फल को दैव या भाग्य कहते हैं।
3 उसको भोगने के लिए वर्तमान जीवन की समयावधि आयु कहलाती है। जन्मकुंडली में नवम स्थान दैव या भाग्य का प्रतिनिधि होता है और इसके व्यय के भोग का सूचक अष्टम स्थान होता है। अतः भाग्य का व्यय या जन्मांतरों के प्रारब्ध कर्मों के भोग का प्रतिनिधित्व करने के कारण अष्टम स्थान आयु का स्थान माना गया है। वस्तुतः प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए इस जन्म में प्राणी को जो जीवनकाल मिलता है
वह उसकी आयु कहलाती है। इसीलिए भाग्य स्थान के व्यय स्थान को आयु का तथा आयु के व्यय स्थान को मारक (मृत्यु का) स्थान माना जाता है। जन्मकुंडली में अष्टम स्थान तथा उससे अष्टम-अर्थात तृतीय स्थान ये दोनों आयु के स्थान कहलाते हैं। इसका एक कारण यह है कि संघर्ष एवं पराक्रम ही जीवन है और इनके बिना जीवन मृतक समान है। जीवन का अस्तित्व संघर्ष एवं पराक्रम में ही दिखलाई देता है। चूंकि अष्टम स्थान संघर्ष का तथा तृतीय स्थान पराक्रम का प्रतिनिधि स्थान है अतः ये दोनों आयु के स्थान माने जाते हैं।
4 आयु या जीवन की समाप्ति का नाम मृत्यु है। यह एक ऐसी अनिवार्य एवं अपरिहार्य घटना है जिसमें वर्तमान जीवन का अस्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है। यद्यपि आत्मा की अनेकानेक योनियों में विचरण की श्रृंखला में यह घटना परिवर्तन मात्र ही है किंतु यह एक ऐसा परिवर्तन है जो वर्तमान जीवन के अस्तित्व को नष्ट कर उसे भूत में विलीन कर देता है। वस्तुतः मृत्यु वर्तमान जीवन की सत्ता को समाप्त कर देने वाली घटना है। अतः कुंडली में आयु के प्रतिनिधि अष्टम एवं तृतीय इन दोनों स्थानों के व्ययस्थान -अर्थात सप्तम एवं द्वितीय स्थान को मारक स्थान कहते हैं।
5 कुंडली के द्वादश भावों में से सप्तम एवं द्वितीय भाव को ही मारक क्यों माना गया? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए इन दोनों भावों के गुण-धर्म एवं प्रतिनिधित्व का विचार करना आवश्यक है। ज्योतिष शास्त्र में सप्तम भाव स्त्री का तथा द्वितीय भाव धन का प्रतिनिधि माना गया है।
6 इस संसार में धन एवं स्त्री ये दोनों झगड़े एवं हत्या की जड़ हैं। यदि महाभारत में से द्रोपदी एवं रामायण में से सीता को अलग कर दिया जाए तो दोनों महाकाव्यों का कथानक पूर्ण विराम के आस-पास चला जाता है। पूरी तटस्थता एवं शालीनता के साथ विचार कर यह कहा जा सकता है कि महाभारत जैस भीषण युद्ध के मूल में द्रोपदी तथा राम-रावण के भयानक युद्ध में सीता, शूर्पनखा, कैकेयी एवं मंथरा आदि की भूमिका प्रमुख कारण रही है।
संयोगिता, पद्मावती, नूरजहां आदि के कारण कितने युद्ध एवं हत्याकांड हुए? इतिहास इसका साक्षी है। यदि हम अपने पारिवारिक जीवन पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट रूप से दिखलाई देता है कि जब तक परिवार में दो, तीन या अधिक भाई कुंवारे रहते हैं तब तक उनमंे अटूट प्रेम रहता है। किंतु शादी के बाद पता नहीं यह अटूट प्रेम कहां चला जाता है? कई बार भाई अपने भाई का जानी दुश्मन बन जाता है। इस नयी स्थिति को कौन पैदा करता है? आज सभी लोग इससे अच्छी तरह परिचित हैं।
परिवार के आपसी झगड़े-झंझट एवं विघटन में सास-बहू, ननद-भाभी या देवरानी-जिठानी की भूमिका युगों-युगों में प्रमुख रही है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही संभवतः शास्त्र के चिन्तकों ने सप्तम (स्त्री) स्थान को मारक स्थान माना है। द्वितीय स्थान धन स्थान होने के कारण सभी अनर्थों की जड़ है। संसार में अधिकतम अपराध, हत्या एवं माफिया गतिविधियां इसी के लिए होती हैं और इसी से संचालित होती हैं।
धन-सम्पत्ति का प्रलोभन इतना प्रबल है कि इस में फंस कर व्यक्ति चोरी, डकैती, हत्या, अपहरण या सामूहिक नरसंहार जैसा कोई भी भीषण या वीभत्स काम कर सकता है। संभवतः इन्हीं कारणों को ध्यान में रखकर इस शास्त्र के प्रणेताओं ने धन स्थान को मारक स्थान माना है। मारक प्रसंग में सप्तम स्थान की तुलना में द्वितीय स्थान अधिक बलवान मारक स्थान होता है। धन पति-पत्नी में, पिता-पुत्र में, भाई-बहनों में, यार-दोस्तों में तथा नाते-रिश्तेदारों में, जो एक दूसरे पर जी-जान देने को तैयार रहते हैं, झगड़े-झंझट, मार-पीट एवं हत्या आदि सभी कुछ करवा सकता है।
चाहे इतिहास हो या वर्तमान, धन के लिए सदैव भीषण एवं जघन्य कांड होते रहते हैं। सिकंदर, हिटलर, नैपोलियन एवं मुसोलिनी के विश्वविजयी बनने के सपनों के पीछे प्रेरक तत्व क्या था? मोहम्मद गौरी, महमूद गज़नवी, चंगेज़ खान, नादिरशाह एवं अहमद शाह अब्दाली के बार-बार भारत पर आक्रमण तथा वीभत्स नरसंहार का उद्देश्य क्या था?
केवल धन की लूट-खसोट तथा उस पर एकाधिकार करना। वह धन चाहे गांव में रहने वाले किसान का हो, हवेली में रहने वाले अमीर का हो, तख्तेताऊस पर बैठने वाले बादशाह का हो या मंदिर में ईश्वर के नाम पर रखा हुआ हो- यह धन ही सदैव से हत्या की जड़ रहा है। इसीलिए पराशर ने धन स्थान को सप्तम स्थान से अधिक प्रबल मारक स्थान माना है।
7 मारक ग्रह: जन्मकुंडली के योगों तथा अंशायु आदि की रीति से आयु की संभावना की जानकारी कर लेने के बाद मारक ग्रहों का विचार किया जाता है। योग आदि से निर्णीत संभावना काल में जिस मारक ग्रह की दशा-अंतर्दशा मिलती हो वह मारकेश कहलाता है। मारकेश ग्रह का निर्णय करने के लिए लघुपाराशरी में उनकी एक वरीयता क्रम से सूची बतलायी गयी है8 जो इस प्रकार है:
1. द्वितीयेश
2. सप्तमेश
3. द्वितीय भाव में स्थित त्रिषडायाधीश
4. सप्तम भाव में स्थित त्रिषडायाधीश
5. द्वितीयेश से युत त्रिषडायाधीश
6. सप्तमेश से युत त्रिषडायाधीश
7. व्ययेश 8. व्ययेश से संबंधित पाप ग्रह
9. व्ययेश से संबंधित शुभ ग्रह
10. (कभी-कभी) अष्टमेश
11. (कभी-कभी) केवल पापी।
जातक चन्द्रिका के श्लोक संख्या 25-27 की टिप्पणी में प्रो. बीसूर्यनारायण राव ने मारक ग्रहों की इस से भिन्न क्रम में सूची दी है जो इस प्रकार है:
1. द्वितीय एवं सप्तम में स्थित ग्रह।
2. द्वितीयेश एवं सप्तमेश
3. द्वितीयेश एवं सप्तमेश से युत ग्रह
4.योगकारकता से रहित और मारकेश से युत-दृष्ट केन्द्रेश एवं त्रिकोणेश।
5.तृतीयेश एवं अष्टमेश
6.सबसे निर्बल ग्रह।
किंतु इस सूची का क्रम न तो लघुपाराशरी के अनुरूप है और न ही बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अनुरूप ही। लघुपाराशरी में मारक ग्रहों की सूची बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अनुरूप है।
अतः प्रो. राव के मारक ग्रहों के क्रम को पाराशर-सम्मत नहीं कहा जा सकता। इस विषय में पराशर का वचन इस प्रकार हैः
9 ‘‘मारकस्य दशाकाले मारकस्थस्य पापिनः। पाके पापयुजां पाके संभवे निधनं दिशेत्।। असंभवे व्ययाधीशदशयां मरणं नृणाम्। अभावे व्ययभावेशसम्बन्धिग्रहभुक्तिषु।। तदभावेऽष्टमेशस्य दशायां निधनं पुनः। एतद्दशांतभुक्त्यादौ विचायैर्वं मृतिं वदेत।।’’ मारकेश निर्णय करने से पूर्व द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वादशेश, अष्टमेश एवं पापी ग्रहों का गंभीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक है क्योंकि सभी द्वितीयेश, सप्तमेश आदि मारकेश नहीं होते। कारण यह है कि जो भावेश शुभ प्रभाव में है वह मृत्यु नहीं देता, हां कष्ट अवश्य देता है।
जैसे कारक ग्रह चरम एवं परम शुभ फल का सूचक होता है वैसे ही मारक ग्रह परम अशुभ फल का सूचक होता है। अतः जो ग्रह द्वितीयेश, द्वादशेश या अष्टमेश होने के साथ-साथ लग्नेश या नवमेश हों वे मारक नहीं होते। इसी प्रकार सूर्य एवं चंद्रमा अष्टमेश होने पर मारकेश नहीं होते। इस प्रसंग में एक महत्वपूर्ण एवं ध्यान रखने योग्य बात यह है कि जैसे द्वितीयेश, द्वादशेश एवं अष्टमेश लग्नेश होने पर मारक नहीं होते वैसे ही इसके विपरीत ये ग्रह पाप स्थानों के स्वामी होने पर प्रमुख मारक ग्रह हो जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि जो ग्रह मारक स्थान एवं पाप स्थानों का स्वामी हो वह प्रमुख मारक और जो ग्रह मारक स्थान के साथ-साथ शुभ स्थान का स्वामी हो वह मारक लक्षण वाला माना जाता है और कभी-कभी मृत्युदायक होता है। इसके साथ-साथ एक अन्य बात भी स्मरणीय है कि मारक ग्रहों का परस्पर संबंध, उनका अष्टमेश या त्रिषडायाधीश से संबंध मारक-प्रभाव को बढ़ाता है। संदर्भ:
1. मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार से निर्मित सूक्ष्म शरीर।
2. (अ) नायुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।
(आ) अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
3. जन्मान्तरकृतं कर्म तद्दैवमिति कथ्यते।
4. ‘‘अष्टमं ह्यायुषः स्थान अष्टमादष्टमं च यत्। लघुपाराशरी श्लोक 23
5. तयोरपि व्ययस्थानं मारकस्थान मुच्यते। तत्रैव श्लोक-23।
6. बृहद्पाराशर होरा शास्त्र अध्याय 12 श्लोक 3 एवं 8 ।
7. तत्राप्यधव्यय स्नानाद् द्वितीयं बलवत्तरम्। तत्रैव श्लोक 24 ।
8. तत्रैव श्लोक 24-27।
9. बृहद्पाराशर होरा शास्त्र मारक भेदाध्याय श्लोक 2-3, 6-7।