सर्व विशिष्ट भारतीय तीर्थ काशी भारतवर्ष तीर्थों का देश है। यहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक और सौराष्ट्र से असम तक अनेक तीर्थ व पर्यटन स्थल हैं। भारत भूमि के कुछ तीर्थ स्थल अपनी प्राकृतिक संपदा के कारण स्वर्ग से सुंदर हैं जहां देवी देवताओं का वास है। वहीं दूसरी तरफ यहां की भूमि वेदों की ऋचाओं, देव मंत्रों व श्लोकों के साथ-साथ ऋषि मुनियों के जयघोष से गुंजायमान रहा है। ऐसे तीर्थों में बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणासी सर्वप्रमुख है। संपूर्ण भारतवर्ष की प्राचीनतम एवं पवित्रतम नगरियों में प्रथम काशी मुक्तिदायिनी एवं मोक्ष प्रदायिनी तीर्थ है। भारतीय धर्म, संस्कृति, साधना एवं साहित्य की केंद्र स्थली के रूप में भगवान शंकर की प्यारी, तीनों लोकों से न्यारी परम पावनी काशी नगरी का स्थान मूर्धन्य रहा है। भारतीय वाड.
्मय इसकी गरिमामय गाथाओं से भरा पड़ा है। प्राचीन भारतीय सप्तपुरियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और जंबूद्वीप के तीन स्थलों गया, प्रयाग और काशी में काशी के बारह नाम बताए गए हैं जिनमें वर्तमान संबोधन वाराणसी के नाम से यह शहर संपूर्ण-विश्व में भारतवर्ष की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में जाना जाता है। देश के प्रमुख रेल मार्ग से संबद्ध उ. प्र. के चर्चित रेलवे स्टेशन मुगलसराय से 16 कि.मी. दूर वाराणसी गंगा के उŸारी तट पर उसकी दो सहायक नदियों वरुण और असी (अक्सी) के मध्य स्थित है। इसी कारण इस महातीर्थ का नाम वाराणसी पड़ा जो आजकल बनारस के नाम से भी जाना जाता है अर्थात् जहां का रस (तासीर) सदा बना रहे, वही है बनारस। द्वादश ज्योति£ंलगों और 51 शक्ति पीठों में एक देवी-देवताओं के इस शहर का इतिहास भी उतना ही प्राचीन और समृद्ध है जितने वेद पुराण आदि। वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषद् व अन्यान्य प्राचीन आख्यानों के साथ-साथ पुरातत्व व इतिहास में भी इसका नाम सहज जुड़ जाना इस महातीर्थ का सर्वविशिष्ट गुण माना जाता है। इस प्राचीनतम नगरी काशी ने भारतीय इतिहास में कई नए अध्याय जोड़े हैं। सचमुच भोले शंकर के त्रिशूल पर बसा यह नगर अपने आन, बान और शान के लिए जगत् प्रसिद्ध है जहां साल के बारहों महीने देशी-विदेशी शैलानियों का जमावड़ा लगा रहता है। कहा भी गया है- जिसने काशी की सुबह नहीं देखी, कुछ भी नहीं देखी........कारण काशी की सुबह और लखनऊ की शाम लाजवाब होती है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी के 16 महाजनपदों में काशी की भी गणना है। राजघाट के उत्खनन संकेत प्रदान करते हैं कि 600 ई. पू. के पहले से ही काशी आबाद हो गई थी। ईसापूर्व छठी शताब्दी में पूरे नगर की मिट्टी से घेराबंदी किए जाने के विवरण उपलब्ध होते हैं। तथागत के समय काशी संस्कृति एवं ज्ञान का इतना महत्वपूर्ण केंद्र था कि बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश (धर्मचक्र प्रवर्तन) यहीं से लगभग 92 कि.मी. की दूरी पर स्थित सारनाथ (सारंगनाथ, प्राचीन नाम मृगदाव) में किया था। यहां आज इस स्थल पर बौद्ध मंदिर, धर्मक स्तूप, धर्मराजिका और प्राचीन उद्यान के साथ-साथ पुरातात्विक संग्रहालय विद्यमान है जहां देश का राष्ट्रीय चिह्न अशोक चक्र रखा हुआ है। आगे के समय में भी काशी का यह नगर भारतीय सभ्यता संस्कृति व पांडित्य केंद्र बना रहा। काफी समय तक काशी और काशी नरेश की प्रतिष्ठा की गाथाएं संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप में सुनी जाती थीं। पुराकाल से मध्यकाल तक मूर्तिशिल्प उद्योग एवं वस्त्र निर्माण उद्योग का प्रमुख कंेद्र काशी नगर एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक स्थल रहा जहां जल एवं थल मार्ग से दूर-देश के व्यापारी व्यापार हेतु आते रहते थे। अनेक देशों में, खासकर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में, भारतीय सभ्यता संस्कृति के प्रचार-प्रसार में काशी वासियों का योगदान आज भी याद किया जाता है। काशी का मलमल उत्कृष्ट परिधान सदियों से विख्यात हैं। प्राचीनतम् हिंदू विद्या केंद्र के रूप में काशी का अपना अलग महत्व रहा है। संप्रति काशी हिंदू विश्वविद्यालय यहां उसी परंपरा का निर्वहन कर रहा है जो कि पं. मदन मोहन मालवीय की प्रेरणा व देश सेवा का प्रतिफल है। चारों दिशाओं में पांच-पांच कोस तक फैले काशी तीर्थ के प्रति मान्यता है कि जीवात्मा को मृत्यु काल में अगर काशी क्षेत्र प्राप्त हो जाए तो वह निश्चिय ही मोक्षाधिकारी होगा, कारण काशी में शिवशंकर भोले भंडारी नित्य विराजते हैं और अन्य भारतीय तीर्थों की भांति यहां के लेखपाल श्री चित्रगुप्त न होकर स्वयं सदाशिव रूपी काल भैरव नाथ जी हैं जिन्हें काशी का कोतवाल और काशी तीर्थ का क्षेत्रपाल आदि नामों से विभूषित किया गया है। प्राचीन नगरी होने के कारण काशी में पग-पग पर पुराने कलात्मक भवन, मठ, मंदिर, धर्मशालाएं व कई अन्य धर्मों के पूजन स्थल देखे जा सकते हैं। काशी का सबसे बडा़ आकर्षण है यहां की गंगा जिसके घाटों की शोभा अद्वितीय और अवर्णनीय है। गंगा जी के शताधिक घाट बताए जाते हैं जिनमें आधे से अधिक काल के गाल में समाहित हो चुके हैं। जो शेष बचे हैं उनमें दशाश्वमेध’, ‘मणिकर्णिका’, पंचकर्णिका’, ‘अहिल्याबाई आदि का अपना ऐतिहासिक महत्व है। काशी मंदिरों का शहर है, देवताओं की नगरी है। यही कारण है कि यहां कोटि-कोटि देववृंन्द और उनके पूजन, दर्शन के स्थान व पीठ स्थित हैं। यहां के देव स्थलों में श्री काशी विश्वनाथ सर्वप्रमुख हैं जो द्वादश ज्योति²लगों में सप्तम् क्रम पर विराजमान हैं। एक नव निर्मित काशी विश्वनाथ मंदिर, विश्वविद्यालय परिसर में भी है। इसके अतिरिक्त विशाल श्री मंदिर, अन्नपूणा मंदिर, काल भैरव मंदिर, तुलसी मानस मंदिर, दुर्गा मंदिर, संकट मोचन, भारत माता मंदिर आदि यहां के धार्मिक क्षितिज को अप्रतिम बनाए हुए हैं। यहां नगर में कुंडों व तालाबों की भरमार है। वहीं काशी के अखाड़े का भी सुदीर्घ इतिहास रहा है। काशी अपनी रहन-सहन, वेशभूषा व शान-शौकत के लिए भी देश विदेश में प्रसिद्ध है। यहां के मिष्ठान, पान और भांग (ठंडाई) दूर-दूर तक प्रख्यात रहे हैं। बनारस की साड़ी के बिना तो दुल्हन का शृंगार पूरा ही नहीं हो पाता। पुरा काल से ही वाराणसी पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख कंेद्र रहा है। वैसे विदेशी जो भारत व भारतीयता को नजदीक से देखना चाहते हैं, सैर के लिए सबसे पहले वाराणसी ही आते हंै। तभी तो फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने काशी को ‘भारत का एथेंस’ कहा है। समय के साज पर काशी एक ऐसा भारतीय नगर है जिसके गौरव की पताका सदैव लहराती रही है। प्राचीनता, उतनी नवीनता और विविधता से भरी यह प्यारी नगरी। काशी पंडितों और ज्योतिषियों का श्री पीठ मानी जाती है। काशी के पंडों, पंडितों की भी अपनी सभ्यता संस्कृति रही है जो अपने अजब-गजब कारनामों के लिए विख्यात रहें हैं। तात्पर्य यह है कि काशी एक उत्तमोत्तम भारतीय तीर्थ है। किसी ने ठीक ही कहा है कि यहां माणिक्य से दिन और मोती सी रातें हुआ करती हैं। सचमुच काशी, काशी है जिसके एक बार दर्शन से उसकी छवि आजीवन स्मृति फलक पर अंकित रहती है।